हिन्दी सिनेमा के सबसे बड़े शो मैन राजकपूर की जन्मशती पर विशेष
सिनेमा की दुनिया को बेहद करीब से समझने वाले और राजकपूर जैसे शोमैन की कलायात्रा को गहराई से महसूस करने वाले जाने माने पत्रकार और लेखक प्रताप सिंह ने उनकी जन्मशती के मौके पर बेहद संजीदगा के साथ 7 रंग के लिए ये विशेष पेशकश भेजी है… राज साहब की फिल्म यात्रा को समझने के साथ ही उनकी शख्सियत के कई दूसरे देखे अनदेखे पहलुओं पर प्रताप सिंह ने पैनी नज़र डालने की कोशिश की है। जनसत्ता की अपनी सार्थक पत्रकारीय यात्रा के दौरान तमाम शख्सियतों पर उन्होंने बहुत लिखा जो एक दस्तावेज़ है। फिल्मी शख्सियतों पर उनकी कई अहम् किताबें भी आप पढ़ सकते हैं। राज कपूर के गुज़रने के बाद जनसत्ता ने जो खास पेज निकाला उसमें प्रताप सिंह ने महत्वपूर्ण लेख लिखे। अब इतने सालों बाद राज साहब को याद करते हुए पेश है उनका ये लंबा लेख, जिसमें राज साहब की ज़िंदगी औऱ सिनेमा यात्रा के कई शेड्स नज़र आएंगे…
राज कपूर (1924-2024)
“मैं तो अनपढ़ हूँ , इसलिए मैं फुटपाथ के आदमी के साथ अपने को एकाकार कर सकता हूँ !”
□ राजकपूर ने कभी सिद्धार्थ कॉक के साथ बातचीत में यही खुदबयानी की थी। जिनका यह
जन्मशती वर्ष है। हिन्दुस्तानी-भोले मन के उसी सिनेमाई बेताज.. बादशाह की यह सर्वोत्तम दलील
उनके कितने ही फ्लैशबैक के दरीचों में झांक लेने का पुरनूर अवसर नुमाया कर रही है ,जिनको यह
दुनिया हमारे सिनेमा का सबसे बड़ा 'शोमैन' कहती आई है! आज फिर उसी अनूठे-अनोखे तमन्नाई –
तन्हा और दिल-अफ़गार (क्षतहृदय प्रेमी) की फिल्मों की सपनीली-महफ़िल दुनियाभर में सज रही है।
यहाँ, केरल से असम तक और उड़ीसा से पंजाब तक करीब चालीस शहरों के 135 नये पुराने
सिनेमाघरों में… [PVR,INOX,CINEPOLIS ! सहित] दिखाई जा रही उनकी चुनिंदा सिनेकृतियों में से आग,
बरसात, आवारा, बूट पॅालिश, श्री 420, जागते रहो, जिस देश मैं गंगा बहती है और मेरा नाम जोकर का
इस मौके पर चयन उनके हजारों चहेतों के लिए एक अनुपम उपहार है । जो राजकपूर के अवदान से
उन्हें जोड़े रखेगा। यही अमूमन उनकी कालजयी सिने-कृतियाँ हैँ। इसके बाद रंगीन-सिनेमा के बाजार
में भी सुप्रीम की हैसियत से 1964 से 1985 के बीच संगम / मेरा नाम जोकर / बॅाबी / सत्यम
शिवम सुंदरम / प्रेमरोग और राम तेरी गंगा मैली का निर्माण सबसे ऊपर अपना केतन फहराए रखने
के मकसद से ही किया गया था ! पर इस खेल में ‘बॅाबी’ की अपार सफलता और बाकी की विफलता,
दोनों का स्वाद उनकी जिह्वा पर था। ग्लैमर की चासनी में लिपटी उद्देश्यपरक फिल्में भी उत्तेजक-
लीलाओं और देहवल्लि – नायिकाओं के यौवन के अनियंत्रिक – ज़्वार के कारण ‘इरॉटीक’-तस्वीरों की
भी याद दिला रही थीं। R.K. बैनर की यह नयी पहचान, राजकपूर के श्याम-श्वेत युग की क्लासिकी
के पासंग में अमूल्य या अनमोल होने का भ्रम ही पैदा कर सकती थी। नए युग में फिल्मकार के रूप
में उनके शिखर – कलात्मक – समर्पण की छाप फ़.कत “मेरा नाम जोकर” और “प्रेमरोग” में अपनी
सीमाओं में आज भी महसूस की जा सकती है ! ‘मेरा नाम जोकर’ {1970} ही उनकी अंतिम उपलब्धि
है ! अंतिम फिल्म ‘हिना {1991} भी नहीं ! बाकी तो कमाई का जरिया ज्यादा हैँ। निर्देशन में सर्वोतम
पैठ के साथ कलात्मकता और व्यावसायिकता का अव्वल तालमेल उनके यहाँ भरपूर है। अभिनेयता में
भी अतिकान्त और सहज-सुलभ शिखर उन्हें हासिल है। ‘जागते रहो’ और ‘तीसरी कसम’ वही
प्रमाणित करने के लिए काफी हैँ ! इस मस्तमौला आशिक की दीवानगी से भरपूर नायक के दीद
(दर्शन) परदे पर नग़्मगी के साथ उसकी दिलावेज़ी (कलाओं के सौन्दर्य से लबालब) उस दुनिया में
हमें ले जाते हैँ, जहाँ फ़क़त उसकी पूर्वदीप्तियाँ पूरी-पूरी रौशन हैं ! उस पर हम आज भी निसार हैं
और रहेंगे ! आइये …उस जादुई सफ़र पर चलते हैं जहां एकसाथ हँसाने और रुलाने वाला दिलतफ़्ता एक अवश
.. नौहागर छिपा बैठा., एकान्त में हम सबके तसव्वुर और चाहतों का इंतज़ार कर रहा होगा.!! “मेरा नाम
जोकर”.. कहता हुआ..!!
