जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की भव्यता और वहां से शुरु हुआ साहित्य उत्सवों का सिलसिला अब एक व्यापक रूप ले चुका है। पहले विश्व पुस्तक मेला और उसके बाद पुस्तक मेलों की भरमार, हर शहर में पुस्तक मेले और वहां का उत्सवी स्वरूप। साथ ही साथ सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव और वहां लाइक्स, कमेंट्स पाने की ख्वाहिश। बेशक इसे साहित्य के स्वर्णिम काल के तौर पर देखा जा रहा हो, लेकिन क्या इसका असर गंभीर और आम लोगों से जुड़े साहित्य सृजन पर भी पड़ा है? क्या अपनी रचनाओं को लेकर लेखकों की सोच में भी बदलाव आया है? क्या अब सिर्फ इन मेलों और उत्सवों को केन्द्र में रखकर लिखने की ख्वाहिश ने लेखकों को पहले से कहीं ज्यादा आत्मकेन्द्रित और आत्मप्रशंसा का शिकार बना दिया है? क्या इसका असर उनके कंटेंट और उसकी गंभीरता पर भी पड़ा है और क्या पुस्तक मेलों, साहित्य के बड़े उत्सवों, उसके व्यावसायीकरण और ग्लैमर युक्त आयोजनों ने रचनाकारों को पेज थ्री सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश की है? साहित्य सृजन के लिए और इसके फायदे नुकसान पर ये आलेख अतुल सिन्हा ने अमर उजाला के लिए लिखा है। 7 रंग के पाठकों के लिए भी पेश है। अपनी प्रतिक्रिया जरूर दीजिए।
आज जो साहित्य लिखा-रचा जा रहा है उनमें से ज्यादातर सोशल मीडिया के प्रचार, लाइक, कमेंट्स, भव्य विमोचन और तमाम पुस्तक मेलों से लेकर लिटरेचर फेस्टिवल को ध्यान में रखकर लिखा जा रहा है। इस सत्य को प्रकाशक भी स्वीकारते हैं और लेखक भी। दरअसल पिछले कुछ सालों में बाजार के दबाव में साहित्य का जो उत्सवी चेहरा, भव्यता और लेखकों के स्टारडम वाली ईमेज देखने को मिला है, पश्चिमी देशों के प्रकाशकों की तरह यहां भी कुछ पुस्तकों को ‘बेस्ट सेलर’ बनाने की जो होड़ दिखती है, उससे साफ है कि साहित्य में जबरदस्त ग्लैमर की घुसपैठ हो चुकी है। कुछ मायने में इसे अच्छा भी मान सकते हैं कि चलिए, इस बहाने साहित्य, साहित्यकारों, लेखकों को जितना निरीह माना जाता था, बाज़ार ने उन्हें भी ब्रांड बनाना शुरु कर दिया है।
जो हमारे कालजयी लेखक हुआ करते थे, बेशक देश, काल, समाज को देखते हुए उनका लेखन आज की पीढ़ी को या कहें कि आज के दौर के रचनाकारों को भी उतना न भाए, लेकिन अब चूंकि बाजार ने उन्हें भी एक बड़ा ब्रांड बनाकर बेचना शुरु कर दिया है, तो इसे उनके लिए भी स्वर्णिम काल ही मान लिया जाए। दरअसल आज पढ़ने से ज्यादा जरूरी है इस ब्रांड के बारे में बात करना और उनकी चंद किताबें अपने ड्राइंग रूम में रखना।
बहरहाल इस चर्चा का मकसद नकारात्मक नहीं माना जाए, बल्कि साहित्य के इस स्वर्णिम काल को सकारात्मक तौर पर देखा जाए। हमारे कवि मित्र और कुछ अन्य साथी पत्रकार, लेखक और मौजूदा साहित्यिक, सांस्कृतिक परिदृश्य पर चिंता जताने वाले रचनाकर्मी इस बाजारवाद और चमक दमक को लेकर सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि आज जिस तरह देशभर में 300 से ज्यादा लिटरेचर फेस्टिवल या पुस्तक मेले हो रहे हैं, साहित्य उत्सव के मेले लग रहे हैं, वहां लेखक और साहित्यकार कहां खड़ा है। अपनी लिखी पुस्तकों को छपवाने से लेकर उसका भव्य विमोचन कराने, समीक्षाएं लिखवाने, तमाम वीडियो प्लेटफॉर्म पर चर्चा करवाने, साहित्य उत्सवों के मंच पर आने की इसी भूख को प्रकाशकों के बाजार भाव ने बखूबी समझा है।
