रवीन्द्र त्रिपाठी
विजय तेंदुलकर का लिखा मराठी नाटक `सखाराम बाइंडर’ एक आधुनिक भारतीय क्लासिक का दर्जा हासिल कर चुका हैं और अन्य भाषाओं के अलावा ये हिंदी में भी कई बार खेला जा चुका है। अलग अलग निर्देशकों ने इसे अपने अपने तरीके से पेश किया है। इसी कड़ी में पिछले दिनों दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में इसकी एक नई प्रस्तुति हुई। `बाइंडर’ नाम से। ये उत्तर-आधुनिक प्रस्तुति थी और इसमें कई तरह के प्रयोग किए गए थे। बंगलुरु की नाट्य मंडली `थिएटर ऑन योर ओन’ (जिसे संक्षेप में `टोयो’ कहते हैं) की ओर से सर्बजीत दास के निर्देशन में हुआ ये नाटक मूल नाट्यालेख को सुरक्षित रखते हुए भी प्रस्तुति की प्रक्रिया में उसमें कई तरह के तोड़फोड़ भी करता है। मूल रचना में तोडफोड़ करते हुए उसके भीतर नई अर्थ संभावनाओं को खोजना उत्तर- आधुनिक नाट्य पद्धति की एक खासियत है और `बाइंडर’ इसे बखूबी करता है। यहां उत्तर- आधनिकता सिर्फ नाम या जुमला भर नहीं है बल्कि एक नाटक के भीतर अर्थ और नाट्यानुभव की विविधता की तलाश से उपजता है।
कौन से नए प्रयोग हैं इस नाटक में? किस तरह की तोड़फोड़ है इसमें? आइए, एक एक कर उनकी शिनाख्त करते हैं। पहली बात तो ये कि इसमें आवाज और शरीर अलग अलग हैं। इसे इस तरह से समझिए कि सखाराम नाम का जो चरित्र मंच पर अभिनय या दूसरे कार्यकलाप करते दिखता है उसका सवांद मंच पर बैठा दूसरा व्यक्ति बोलता है। यानी एक तरफ जो व्यक्ति अपनी भूमिका मंच पर अदा कर रहा होता है उसकी आवाज दर्शकों को सुनाई नहीं पड़ती और जिसकी आवाज सुनाई पड़ती है वो अभिनय नहीं कर रहा होता है, बल्कि कोने में बैठा होता है। `बाइंडर’ में सखाराम की भूमिका दो अभिनेता निभाते हैं। अलग अलग समय। एक समय जब पहला अभिनय कर रहा होता है तो उसी वक्त दूसरा अन्य जगह बैठकर अपने संवाद बोल रहा होता है। दूसरे दो प्रमुख चरित्रों लक्ष्मी औऱ चंपा के साथ भी यही होता है और अन्य गौण चरित्रों के साथ भी। पांरपरिक नाट्य भाषा में कहें तो आंगिक और वाचिक एक दूजे में मिलते नहीं बल्कि टकराते हैं। दर्शक के लिए आस्वाद-ग्रहण की प्रकिया भी बदल जाती है। उसे दोनों स्तरों पर सचेत रहना पड़ता है। नजर एक जगह और कान दूसरी जगह रखनी पड़ती है।
दूसरा बड़ा प्रयोग इसमें मंच सज्जा का लेकर है। इसमें मंच पर एक फोल्डिंग पैनल. है जो खुलने और बंद होने की प्रक्रिया में अलग अलग दृश्य पेश करता है। अमूर्त चित्रों की तरह। कई तरह कें रंगों और छवियों से भरपूर। इस पैनल पर कुछ पेंटिगें हैं और ये कैनवास कपड़ो पर की गई है और इनको लोहे की छड़ों और लकड़ों के डंडों के साथ पिरोया गया है। अवसर के अनुकूल पैनल की दीवारें खुलती/बदलती रहती हैं जिसके कारण नाटक में दृश्यात्मक विविधताएं पैदा होती रहती हैं। ये दृश्य पात्रों के मनोविज्ञान को भी दिखाते है। तीसरा बड़ा प्रयोग इसमें संगीत को लेकर है। इसमें जांबे और ड्रम का प्रयोग काफी है। हालांकि मूल नाटक में ये बताया गया है कि सखाराम मृंदग बजाता है। इस नाटक में मृदंग भी हैं लेकिन उसका उपयोग कम है। सखाराम की आक्रामकता, खासकर उसकी यौन आक्रामकता, को जांबे की आवाज ध्वनित करती हैं। और दूसरे पात्रों के मनोवैज्ञानिक तनाव को ड्रम। इसके संगीत का हिस्सा कुछ स्वनोर्मित उपकरणों या बर्तनों से भी तैयार किया गया है। संगीत इस नाटक का बड़ा अवयव है।