मेरा नाम जोकर के सर्कस के मध्य रंगमंचीय शिखर-पलों में रुआंसा-सा वह मसखरा प्रौढ़ किरदार
बेसंभली में अपने टूटे दिल की किरचें वैसे ही संभालता है जैसे अपने हर महानाटकीय-क्षण में..कामदी
का करुण- उस्ताद चार्ली चैप्लिन (सर चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन) अपनी कलाओं में..अलहदा निराली
भंगिमाओं की संभाल के साथ अपनी फिल्मों के भिन्न परिवेशों में बेहतरीन आजमा चुका है। राजकपूर
का यह अन्यतम प्रौढ़ – किरदार भी उसी का मुँहबोला-सा महसूस होता है, पर वह उसका हमसाया
नहीं। गो, राजकपूर अपनी कुव्वत से अपने जोकर के अहम किरदार में खुद उसी महानतम फिल्मकार
चार्ली के भीतर से अन्यत: जैसे बाहर आकर खड़ा हो गया है। जो अपनी कई फिल्मों का संगीतकार,
पटकथाकार और संपादक भी रह चुका है। यहां राजकपूर की माया और काया का खुद उनकी प्रतिभा
से नया रूपांतरण हुआ है । जिसमें वह किरदार की ज़िन्दगानी के बेनूर हो चले लमहों अपने ही
करुण-विलाप से छिपता-छिपाता, दर्दीली सी प्रतिछवि में प्रस्तुत महान जोकर है गोया!
□ राज का यह मोतबर और मोजिज़ बयाँ {उत्कर्ष्ट वक्ता} – पात्र अतीत की नायकीय मौजों के
तरफ़दार प्रेमपूर्ण हालातों से गुजरे किरदारों की जुम्बिश लेकर बुना गया है। जहां, पीछे मुड़कर कर
हसीन लम्हों को देखने की बैला जा चुकी है। अतीत की मोहिनी छवियों की सादगी भरी छलना ,स्त्री
सौन्दर्य की उपासना, अपनी माहेकामील- नायिकाओं की रंगीन परछाइयां इन सबकी आईनागीरी से
वह थक चुका है। कभी दमयन्ती, हेमावती, मधुबाला, नरगिस, पदमिनी, वैजयंती माला, नूतन जैसी
हिरोइनों की कोमलता, मृदुलता की आरजुओं और देहयष्टि में परदे पर खोया रहा उसका छल जाता
रहा मासूम नायक अब अकेलेपन में अपना हासिया और बे-खुद [होना] खोज रहा है। बस ! इतना ही
उस नायक का सफ़रनामा तो नहीं ! वहां और भी आसमान हैं जहां ज़िन्दगी के साथ खेले गये
परिहास की ओट में प्रेम की चित्रलिपियां पढ़ना और राज के हुनर, अंजाम और सपनों का सिमटना
बाकी रहा होगा।
□ अलबत्ता, अकेली ऊँचाइयों की मौन संगत में हद तक ग़मगीन हो चले इस शोमैन को समूचा हम
[अकेले] राजकपूर की जद में कम ही जानते हैं। जो मेहबूब की अंदाज़ फिल्म के बनने के दौरान ही
नायिका नरगिस को लेकर 1948 में आग बना लेता है। सबको अकस्मात गीत-संगीत की बारीकियों,
संवाद-लेखन की अबूझ कलाओं तथा मखमली दृश्यों से सेट तक तैयार करने की दिल में उतरने वाली
अपनी प्रतिभा से भी परिचित कराता हुआ सबको अपना मुरीद बना लेता है। उसका यह जज़्बा
