राजीव सिंह की कलम से…
दिल से एहसानमंद हूँ बनारस का: बिस्मिल्ला खां
बात क़रीब पचीस बरस पहले की है कोई 1994- 95 की। उन दिनों लखनऊ से निकलने वाले राष्ट्रीय सहारा दैनिक अख़बार के बनारस ब्यूरो में काम करता था। अख़बार में कला-संस्कृति से जुड़ी खबरों को पर्याप्त स्थान मिलता था। अख़बार ने तय किया कि सूबे की कला और संस्कृति को आम पाठकों तक पहुंचाने के लिए शास्त्रीय गायक ,वाद्य और नृत्य में स्थापित कलाकारों से बातचीत की जाए। हर हफ़्ते एक कलाकार के साक्षात्कार को आधा पेज जगह दी जाएगी। योजना अच्छी थी। अख़बार के साथियों को पसंद आयी। फिर यह भी तय हुआ कि पहली बातचीत बनारसी फ़नकार /कलाकार की छपे। बात आयी गयी हो गई।
कुछ दिनो बाद वाराणसी रेलवे स्टेशन जाना हुआ। मैं सीढ़ियाँ चढ़ रहा था कि सामने आराम कुर्सी पर बैठे कोई सीड़ियों से नीचे आ रहा था। अरे, ये तो अपने बिस्मिल्ला खां साहब हैं। सफ़ेद कुरता, सिर पर टोपी, कंधे पर बनारसी गमछा डाले अस्त-व्यस्त बिस्मिल्ला साहब कुर्सी का हाथ पकड़े बैठे थे। उनको चार लोग बहुत हौले-हौले नीचे उतार रहे थे। बग़ल से गुज़रते वक्त शहनाई के जादूगर को मैंने बा-अदब सलाम किया। जवाब में खां साहब ने ज़रा सा हाथ उठा दिया और हल्की मुस्कान उनके पूरे चेहरे पर तैर गई। अख़बार के लिए पहली बातचीत खां साहब से होगी मन में यह तय करते हुए आगे बढ़ गया।
दूसरे दिन ऑफ़िस आया। खां साहब ज़हन में तैर रहे थे। फोन उठाया और बिस्मिल्ला खां को लगा दिया।
मैं राष्ट्रीय सहारा अखबार से बोल रहा हूँ.. खाँ साहब से ज़रा बात करा दें।
मैंने फोन उठाने वाले से कहा।
आधा मिनट बाद आवाज़ आयी… जी, बिस्मिल्ला बोल रहा हूँ।
फ़रमाइए कैसे फ़ोन किया..।
मैंने छूटते ही कहा.. असलाम वालेकुम। हमारी दिली ख्वाहिश है कि ‘शहनाई के बादशाह’ बिस्मिल्ला खां का एक साक्षात्कार लखनऊ के हमारे अख़बार में भी छपे। आपसे बातचीत लिए समय लेने के लिए यह फ़ोन किया है।
छोटा सा पॉज़ लेने के बाद खां साहब बोले— तो जनाब मेरा इंटरव्यू लेना चाहते हैं। यह तो बहुत उम्दा सोच है। लेकिन मियाँ इंटरव्यू तो बहुत हो गवा है। तक़रीबन हर हफ़्ते। अभी आजतक वाले आए रहें। अमेरिका से सीएनएन वालन से बात भई रही। अपने देश के अख़बार क का बताई। बहुत छप चुका… फिर मैं काफ़ी दिनो बाद बाहर से लौटा हूँ। बनारस की आबोहवा में थोड़ी मस्ती लेने दो मियाँ। आगे देखा जाएगा।
जी..जी.. खाँ साहब आपकी परेशानी जायज़ है। मेरा थोड़ा ख़्याल करें। आपके शहर का सवाल है। गुज़ारिश है कि अपने शहर के अख़बार और बाशिंदों के लिए भी थोड़ा समय निकालें। बहुत मेहरबानी होगी।
खाँ साहब की आवाज में कोई मुरव्वत नहीं थी…बोले मियाँ उम्र हो गई है अब शरीर आराम भी माँगता है। थोड़े दिन ठहर कर फोन करिए।
खाँ साहब बहुत उम्मीद के साथ फोन किया है…मैंने कहा।
इस बार लम्बा पॉज़ लिया खाँ साहब ने…. बोले जनाब बनारस के नाम पर आप बहुत दबाव बना रहे हैं। आप थोड़ा समय माँग रहे हैं। ठीक है बनारस के नाम पर आपको पाँच मिनट का वक्त देता हूँ। मंजूर हो तो इस हफ़्ते जुमे के दूसरे दिन सुबह नौ बजे घर आ जाइए। इतना कह खाँ साहब ने फ़ोन रख दिया। पाँच मिनट का वक्त सुन कर मैं सन्नाटे में आ गया। लगा पूरी क़वायद ही बेकार हो गई।