औऱ चौथा बड़ा प्रयोग इसमें प्रकाश योजना को लेकर है। विशेषकर टॉर्च की रोशनी मंच पर और अभिनेताओं के मुंह या शरीर के दूसरे हिस्सों पर इस तरह पड़ती हैं कि अतियथार्थवादी किस्म का प्रभाव पड़ता है। ये प्रविधि भी इस मंडली ने तब विकसित की जब उनको छोटे कमरों में नाटक करने होते थे और जहां प्रकाश की व्यवस्था करना कठिन था।
सन् 1974 में लिखा गया तेंदुलकर का ये नाटक आधुनिक भारतीय रंगमंच पर एक समस्या के रूप में भी आया था क्योंकि कुछ लोगों ने इसे अश्लील करार दिया था। हालांकि इसमें अश्लीलता नाम की कोई चीज नहीं थी। हां, बेशक ये एक ऐसे पुरुष यानी सखाराम नाम के एक चरित्र को सामने लाता है जो पांरपरिक नहीं है। इस अर्थ में कि वो शादी नहीं करता, अलग अलग वक्त में अपने घर पर किसी औऱत को लाता है। उसको खाना-कपड़ा देता है और रहने के लिए घर और फिर उनके साथ यौन संबंध बनाता रहता है। फिर कुछ दिनों के बाद वो उस औरत को छोड़ भी देता है। इस तरह कई औरतें उसके यहां रह चुकी हैं। एक दिन वो लक्ष्मी नाम की औऱत को लाता है जिसका पति नहीं है। लक्ष्मी एक धार्मिक स्वभाव की महिला है। चुपचाप रहनेवाली और चींटी से बात करनेवाली। कुछ दिनों के बाद सखाराम किसी बात पर नाराज होकर उसे घर से निकाल देता है और उसके बाद चंपा नाम की औरत को लाता है। चंपा मुहफट है, लक्ष्मी से अलग। जैसा कि होता रहता है एक दिन सखाराम चंपा से भी नाराज होता है और उसी दिन लक्ष्मी लौट आती है। अब सखाराम क्या करे? वो चाहता है लक्ष्मी वापस चली जाए। लेकिन चुप्पा सी दिखनेवाली लक्ष्मी ऐसा खेल खेलती है सखाराम चंपा को मार देता है। दरअसल `बांइडर’ मूल नाटक की कई तहों को खोलता है। बल्कि ये कहना चाहिए कि उघाड़ता है। हर चरित्र अपने भीतर कई तहें लिए हुए। चालाक समझने वाला सखाराम सीधी सी लक्ष्मी के दांवपेंच का शिकार हो जाता है। और लक्ष्मी भी इसलिए ऐसा नहीं करती है कि वो चालाक है बल्कि इस कारण करती है कि उसके सामने कोई विकल्प नहीं है। उसका कोई ठौर ठिकाना नहीं है। कहां जाए वो? और चंपा जो मुहफ और गुस्सैल है अपने तई सीधी सादी है।
`’टोयो’एक ऐसी रंगसंस्था है जिसमे ज्यादातर कलाकार आईटी उद्योग में काम करते हैं और देश के अलग हिस्सों से आते हैं। इनके नाटक करने का तरीका कुछ मायनों में दूसरे नाट्य दलों या मंडलियों से इसलिए अलग है कि ये किसी अकादमिक नाट्य संस्थान से निकले हुए लोग नहीं है। हां, इनके भीतर रंगमंच का जज्बा रहा है और उसी कारण कुछ तो अपनी नौकरी छोडकर इसी में लग गए हैं। निर्देशक सर्वजीत दास भी। चूंकि ये रंगकर्मी अलग अलग राज्यों या भाषायी पृष्ठभूमि से आए हैं इसलिए इनमे एक तरह की बहुसांस्कृतिकता है। नाटक में ये बहुसांस्कृतिकता भी दिखती है।
Posted Date:May 7, 2019
6:10 pm Tags: सखाराम बाइंडर, विजय तेंदुलकर, टोयो, थिएटर ऑन योर ओन, रवीन्द्र त्रिपाठी