आखिर तक कायम है। वह उदग्र नायक और शोमैन तो बाद में बना है । यहाँ तक पहुँचने का संघर्ष
उसका कड़ा रहा होगा । एक बाल भूमिका से जिसने दस साल की उम्र में ‘इंकलाब’ किया हो! 1935
में बनी ‘इंकलाब’ ही उसकी पहली फिल्म थी। उसके 10 साल बाद “नीलकमल” में मुख्य भूमिका में
अवतरित होते देखा गया। पर निर्देशन का मँजाव और मौसीकी के प्रति गहरा रुझान आगे चलकर
उसे एक मुकम्मल फिल्मकार में बदल देते हैँ।
□ साज और संगीत, अल्फाज और मुखड़े की अहमीयत को औरों से कहीं बेहतर समझते हुए वही
हुनरमंद अपनी फिल्म श्री 420 में लोक-अनुभवी एक सरताज गीतकार को भी अपनी और से एक
मुखड़े की पंक्ति सौंप देता है ~ रमैया वस्ता वैया / मैंने दिल तुझको दिया ..” इसे शैलेन्द्र और गहरे
उतारते हैं और इस तरह दोनों की एक समवेत कोशिश से नये स्वर और धुनों से निर्मित लय का
इंद्रधनुष नाजुक लहरों पर लहराने और गूँजने लगता है !! वही शैलेन्द्र भविष्य में उसे हिरामन की
कसीली-कस्बाई-दिल की मनोहारी – भूमिका सौंप देता है। बासु भट्टाचार्य के ना-नुकूर के बावजूद उन्हीं
के निर्देशन को कबूल करते हुए वह परदे पर नया इतिहास रचता नजर आता है। वही हिरामन तीसरी
कसम के प्रसंग दर प्रसंग तमाम उलाहने सहता..जी-जान लगाकर भी कर्ज में डूबे उसी गीतकार-
निर्माता के लेनदारों से भी अपने वलय में निपटने का प्रण लेता है। तदन्तर, उसकी संवेदनहीनता का
ही राग अलापते हैं बाकी हमदर्द! वही कलावन्त पार्श्व गायक मुकेश माथुर को अपनी आत्मा का स्वर
मानते हुए भी खास मौकों पर..अलग से गीत की गहराई और आरोह-अवरोह महसूस कराने की खातिर
मन्ना डे की बरी (आजाद), बदमस्त (मदोन्मत) लयकारी और सुरीली आंतरिक गूँज का भी उतना ही
इस्तकबाल करता है। राजकपूर के कद का ..हमारे उस रोमानी-जिस्मानी-दुनियावी चश्मेबीना (तीक्ष्ण
बुद्धि) का कोई वैसा ही दूसरा चश्मोचिराग़ हम कहां से लाएं…!? ऐसा अदाशनास (जो आसानी से बात
समझ समझा सके और पूरा करे), अनलबहर जो खुद में समन्दर हो)..दूसरा राजकपूर हम कहां से
लायें…?
□ जो खुद किए का श्रेय भी..ऐन किसी अहम मौके पर दूसरे को अर्पित कर दे !
जो दादा फाल्के पुरस्कार उस पल में भी अपनी टीम के नाम दर्ज करना न भूले! ऐसे राजकपूर की फिल्में और
ज़िन्दगी जैसे सबकी ज़िन्दगी के ही जज़्बे का कोई टुकड़ा या मुकम्मिल मौंताज हों ! किंचित, वहां भी
केवल एक मुजस्सम (साकार,साक्षात, मूर्तिमंत) शोमैन को तरजीह न देकर अक्सर एक एक्टर को भी
तरजीह देते रहे हैं, जो गंवईं-पैरहन / भदेसपन में भी निखरा-निखरा है!!