तयशुदा दिन सुबह बिस्मिल्ला खां के घर के लिए स्कूटर से निकल पड़े। पाँच मिनट में क्या होगा यह सोचते- सोचते हड़हासराय से लगी भीखा शाह की गली में खाँ साहब के घर तक कब आ गया पता नहीं चला। वहाँ रिपोर्टर रेखा कुशवाह, फ़ोटोग्राफ़र मंसूर आलम पहले से मौजूद थे। अभी नौ नहीं बजे थे। इस बीच मंसूर भाई को दो-तीन लोग सलाम ठोंक चुके थे। मंसूर ने दरवाज़े पर दस्तक दी। एक जनाब भीतर से बाहर आए। अरे मंसूर भाई आदाब। आपके साथ प्रेस वाले हैं न? उस्ताद साहब बोलिन थे कि आज सुबह प्रेस वाले आवेंगे। भाईजान हम लोगों को बैठक में बैठा चले गए। तीन जोड़ी आँखें शहनाई के बादशाह बिस्मिल्ला खां के बैठक को निहार रही थीं। चुनार के पत्थर की पटिया से बनी छत, दीवारों में बने आले और खुली आलमारियों में खां साहब को मिले अवार्ड रखे थे। चारों दीवारों पर देश के तमाम नामचीन लोगों के साथ या फिर अवार्ड लेते हुए खां साहब की छोटी बड़ी तमाम फ़ोटो सजी हुई थी। फ़र्श पर चुनार मार्का चौकोर पत्थर लगे हुए थे जो बीच- बीच से गल रहे थे। दीवार से सटे रेक्सीन लगे पाइप वाले सोफ़े पर हम लोग बैठे थे। बीच में एक मामूली सा टेबल था। यह शहनाई के बादशाह का मामूली सा बैठका था। खां साहब के बैठक की चौखट तक पहुंचने वाला हर बाहरी आदमी उनकी सादगी का मुरीद हो कर लौटता था।
पाँच मिनट के बाद चारखाने वाली नीली तहमद, सफ़ेद बंडी पहने खां साहब नंगे पाँव बैठक में आहिस्ता से दाखिल हुए और तख़्त पर बैठ गए। खां साहब को इतने क़रीब से देखने का मेरे लिए ये पहला मौक़ा था। मुस्कुराते हुए खां साहब आहिस्ता से बोले- फ़रमाइए। मेरे गरीबखाने तक आने की कैसे तकलीफ़ की। अब बोलने की मेरी बारी थी। अख़बार और साथियों का परिचय देने में दो मिनट लग गए। मेरे पास पाँच में से तीन ही मिनट बचा। मैंने अपनी बात खां साहब के फ़न की तारीफ़ करते हुए शुरू की। जनाब की शहनाई से निकली धुन ने दुनिया को शहनाई का दीवाना बना दिया है।
आपको आधी दुनिया ‘शहनाई का बादशाह’ तो आधी ‘शहनाई का जादूगर’ कहती है। इंशा अल्लाह की इनायत है कि आप जैसी शख्सियत से आज रूबरू होने का मौक़ा मिला है। लखनऊ से निकलने वाले अख़बार के तमाम साथियों और सम्पादक ने जनाब को सलाम भेजा है। इस बीच बात सुनते हुए उन्होंने दीवार पर पीठ टिका ली थी। मैंने उनकी तारीफों के पुल बांधने शुरु किए। ‘अभी दस दिनों पहले दिल्ली जाना हुआ था। नेता, अखबारनवीस, अफ़सरों से मुलाकात हुई। जनाब अटल बिहारी वाजपेयी से भी मिलने का अवसर मिला। उन्होंने यह जानते ही कि मैं बनारस से हूँ सबसे पहले पूछा बिस्मिल्ला खां साहब कैसे हैं? शास्त्रीय संगीत की समझ रखने वाले बीबीसी के पत्रकार भी मिले थे। वे आप पर फ़िल्म बनाना चाहते हैं। वे बनारस आयेंगे फ़िल्म बनाने। आपको इसके लिए रुपये भी देंगे। यह सुनकर खां साहब की आँखों की पुतलियाँ थोड़ी चौड़ी हो गईं। देश-दुनिया में फैली उनकी शोहरत बताते हुए मैं क़सीदे पढ़ रहा था। अपनी तारीफ़ें सुनते-सुनते तख़्त पर बैठे खां साहब तकिए