अब पूरे साल देश में कहीं न कहीं ऐसे आयोजन होते रहते हैं। कोरोना काल के बाद अचानक ऐसे साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनों की बाढ़ आ गई है, बड़ी संख्या में लोग उमड़ रहे हैं, हर आयोजन में कोई न कोई सेलिब्रिटी लाने की कोशिश होती है। आयोजकों के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रायोजक जुटाकर लाभ और शोहरत कमाना उनके व्यवसाय का एक हिस्सा भी है। इसे आप ‘सोशल रेस्पॉंस्बिलिटी’ भी कह सकते हैं और बड़ी कंपनियों के ‘सीएसआर फंड’ को खर्च करने का एक माध्यम भी। इसका गणित बहुत बारीकी से काम करता है। साहित्य के इन ‘मेगा इवेंट्स’ के लिए नामी गिरामी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी आ चुकी हैं। आप अपना आइडिया दीजिए, मोटी धनराशि खर्च कीजिए और फिर देखिए इसकी भव्यता। साहित्यकार, लेखक भी खुश और नई पीढ़ी को मुफ्त में कुछ सेलिब्रिटी को देखने सुनने का सुनहरा मौका भी। छोटे बड़े प्रकाशकों के स्टॉल भी और इसी बहाने कुछ पुस्तकों की बिक्री भी।
ऐसे ही एक बड़े साहित्यिक उत्सव में आए एक वरिष्ठ लेखक कहते हैं कि मैं तो ये देखने आया हूं कि कैसे साहित्य का चेहरा आज बदला है। पहले लेखक एक ‘बेचारा’ था, अपनी रॉयल्टी के लिए परेशान रहता था, प्रकाशकों और लेखकों के बीच एक शीतयुद्ध छिड़ा रहता था, उसकी छवि दीन हीन होती थी, लेकिन तब वह जो लिखता था वह जीवन की सच्चाइयों को करीब से देखकर लिखता था, मानवीय संवेदना को महसूस करके लिखता था, सत्ता और बाजार के चक्रव्यूह में नहीं फंसा था, भाषा और शब्दों को लेकर उसकी अपनी चिंताएं थीं, बहसें होती थीं, वैचारिक टकराव को संजीदा तरीके से सामने लाने का भी एक तरीका था। त्रिलोचन, नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध, निराला, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा से लेकर महाश्वेता देवी तक में एक आत्मसम्मान, अक्खड़पन और आम आदमी के बीच से साहित्य को रचने का जज्बा था और दृष्टि तो थी ही, लेकिन अब वो एक पूरी पीढ़ी चली गई। सोशल मीडिया ने घर घर में लेखक और कवि पैदा कर दिए, आज की राजनीतिक व्यवस्था ने अपनी वंदना करने वाले रचनाकारों को गढ़ने की प्रक्रिया तेज कर दी।
एक लेखक पेड़ के नीचे छांव में बैठे मिले। कहने लगे, देखिए क्या हालत हो गई है। आयोजन साहित्य का हो रहा है और बड़े बड़े कटआउट्स आज के उन एंकर्स के लगे हैं जिनका साहित्य से कोई नाता नहीं है। यहां एक भी लेखक या साहित्यकार का कोई कटआउट दिखा दीजिए।