□ उसका विराट सम्मोहन अलग अलग हल्कों में मानो सबकी यादावरी में..मेमोरी में एक सुनहला
जाल बिछाए हुए है। पहली नजर में ही उसके फ़िक्रोफ़न के फ़ाज़िल (विद्वान) को लगता है यह
शख्स जनमानस के भोलेपन, भदेसपन और एतबारी-सोच के फन का सबसे बड़ा पारखी साबित होगा।
पहले-पहल उसने आवारा/आशिक/अनाड़ी/जान-पहचान/सरगम/बाबरे नैन में अपनी शहराती-सी युवा –
छवियों को नयी रंगत देकर दोहराने खुद को बचाया है। वहां, राजकपूर का नाटकीय-रोमांस अपनी
नायिकाओं के उन्मत्त प्रेम की लीलाओं में भी बोदेपन, झिझक और शर्माहट के बावजूद उससे कहीं
ज्यादा रोमांटिक नायकों [दिलीप ~देवानंद] के युग में अपनी अलग पहचान कायम रखने में सफल है।
उनका प्रेमिल रूप रूपहला कम नजर आता है, संजीदगी और कोमलता से भरा ज्यादा ! कुछ-कुछ
छायावादी कवियों-सा ! ! उनके पास और भी युक्तियाँ हैँ । दस्यु-समस्या के नेहरु-युगीन उपचार के
दौरान राजकपूर एक डाकू की बेटी से प्रेम और समाजवाद के प्रचार-प्रसार की गुंजाइश तक निकाल
लेते हैं। इससे कहीं पहले तक आवारा / आग / आह तो जिस्म और रूह को प्रेमिल- मन की ऐसी
प्रयोगशाला से गुजारती फिल्में रहीं हैं, जहां ऐसे सलौने मुहताज ((इच्छुक या गरीब )टिकाऊ नायक की
उसांसे, सौ फीसदी जज़्बाती उन्मेष तथा ग्लैमर की चाँदनी और चासनी पर ही टिकी रहकर उफनती
हैं। फिर भी वह…ताज्जुब है कि वह छलिया औरों से अलग और स्वयंसिद्ध मान लिया गया है।
जिस देश में गंगा बहती है जैसी मकसद और बुनियादी सोच से निबद्ध फिल्म में भी रसिकता
का अवसर और नायिका की वासंती – उन्मुक्तता में पल-पल छलकती रासलीलाओं के प्रदर्शन का
अवकाश वह कहां से ले आया है? परन्तु कहा यही गया कि एक दस्यु सरदार की जवान बेटी की
जिस्मानी चाहतों के इजहार के लिए पद् मनी जैसी उत्तप्त दैहिक संरचनाओं वाली नायिका परदे पर
ऐसे ही दिखाना और उसे संभाले रखना जरूरी था। ऐसी उन्मादित नायिका तो आवारा- युग में
बरसात की निम्मी भी नहीं थी। आवारा ने यौन- अठखेलियों के मनचाहे संकेत तो दे ही दिए थे। यह
नायक नरगिसी – जादू और आवारा – चाहतों को फिल्माने के मौके कम गवाता है। इस मायने में यह
नायक आस्वादन के दर्शकीय-भावबोध को लुभाने में कहीं संयमशील नहीं ! उसकी कुलजमा छवि
सुधारवादी नायक की प्रतिष्ठित की जाती रही। “बरसात” के ड्रीम-सीन तो “आवारा” के लीला – दृश्यों
पर भी हावी रहे।राजकपूर की ऐसी फिल्मों का देसी-सोप-आपेरा श्रृंगारिक- अनुभूतियों में मांसलता के –
चित्रों को भावक की चेतना में , चित्त में उतारता ही है। उनकी सुनियोजित उन्मत्त पटकथाएं उस दौर
के सिनेमा के यौन -ज्वार से प्रस्फुटित आद्य बिम्ब रचती ही हैं। जबकि उस पीरियड की सामाजिक,
राजनीतिक संरचना में विभाजन की फांस अहम और चुभी हुई थी। शायद भुक्तभोगी सरहदी और नए
उपलब्ध दर्शकों की उस माहौल की पीड़ा भुलाने के लिए एक आलिम शोमैन ने परदे पर उन्मुक्त प्रेम
की लीलाएं रचीं। युवा धड़कनों को सहलाते संवाद, गीत-निर्झरी और कस्तूरी सुगन्ध जैसे असर वाली
आबेरबाँ धुनों की खोज की। इसके लिए मौसीक़ी में मस्रूफ़ शंकर जयकिशन को भी प्राथमिकता दी।
उनकी धुनें ऐसी फिल्मों में बेशक नगीनों की सूरत जड़ी हैं। राजकपूर हिन्दी सिनेमा को मौसीकी की
सूरत [जरिये] मांसल- सौन्दर्य का उपहार देने के मामले में ऐसी ही संगीतकार जोड़ियों के सबसे
सफल विशेषज्ञ हैं। आवेग के चंद गीतों को ही चुनें तो ओ मैंने प्यार किया और प्यार हुआ,
इकरार हुआ या जिया बेकरार है… हसरत-शैलेन्द्र की दिलकश नक्काशी में तर करते -कराते लता की
गुलाबी आवाज़ से युवा -दिलों को आज भी महकाते ही हैं। इस मामले में घर आया मेरा परदेसी का
बेजोड़ पद्यांश ही नहीं, पूरा गीत ही अपनी गिरफ्त में हमें बांधे रखता है। ऐसी मौसीक़ी से बुने मंजर
