दुनिया की सरहद के पार… सागर सरहदी का संसार

सागर सरहदी का जाना एक ऐसे तरक्कीपसंद शख्स का जाना है जिसकी झोली में सिलसिला, कभी कभी और चांदनी भी है तो बाज़ार और चौसर भी…  सागर सरहदी में यश चोपड़ा की ज़रूरतों के मुताबिक ढलने की कला भी है तो वक्त के साथ देश और समाज को बारीकी से देखने का अपना नज़रिया भी… सरहदी साहब बीमार चल रहे थे… 88 साल के हो चुके थे… लेकिन अब भी बेहद संज़ीदे तरीके से वक्त को देखते समझते थे। ‘7 रंग’ के लिए सागर सरहदी को याद करते हुए ये आलेख जाने माने पत्रकार, फिल्मों की गहरी समझ रखने वाले और ‘सिनेमा का जादुई सफ़र’ के लेखक प्रताप सिंह ने लिखा है। इस पुस्तक में प्रताप सिंह ने सागर सरहदी की लिखी मशहूर फिल्म बाज़ार पर पूरा एक खंड लिखा और अपने अनुभवों के आधार पर अपने तरीके से इस आलेख में उन्होंने सागर सरहदी को याद किया है… इस आलेख के ज़रिये 7 रंग परिवार की तरफ से सागर सरहदी को नमन….

(चित्र सौजन्य – बीबीसी)

सरहद के पहाड़ों-दरियाओं से घिरे एक छोटे से गांव वफ़ा में 11 मई 1933 को जन्मे गंगा सागर तलवार पहली समझ के दिनों में ही (शायद मैट्रिक से भी पहले) जे.एल.सरहदी की फिल्मों की

दीवानगी में सागर सरहदी बन गए। यह उन्होंने सालों बाद ‘बाज़ार’ फिल्म के मौके पर दिए इंटरव्यू के दौरान बताया। जगह थी गोल मार्केट! साल था 1982। इस बीच थिएटर कब का छूट चुका था। यश चोपड़ा ने उनका फ़क़त एक नाटक देखा था।

फिर वो उनके फिल्मों के लिए लिख रहे थे। और खुद की फिल्में बनाते-बनाते चांदनी/नूरी से हैदराबाद के एक अखबार में छपी एक कतरन तक पहुंचे थे जिसमें ‘बाज़ार’ की नज़्मा, अम्मी और कमसिन शबनम (सुप्रिया पाठक) की बेबसी झांक रही थी।

दर्द-आशना बेबस किरदारों की उस बस्ती में सुप्रिया पाठक बाज़ार फिल्म का मरकज़/केंद्र रही। उनके किरदार की रूह के साथ ही सागर सरहदी ने फारूक शेख, नसीर, सविता बजाज और स्मिता पाटिल के किरदारों को भी जगाया था। इतना कि, फिर बाजार के सभी चरित्रों से अलग होना मुश्किल हो गया था। जबकि उसमें हैदराबाद और हिन्दुस्तान के बड़े शाइर मख़्दूम की ग़ज़लें भी उतना ही बोल रही थीं। मुझे बेबसी की इस बस्ती की नज़्मा (स्मिता पाटिल) का सलीम (नसीर) की मौजूदगी में किया कन्फेशन याद आता है…

“मुझे कुछ कहना है… मैं इस गुनाह … इस नाइंसाफी में बराबर की हिस्सेदार हूं!”_

बाज़ार दर्शकों के दिलों में इतना उतर चुकी थी कि एक सेंटर स्प्रेड अखबार का उस पर खर्च करना बनता ही था। वही किया।

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(सागर सरहदी का यह रेखांकन स्व. तारा चन्दर जी का है जो प्रताप सिंह ने हमें उपलब्ध कराया है)

पहले के सागर सरहदी कभी-कभी/ सिलसिला/ चांदनी की मार्किट के खुदा बन चुके थे और फिर भी बाजार की क्लासिकी से अपनी और चहेतों की प्यास बुझा रहे थे। पर यह प्यास बुझती कहां थी…! सुपर-डुपर फिल्मों से…?