के सहारे आधा लेट चुके थे। मैंने भाँप लिया था कि तारीफ़ के आरोह-अवरोह का खां साहब आनंद ले रहे हैं। यकायक मैंने कहा- गुस्ताखी माफ़ हो। आपने पाँच मिनट दिए थे। अब आधा घंटा होने को है। क्या हुकुम है? हम लोग बैठें या रुख़सत हों? तख़्त पर आधा लेटे खां साहब बैठ गए। बोले- अरे मियाँ कहां जाओगे…? अभी तोहरा काम कहां हुआ…? ग़ज़ब बात कर रहे हो भाई… पूछो.. का पूछोगे.. पूछो.. खां साहब की बात सुन कर मंसूर और रेखा ने राहत महसूस की। मेरा तनाव भी खत्म हुआ।
इस बीच मंसूर ने खां साहब के बेटे से उनकी टोपी और शहनाई मंगवा ली थी। खां साहब का अच्छा मूड देखते हुए मंसूर ने उनके सिर पर टोपी पहनाई। हाथ में शहनाई दी। खां साहब ने हाथ से सिर की टोपी को थोड़ा तिरछा किया और आराम से बैठ गये । रेखा ने नोट्बुक खोल लिया था तो मंसूर के कैमरे का फ़्लैश रह रह कर चमकने लगा था।
कफ़ील आज़म अमरोहवी की नज़्म की तरह – बात निकली तो बहुत दूर तलक़ चलती रही।` खां साहब ने बताया कि शहनाई ख़ानदानी विरासत में मिली थी। पुरखों की थाती को जिगर से लगा कर रखा। आगे पेट भरने का यही ज़रिया बना। लड़कपन से बनारस में हूँ। शहर ने सिर छिपाने को छत दी। बचपन यहीं बीता। शहनाई का रियाज़ करते, रबड़ी-मलाई खाते हुए बनारसी मस्ती में जवानी बीती। गंगा में नहाना, मस्जिद में नमाज़ पढ़ना और बालाजी मंदिर पर शहनाई बजाना। यही कमाई थी। यही रियाज़ था रोज़मर्रा का। यही बनारसी मस्ती थी। ज़िंदगी काफ़ी कुछ फ़क़ीराना थी। बनारस में किया गया रियाज़ और उपर वाले और बालाजी की मेहरबानी से पेट पलता रहा और शहनाई को शोहरत भी हासिल हुयी। सच कहूँ तो मैं बनारस का तहे दिल से एहसानमंद हूँ और क़र्ज़दार भी। यूं कहिए कि बिस्मिल्ला खां की जान बनारस में बसती है। देश से बाहर जाने के सवाल पर बोले भाई पेट की ख़ातिर देश-विदेश जाना पड़ता है। कभी कभी दस दिन बाहर रह जाते हैं। वहाँ ऊब बढ़ती है और बनारस के घाट, गंगाजी ,बालाजी मंदिर, कीचड़ से सनी गलियों में चलती गाय, बकरी और सांड याद आते हैं। सुनो! बड़े-बड़े लोग बोलिन रविशंकर की माफ़िक़ विदेश में बस जाओ चाहे लंदन में या अमेरिका में। मकान, गाड़ी-घोड़ा, खाना-पीना सब मुफ़्त। और बहुत रुपया का लालच भी दिहिन। हम कहा धन-दौलत की चाह नहिनी। (खिलखिला कर) बनारस के आगे दुनिया, रुपैया सब बेकार। दिल्ली से चली गाड़ी के बनारस टेसन पहुँचते ही थके हुए बूढ़े शरीर में ताक़त आ जाती है।
शहनाई को शादी- ब्याह के मजमे से उठा कर बुलंदियों तक पहुंचाने वाले खां साहब सुर की बारीक जानकारी को पहली शर्त मानते हैं फिर रियाज़ तो है ही। वे कहते हैं कि गला अच्छा होना या साज बजाना आना ही बहुत नहीं है। सुर और राग की गहरी जानकारी के बग़ैर संगीत में कोई आगे नहीं बढ़ सकता। आरोह-अवरोह की समझ बहुत बारीक चीज़ है। यह धीरे धीरे समझ आती है। लड़कपन में (सन 1930-32) में दालमंडी की गली के कोठों में रात तक नाच-गाना चलता रहता था। कोठों की तवायफों की ठुमरी, दादरा, टप्पा, कजरी, चैती वग़ैरह नीचे गली में साफ़ सुनाई देता था। कोठे पर जाने वाली सीढ़ियों के नीचे बैठ कभी कभी गाना