के संग रमे रहे नायक और उत्तरकाल में उसी “शोमैन” की लीलाओं की कसक की किरचें आखिर उसी
के दिल को छलनी किए हुए हैं! यही सिनेमा से उसकी आशिकी का सबब और सबक है ! पर सादगी
की भी तमाम तरकीबों से महफूज और हिन्दुस्तानीयत के आदर्शों के साथ ही माजरा-ए-दिल खोलकर
रखने वाले सिनेमा के महानागरिक राजकपूर ..- _* _मेरा जूता है जापानी..फिर भी दिल है
हिन्दुस्तानी..’’_की लीक पर पहुंचाने वाली सर्वोच्च लोकप्रियता तथा उससे मिली अंतर्राष्ट्रीय पहचान
और मार्किट के भी मसीहा हैं। तो भी, रोमांस और सघन – मांसलता “बरसात”, “बाबी” “सत्यम शिवम
सुंदरम” समेत राजकपूर की तमाम फिल्मों की धड़कनों में बसा हुआ वो शहदीला शाश्वत तत्व है,
जिसके बिना वो रह ही नहीं सकते थे। पूछा जाना चाहिए ..आवारा की रीटा / आग की निर्मला
(निम्मी) / बरसात की रेशमा-नीला / आह की नीलू / श्री 420 की विद्या / सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की
रूपा तथा “आवारा” के ही अतिरिक्त थीम की क्षणिक- स्मृतियाँ सँजोये “मेरा नाम जोकर” की मेरी,
मरीना, मीना कौन हैं? इसके मिस कितनी ही नर्गिसों की वही अनुवादित – कसक परोसती मूरतें हम
तब से अब तक देखते आ रहे हैं। तिस पर भी बेदाग और विशुद्ध राजकपूरीय-सम्मोहन उनके
सिनेमायी अपार योगदान को बरकरार रखे हुए है तो इसके पीछे उनकी धमक के अलावा उनकी कहीं-
कहीं आजमाई गई साधु-संतई छवि और अनुशासन-प्रियता की युक्तियां [भी कारगर] और सचमुच
लोकरूचि की तरफदार दिखलाई पड़ती हैं। ऐसी भी उनकी छवि है। अपनी फिल्मों को ज़िन्दगी का
सबसे बड़ा जुआ कहने वाले वही राजकपूर, कोर्टिजोन [ मिश्रित विटामिन ] का नशा करने वाले
राजकपूर त्रिलोक कपूर के सामने सिगरेट पीते थे न शराब ! वे उनकी बहुत इज्जत करते थे। जब
फिल्मों का सम्पादन कर रहे होते उनदिनों वह शराबनोशी से दूर रहते और उसे छूते भी नहीं थे।
फुटपाथ का आदमी
माना, सिनेमा का सबसे बड़ा शोमैन बेशक, उत्तरकाल में एक साम्राज्य खड़ा कर, ठाठ का निराला
जीवन जीने या विटोलिन जैसे विटामिन को आजमाने से कहीं पहले के समय में अचानक धनी हुए
समाजों की शंकित दशा-दिशाओं और अमीरी-गरीबी के जीवन की भी वांछित परख कर चुका है। उसे
उसने सिनेमा के परदे पर जीनियस लोगों के साथ नेक – पटकथाओं और सच- बोलते- संवादों की
सूरत आजमाया है। उनमें एक जीनियस अभिनेता मोतीलाल हैँ जो उनकी तीन फिल्मों में तो कमाल
के दिखते हैँ। धुन, जागते रहो, अनाड़ी में उनकी [छोटी-बड़ी] कद्दावर भूमिकाएं नायक को भी नयी
टेक देने के लिए काफी हैँ। नायक फिल्म अनाड़ी में परदे पर कई बहुमूल्य सिनेरियों में गरीब-गुरबे का
प्रतिनिधि, बेरोजगार और फुटपाथ से उठा आदमी प्रस्तुत किया गया है! धुन, जागते रहो और अनाड़ी
के उसके किरदार जुदा – जुदा हो सकते हैँ पर उनका बेस वही है । “अनाड़ी” में ‘शान~महल’ होटल
के मालिक के रोल में मोतीलाल से मुखातिब [एक बेरोजगार युवा की भूमिका में उतरे] राजकपूर सच्चे
-भोले मानस का ही प्रतिरूप प्रतीक हैं। जो पैसों से भरा बटुआ लौटाने वहां आया है। अमीरी के ठाठ
से लबालब उस माहौल को चीर कर वही बटुए के उसी मालिक तक पहुँच गया है। बटुए के मालिक
मोतीलाल से उसका यह संवाद काबिले-गौर है — “आपका यह बटुआ गिर गया था। मैंने आपको
बहुत सी आवाजें दीं, पर आपने सुना नहीं! शुक्र है आप मिल गए।” तिस पर मोतीलाल का जवाबी
संवाद उस बेरोजगार युवक को ईमानदारी की एवज में अचानक मिली नौकरी और वहाँ मौजूद धनी-
युवतियों तथा अमीरजादों की असलीयत का सही खाका भी पेश कर देता है। मुख्तसर सा वह संवाद
कटाक्ष के अंदाज में बयां है – “क्या तुम इसे मुझे वापस करने आए हो.. ?.. तब तो तुम बिल्कुल
अनाड़ी हो ! यहाँ ये जवाहरात से लदी औरतें और भड़कीले कहकहे लगाने वाले ये मर्द सब कौन हैँ ..
