‘युवा’: कृष्णा सोबती के योगदान पर सार्थक चर्चा
नई दिल्ली , 19 फरवरी। हिंदी की यशस्वी लेखिका कृष्णा सोबती क्या उभय लिंगी लेखिका थी? क्या उनकी भाषा राजनीतिक भाषा थी और उनकी लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि में कोई फांक थी? कृष्णा सोबती की जन्मशती के मौके पर रज़ा फाउंडेशन की ओर से आयोजित युवा समारोह में इन सवालों पर आरंभिक दो सत्रों में विचार हुआ।
समारोह में उद्घटान वक्तव्य देते हुए  प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी ने पहले सोबती के उदार और साहित्य के प्रति समर्पित व्यक्तित्व की  सराहना करते हुए बताया कि उन्होंने किस तरह अपने डोगरी कथाकार पति शिवनाथ जी के निधन के बाद उनकी जमा एक करोड़ रुपये की राशि रज़ा फाउंडेशन को दे दी। फिर जब उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में 11 लाख रुपए मिले तो उन्होंने अस्पताल में भर्ती होने के बाद भी वह राशि रज़ा फाउंडेशन को दे दी। इसीसे हमने सोबती शिवनाथ निधि की स्थापना की। उन्होंने यह राशि साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए इस्तेमाल करने को कहा। हिंदी में आज तक न तो उनसे पहले और न बाद में किसी लेखक ने इतनी बड़ी रकम साहित्य के लिए दिया। यह उनका साहित्य प्रेम था और उनकी यह उदारता थी।
अशोक वाजपेयी ने बताया कि उन्होंने पिछले सात सालों में सात युवा कार्यक्रम किए और  बीस शहरों के करीब 200  युवा  लेखकों ने इनमें हिस्सा लिया। युवा लेखकों का इतना बड़ा आयोजन पहले हिंदी में नहीं हुआ। लेकिन हिंदी की दुनिया में कोई सोबती जी की जन्मशती पर यह खबर देने वाला भी नहीं है।
समारोह के पहले सत्र में युवा कवि आलोचक कुमार मंगलम, जगन्नाथ दुबे, कथाकार अणुशक्ति सिंह और कवयित्री अनुपम सिंह ने सोबती जी की लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि पर विचार वक्तव्य किए।
श्री कुमार मंगलम ने उपन्यास के बारे में  रामचन्द्र शुक्ल, जैनेंद्र और प्रेमचन्द्र  के विचारों के हवाले से औपन्यासिक दृष्टि पर विचार किया और सोबती जी के कुछ उपन्यासों में व्यक्त उनकी दृष्टि की मीमांसा की।
जगन्नाथ दुबे ने सवाल किया कि लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि क्या अलग अलग होती है या लेखक के जीवन से बनी दृष्टि उसमें शामिल नहीं होती। उन्होंने स्वीकार किया कि सोबती जी ने अपने जीवन में सत्ता का जिस तरह विरोध किया वह उनकी औपन्यासिक दृष्टि में भी परिचायक है।
अणुशक्ति सिंह का मानना था कि उनकी लेखकीय दृष्टि और औपन्यासिक दृष्टि में कम फांक थी और यौनिकता का टैबू उनमें नहीं था। उनके लिए स्त्री की आज़ादी महत्वपूर्ण थी जिसमें यौनिकता भी शामिल है।
वरिष्ठ कवि कथाकार प्रियदर्शन का कहना था कि रचनाकार के लेखन में किसी तरह का द्वंद्व कोई बुरी चीज नही। एक ईमानदार लेखक के लेखन में यह होना ही चाहिए। उन्होंने कहा कि सोबती जी भले ख़ुद को स्त्रीवादी लेखिका न मानती हों , मंन्नू भंडारी और मृदुला गर्ग ने भी कभी खुद को स्त्रीवादी नहीं माना पर सोबती के लेखन में उनके किरदार उनकी लेखकीय गिरफ्त से छूट गए हैं और किरदार  लेखक से अलग  खड़े दिखाई देते हैं।
आलोचक सुधा सिंह ने दूसरे सत्र में सोबती जी और भाषा का वितान पर चर्चा करते हुए  लेखन में भाषा  के महत्व को रेखांकित किया और कहा कि भाषा समाज से बनती है और लेखक अपनी भाषा मे कहीं न कहीं खड़ा होता है। सोबती जी भले खुद को उभयलिंगी कहती हों पर उनकी रचनाओं में  स्त्रीविमर्श दिखाई देता है।
समारोह में  प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज, गोपेश्वर सिंह, जगदीश्वर चतुर्वेदी, विनोद तिवारी, अपूर्वानंद,  हरिनारायण आदि मौजूद थे।
अरविंद कुमार की रिपोर्ट
Posted Date:

February 19, 2025

4:46 pm Tags: , ,

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