लिहाज़ा खुद कथाकार/ लासानी स्क्रिप्ट राइटर होते हुए कालजयी कहानियां रिसालों में खोज रहे थे। फिर उन्हें रामजन्म पाठक की एक कहानी (शायद “बंदूक”) मिल गई। उनकी खुद की लाइब्रेरी में दुनिया भर का किताबी खजाना था। गुंटर ग्रास peeling for onion समेत। इतना बड़ा किताबों का ताजमहल दिलीप कुमार, राही मासूम रज़ा , राजकुमार और विष्णु खरे का भी नहीं हो शायद। बावजूद इसके पाठक जी की आंचलिक कथा उन्हें रास आ गई जो शायद ‘सारिका’ या ‘कथादेश’ में छपी थी। उन्होंने कहानी की मीमांसा को पकड़ा, मांजा और अब उनकी प्रयोगशील  फिल्म के लिए उसका नाम हो गया – चौसर !

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यही शायद उनकी कायदे की आखिरी फिल्म थी। औरत का दमन, उत्पीड़न और प्रतिकार यहां बोल रहे थे। बाजार के 25 साल बाद चौसर में महाभारत की द्रोपदी का रूपक जशोदा के किरदार में नये सन्दर्भों को फिर ओंटा रहा था। दस्तक दे रहा था। एक जशोदा पति, रूढ़ समाज और खाप की चौसर पर दांव पर लगी थी। जशोदा नायिका-प्रधान उत्तर-काल की फिल्मों को भी दस्तक दे रही थी। जशोदा के थोपे गए  पति मंथन की याद दिला रहे थे।

पर यहां उसका एक्सपोजर हुआ था। फ्यूडल सोसाइटी के भी इस एक्सपोजर से मैं बहुत मुतासिर हुआ। पर उन्हें अपसेट पाया। फिल्म चली नहीं…’श्वास’ फिल्म की प्रखर- सौम्य अभिनेत्री अमृता सुभाष, नोवाज, संजीव तिवारी, राजेश सिंह, पूर्वा पराग और सुजाता ठक्कर की दमदार मौजूदगी के !!! बावजूद निदा फ़ाज़ली की शायरी और सुदीप बनर्जी के संगीत के!! ऐसे में फिल्म डूब गई । तब एक दोस्त एम. एस.लहरी ने संभाला था।

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‘बाजार’ और  ‘चौसर’ कोई ‘कहो न प्यार है’ नहीं थी जो उन्होंने ही लिखी थी कभी। इसे याद नहीं रखना चाहते थे। ‘चौसर’ के प्रर्दशन के मौके पर यह उनसे दूरदर्शन के स्टूडियो में आखिरी मुलाकात थी। जहां यह फिल्म कतार में खड़े होने की बाट जोह रही थी । मैं प्रतिघात, मृत्युदंड और दामुल के बड़े ग्राफ की नायिका प्रधान फिल्मों से अलग छोटे बजट का उतना ही सच्चा शाहकार देखकर लौट रहा था कि ऐसे में उन्हें मुश्किलों से निकालने वाले लहरी जैसे और भी हमसायों की जरुरत वाकयी महसूस हो रही थी।

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आज जब 21 मार्च की देर रात में वह दुनिया की सरहद छोड़ चुके हैं। उन्हें अपनी ही बेहतरीन फिल्मों के कांधे से राहत मिलने वाली है। बेशक एक घर, चंद दोस्त और सिने दुनिया भी शोक में डूबे रहेंगे।…

पर शैलेन्द्र की तरह वो भी… दोस्तों के रहते कितने अकेले थे! खुद्दारी ने उन्हें खामोश कर दिया था । अब ऐसी घड़ी में भी मुझे शकील याद आ रहे हैं-

 

मुझे दोस्त कहने वाले

जरा दोस्ती निभा ले

ये मुताअला है हक का,

कोई इल्तिज़ा नहीं।।

 

🪶    प्रताप सिंह

 

 

Posted Date:

March 22, 2021

5:13 pm Tags: , , ,
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