ये वो लोग हैँ जिन्हें सड़कों पर बटुए मिलते हैँ तो लौटाते नहीं !! ” बरबस इस कुलीनता की पोल
खोलती “अनाड़ी” ने कुछ क्षणों के लिए “जागते रहो” और “तीसरी कसम” की नायकीय-लिबासी
सादगी के साथ पात्र की आत्मा में प्रवेश करने के राजकपूरीय-मैथड से भी परिचय कराया है। “जागते
रहो” [निर्देशक-शंभू मित्रा और अमित मित्रा] का नायक भी रोजी-रोटी की तलाश में महानगर आया
गरीब मेहनतकश नवयुवक है। बढ़ी दाढ़ी, घुटनों धोती और फटे कोट में उसकी उपस्थिति घटना-केंद्र
की उसे विस्मित करती दुनिया के लिए कोई मायने नहीं रखती। वहाँ वह अनजान नागवार है, जब
तक कि वह आधी रात के उस माहौल की चपेट में नहीं आ जाता। नल से टपकते पानी की चंद बूंदों
से प्यास बुझाने के प्रयास में जान बचाने के फेर में चोर मान लिया गया है! लेकिन जान बचाने की
इस दौड़ में उसका सामना उस रात में समाज के असली और सफेदपोश चोरों से होता है। नैतिक और
खोखले मूल्यों का खुलासा होता है। एक फ़्लैट से दूसरे में भागते हुए पता चलता है.. हर घर में चोरों
का निवास है। चौंकाते घटनाक्रम और उनके बीच उसके भटकाव का यह अंतहीन सिलसिला भोर में
उसे ले आता है। “किरण परी गगरी छलकाए..” शैलेन्द्र के प्रभाती – गीत की इस पंक्ति के दौरान
उसकी प्यास एक अनजान स्नेहिल स्त्री की पीतल की कलसी के जल से बुझती है। वह स्त्री राजकपूर
की फिल्मों की नायिका नर्गिस के अलावा कौन हो सकता है !! ‘जागते रहो’ में भी राजकपूर की
कातर और विवश आँखे ही बोलती हैं। यहाँ भी राजकपूर की अभिनेयता ने किसानी-पात्र को असमंजस
स्थितियों में दिखाकर आकाश छुआ है। ‘जागते रहो’ और ‘अनाड़ी’ की कुलीनता से अलग ‘आवारा’ की
कुलीनता परिभाषित हुई है।
‘आवारा’ में कुलीनता के फार्मूले में कैद खासमखास की जन -धारणा को ध्वस्त करते हुए उसकी
यही पुख्ता व्याख्या सर्वोपरि है कि– अच्छा आदमी बनाया नहीं जा सकता, वह पैदा होता है। इससे
यह कयास भी टूटा कि..हमारे *अच्छे या बुरे* सिद्ध होने का संबंध हमारे जन्म से है!..जैसे कि एक
अपराधी का बेटा अपराधी । मगर आवारा के इस दर्शन के बाद भी ..कथानक को नौ मिनट के एक
खास स्वप्न-दृश्य की चाश्नी से भी ..तर किया जाना आवारा के अनमोल कयास को ग्लेमर
में लाजिमी तौर पर डुबोना लाजिमी रहा होगा!! बाद में परदे पर सपने भी रंगीन हुए तो.’संगम’ में भी
उसने वैजयंती माला की देहयष्टि के जादू को जल में उतार कर सिद्ध किया। अंत में ‘सत्यम्
शिवम् सुन्दरम्’ और राम तेरी गंगा मैली’ की रूपवतियों को भी परखा! गो , पहल उसने भी
आम आदमी से की थी..जो ‘जागते रहो’ से ‘तीसरी कसम’ तक सच्चे मन से उसकी आत्मा का दामन
थामे रहा। “जागते रहो” से पहले “नीचा नगर” का हमारे सिनेमा पर कुछ तो असर रहा होगा ।
“दो बीघा जमीन” का दृष्टांत भी बेहद प्रयोगशील और प्रभावी था। राजकपूर ने उसके समानांतर ,
दूसरा रास्ता पकड़ा और समाजवादी सपने की टेक भी ली। उस दौर में *बूट पालिश*तथा *जिस देश