लेखक महोदय अपनी इस ईमानदार टिप्पणी को लेकर नाम न छापने का आग्रह भी करते हैं और फिर अपनी बात विस्तार से कहते भी हैं कि पुरस्कारों के कई मंच आ गए और मीडिया से साहित्य गायब हो गया या कहीं हाशिये पर पड़ा रहा। साहित्य संस्कृति की हालत पर चिंता करने वाले, हालात पर तकलीफ को इजहार करने वाले बहुत हुए, छोटी मोटी सभाएं और गोष्ठियों में साहित्य सिमटने लगा, तब बाजार की नजर इसपर गई। आयोजकों को यह समझ में आया कि ये तो बहुत बड़ा बाजार बन सकता है।
बेशक लेखक महोदय का दर्द हवा में नहीं है। इसके ठोस कारण हैं। यह सच है कि टीवी चैनलों की भरमार और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने साहित्य संस्कृति के बारे में भी सोचने को मजबूर किया। जाहिर है जब आप बाजारवाद के प्रभाव में आते हैं, ग्लैमर के खेल में फंसते हैं और सत्ता के तामझाम को महसूस करते हैं तो आपके लेखन पर भी उसका असर पड़ता है। आप किताबें भी वैसी लिखना शुरु करते हैं जिसकी बाजार में मांग हो, जिसका शीर्षक बिके, चर्चा में रहे, यानी आपकी अपनी टीआरपी हो।
जाहिर है बदलते वक्त की मांग को अगर आप पूरा नहीं करते, अपनी मार्केटिंग खुद नहीं कर सकते तो यहां भी आपके लिए राह आसान नहीं है। साहित्य की इस मंडी में टिके रहने के लिए जरूरी है कि बाजार की नब्ज़ को पहचानिए, वक्त की चाल के साथ चलिए और लिखने पढ़ने के अपने व्यवसाय को इस दौड़ में शामिल होने वाला बनाइए। तब आपकी इज्जत भी बढ़ेगी, तमाम आयोजनों में आपको पंचतारा सुविधाओं के साथ बुलाया भी जाएगा और आपके लिए मंच भी सजेगा। बशर्ते इसके लिए आपको बेहतर लॉबिंग आती हो, आप पुरस्कारों-सम्मानों के खेल के महारथी हों और अपना जनपक्षधर चेहरा बनाए रखते हुए, सत्ता को संभलकर गाली देते हुए अपना कनेक्शन हर जगह बनाए रखने की कला में माहिर हों। ऐसे कई लेखकों की इन उत्सवों में अब पूरी फौज नजर आती है जो लगातार इन कॉरपोरेट घरानों या सत्ता पर हमले करते रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ ये भी मानते हैं कि चलिए, इसी बहाने साहित्य-संस्कृति और कवियों, लेखकों को एक बड़ा मंच तो मिल रहा है, उनकी अहमियत तो समझ में आ रही है।
जाहिर है ऐसे आयोजनों से अब कुछ कवि-लेखक और रचनाकार भी काफी हद तक ‘पेज थ्री सेलेब्रिटी’ बन गए हैं। पेड़ के नीचे बैठे लेखक महोदय कहते हैं कि आज के लेखकों में टीवी और यूट्यूब पर देश की सच्चाई दिखती है, अपार्टमेंट संस्कृति और भव्य ड्राइंगरूम में उनका साहित्य आकार लेता है, तमाम सुविधाओं के बीच उन्हें जीवन का दर्द महसूस होता है, बातचीत करने पर उनके भीतर देश की चिंता, नष्ट होती पत्रकारिता का मर्म, मीडिया सेंसरशिप और फासिस्ट ताकतें नजर आती हैं, टीवी एंकरों के ‘बिके होने’ के दावों के बावजूद उनके सामने नतमस्तक फोटो खिंचवाने की ललक को भी वो रोक नहीं पाते। कम से कम ऐसे भव्य आयोजनों में साहित्य का मौजूदा स्वरूप भी दिखता है और वक्त के हिसाब से चेहरे बदलते लोग भी नजर आते हैं।
(अतुल सिन्हा का ये आलेख अमर उजाला डॉट कॉम के ब्लॉग में छपा है। वहीं से इसे साभार ले रहे हैं।)
Posted Date:November 22, 2022
1:58 pm Tags: Sahitya Aaj Tak, JLF, International Book Fair, Book Fair, पुस्तक मेले, साहित्य आजतक, साहित्य का उत्सवी चेहरा