सुना करता था। कुछ तवायफ़ों की आवाज़ बहुत अच्छी थी। कोठे के नीचे बैठने के जुर्म में दो बार घर पर पिटाई भी हुई। बाद में छुपकर मैं तवायफ़ों का गाना सुनता था। गीत-संगीत से मेरा बचपन से लगाव था। वहाँ से सुर की थोड़ी समझ बनी। खां साहब पूरे मूड में थे। हंसते हुए बोले कोठे और संगीत में चोली-दामन का साथ था। तवायफ़ों के नाच-गाने के लिए उन दिनों दालमंडी बहुत मशहूर थी। जागीरदारों, ज़मींदारों, सेठों और रईसों के यहाँ होने वाली शादियों में ये तवायफ़ें महफ़िल की शान होती थी। बनारस के आसपास के रईस-ज़मींदार बनारस आने पर दो-चार घंटे इन कोठों पर गुज़ारा करते थे। दालमंडी की तीन बाइयों के गायन का ज़िक्र करते हुए उन्होंने उनके आधा दर्जन ठुमरी, कजरी, दादरा के टुकड़े सुनाए। शहनाई के जादूगर के गले से ठुमरी, कजरी, दादरा का टुकड़ा सुनना हम लोग के लिए दुर्लभ संयोग था। बेगम अख्तर के गायन की तारीफ़ करते हुए उनकी दो ग़ज़लों का टुकड़ा सुनाया। हम सब मंत्र मुग्ध हो सुन रहे थे खां साहब गा रहे थे। गाने के बीच उन्होंने अपने बेटे के कान में कुछ कहा। और फिर गाने लगे।
गाना बंद होने के साथ रियाज़ पर बात आ गयी। अक्सर उमर के साथ रियाज़ भी कम हो जाता है इस बात पर खां साहब गम्भीर हो गए। ना ना ये बात सही नहीं मियाँ। नाच- गाना, शहनाई हो या तबला सब रियाज़ माँगते हैं। रियाज़ में कमी आयी राग बेसुरा हो जाएगा। 78 बरस की उमर में सुबह शाम मिलाकर आज भी आठ घंटे पक्का रियाज़ करता हूँ मियाँ। हाँ बाहर जाने पर रियाज़ ज़रूर कम हो जाता है। लेकिन आज के जवान रियाज़ से भागते हैं। घर से बाहर तक यही देख रहा हूँ। बनारस में कहावत है- `नयी जवानी मांझा ढीला`। रियाज़ तो करना पड़िए भाई।
बाहर दुकानें खुल चुकी थीं। 11 बज रहे थे। खां साहब ने पाँच मिनट का समय दिया था। दो घंटे से ज़्यादा हो गए थे। खां साहब ने खूब बातें कीं। दिल खोल कर। वे जितने बाहर से सरल थे उतने ही भीतर से। मैंने मंसूर को चलने का इशारा किया। रेखा ने नोट्बुक बंद कर लिया था। खां साहब को शुक्रिया कहने ही वाला था कि बैठक में दो लोग ट्रे लिए दाखिल हुए। चाय से भरा प्याला साथ में मैरी गोल्ड का बिस्किट। खां साहब बोले दो घंटे हो गए एक कप चाय तो पी लो भाई।। खां साहब की चाय देख कर सुखद आश्चर्य हुआ। दरसल खां साहब के बारे में मशूहर था कि आम तौर पर पर उनके यहां आने वालों की ख़िदमत में चाय- बिस्किट कम ही पेश की जाती थी। हम लोग क़िस्मत वाले थे। खां साहब ने अख़बारनवीसों को इज्ज़त बख्शी। खां साहब को हमारी पूरी टीम ने शुक्रिया अदा किया और घर से बाहर निकल आए। मंसूर और रेखा दफ़्तर की ओर रवाना हो गए। बाहर मैंने एक सिगरेट सुलगा ली थी। खां साहब के गाते हुए चेहरे का अक़्स लिए घर की ओर चला जा रहा था।
Posted Date:
June 11, 2020
11:50 am Tags: शहनाई के शहंशाह, पत्रकार राजीव सिंह, Ustad Bismillah Khan, Bismillah Khan, Shehnai King, Shehai ke shehanshah, उस्ताद बिस्मिल्ला खां, Rajiv Singh, बिस्मिल्ला खां, Banaras ke Bismillah, राजीव सिंह, बनारस, बिस्मिल्ला खां का बनारस, शहनाई वादक खां साहब