में गंगा बहती है* के संदेश नये सूत्र के रूप में एक आदर्श बने और जन -समाज के बीच स्वीकार भी
किए गए । पर राजकपूर मूलत: पिछले सौ साल के सिनेमा की बदलती धुरी के उसी खेमे से नहीं
बंधे रहते जो कलावादी ज्यादा कहलाया। अंतत: कमर्शियल_ एंगल को सदैव प्राथमिकता देता और
कामुकता की छाया में पगा सिनेमा भी उनकी जी-जान क्यों बना रहा!! “फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी
की धमक या “मेरा नाम जोकर”- का सर्वोच्च शिलालेख लिखने के बाद भी उसे “बाबी” की शरण में
जाकर ही …जोकर की बायोपिक से खोई प्रतिष्ठा और घाटे की भरपाई का फार्मूला ईजाद करना पड़ा
!! वही नर्गिसी _ जादू शायद उसका पीछा करता रहा जो कभी-कभार उनकी घर-गृहस्थी को लपेट में
ले सकता था। नर्गिस उनकी 15 फिल्मों की दिलदार थी। पर 1955 में यह जोड़ी बिखर गई थी।
नरगिस ने शादीशुदा राज से प्यार का इकरार किया था। “बरसात” से राजकपूर की फिल्मों का
ट्रेडमार्क बनने वाली इस जूलियट को आखिर अपने “रोमियो” से विलग होना भी सबने देखा।
राजकपूर की पत्नी कृष्णा जी की ही आखिरकार जीत हुई! हां, इसका असर राजकपूर के उत्तर-रंग की
सिने-कलाओं में उसी जादू के रूप में बदस्तूर जारी रहा।
□ राजकपूर ऐसे परिवार से आए थे जहां “आवारा” में जज की भूमिका करने वाले लाला बिशेशरनाथ और
उनके बाद खुद राज के पिता पृथ्वीराज कपूर का कड़ा अनुशासन और रौब .गालिब था। खुद पृथ्वीराज जी का
जीवन का संघर्ष उन्हें कलकत्ता ले आया था। वहां कालीघाट (हजरा रोड) का जीवन जीवन्त जरूर था पर सरल
नहीं। वहां बाईसिकल से थियेटर की दुनिया में प्रवेश जोखिम भरा था। उन्होंने उसे ही आदर्श बनाया।उनका खुद
‘पृथ्वी थियेटर’ की कथा का उन्नायक बनना तो बाद की बात है, जो उनके नाम का सजीव नाट्य मदरसा
और मक्का आज भी है। लेकिन राज और शम्मी कपूर की रास उन्होंने आरंभ में कभी ढीली नहीं होने
दी। पृथ्वीराज कपूर ने केदार शर्मा जैसे कड़िया उस्ताद के सुपुर्द राज जी को किया था। जहां
*नीलकमल* से राज की नायक छवि का आगाज माना जाता है। केदार शर्मा की शिक्षा~~दीक्षा और
रहनुमाई में तपे और कुशल निर्देशक बने और निर्माण के हर पक्ष के गहरे जानकार राज जी के इस
शताब्दी वर्ष में..उनके ,उन दो करुण -दृश्यमान पलों पर भी निगाह ठहरती है…जब अपने समूचे
सिनेमा के अवदान के लिए उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार ‘दादा साहेब फाल्के’ से सम्मानित किया जा रहा
था। यह सम्मान पाने (लेने) सबके मना करने के बावजूद वे राजधानी आए। उन्हें दमा था। मंच के
करीब पहुंचे भी। बेहाल थे ही ! सिरीफोर्ट सभागार में 2 मई 1988 को उनकी हालत इतनी बिगड़ी कि
तत्कालिन राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमण उसी मंच से उतरकर नीचे राजकपूर के पास गये और वही
उन्होंने इस महान कलाकार को इस सर्वोच्च अवार्ड से सम्मानित किया।
ठीक इसके बाद का दृश्य भी उतना ही प्रभावी है। जब नाजुक हालत में उनकी मुलाकात उस दौर के बड़े कवि-
लोकरूचि के गीतकार डॉ. हरिवंशराय बच्चन से अस्पताल में हुई। अभिनेता अमिताभ के पिता डॉ. बच्चन जी
स्वयं भी अस्वस्थ हालत में एम्स के 511 नंबर कमरे में डाक्टरों की देखरेख में थे। उनके ही इकरार पर
जया जी अपने ससुर के साथ राजकपूर के कक्ष में जा पहुंची थी, जबकि हरिवंशराय बच्चन खुद
नाजुक हालत में थे।
□ यह शताब्दी वर्ष उनके अलावा तमिल सिनेमा की हस्ती ए. नागेश्वर राव, मौसीक़ी के आसमान मो.रफ़ी और
तलत महमूद और मदनमोहन के अलावा सगीना, सगीना महतो, एक डाक्टर की मौत और अंतर्धान व
[पहली] काबुलीवाला से जाने गये तपन सिन्हा का भी शताब्दी वर्ष है। वैसे विश्व सिनेमा मार्लेन बार्डो
को भी उनकी इसी जन्मशती पर यादगार बनाने की पहल कर रहा है । निश्चय ही और भी विभूतियों
को भी इस अवसर पर स्मरण करना एक गरिमापूर्ण परम्परा को भी रेखांकित करना है । चलचित्र-
जगत की बीती दुनिया के इन जगमग सितारों की उजली कारीगरी की विरासत को अगली पीढ़ियों को
सौंपने जैसा भी है।
नये होनहारों के दौर में .. नास्टेल्जिया
इन सौ सालों में राजकपूर के युग के अवदान के साथ हिन्दुस्तानी सिनेमा ने *जागते रहो* और
*तीसरी कसम* से आगे का जरखेज़ ,ईमानदार और बेहतर..किरदारों से जगमगाया नया सिनेमा भी
रचा। वहां बेशक,कस्बाई नजर आए राजकपूर का शहर में एक रात रूका ग्रामीण [पात्र] नहीं था जो
एक दिन रात्रे का रूपांतर होते हुए भी जागते रहो में ख्वाजा अहमद अब्बास के रचाव से
उसी मौलिक पात्र में बदल कर शहरी समाज की लीलाओं से हतप्रभ था। मुझे उस पात्र की कलाकारी
पर निसार होने पर और राजकपूर की सहज-सरल विलक्षण अदायगी के जादू पर जमाँ कुंजाही का यह
शेर बेहद माकूल लगता है- – -“अजीब लोग हैं नेकी से दूर रहते हैं / ये कैसा शहर है जिसमें बदी से
रौनक है!
**तीसरी कसम** का हिरामन भी अब कोई दूसरा जन्मना संभव नहीं था। जो हीराबाई से अचानक
बंधी अनजान और नाजुक रिश्ते की डोर से ही बिंध गया था, उसकी हूक का इजहार माटी गंध से
महकी बतकही और अनमोल गीतों ने भी महसूस कराया था। उस हिरामन की पीर ही परदे का गहना
थी। पर उसी..रंजीदा दिल की मन पुकार/तड़प को महसूस कराने वाले अनमोल राजकपूर की ऐसी ही
फिल्मों का जल्वा देखती बड़ी हुई जमातों और मुरीदों के सामने पहले से ज्यादा तवाज़ुन (संतुलित),
खरे-खांटी किरदारों को संभाले रखने वाले नये सिनेमा का जलजला मौजूद था। जो पहले के असल
चलचित्र को मात देने वाला था। यहां बानगी ही काफी होगी। इस नये और नयी जमीन के पूरबिया
सिनेमा की मांद में छिपे बैठे मटमैले सितारों का अवतरण श्याम बेनेगल (( आरोहण ))गोबिन्द
निहलाणी((आक्रोश)), सत्यजित राय ((सद् गति)), गौतम घोष ((पार)), सागर सरहदी ((बाजार)) और
((मिर्च-मसाला)) में हो चुका तो श्याम-श्वेत उस स्वर्ण युग की वापसी या लहक की यादें ही शेष
अपितु, (गो)अविस्मरणीय अब भी थीं। पर हमारे सिनेमा अब यह एक और दुर्गम तथा दुर्धर्ष-यात्रा शुरू
हो चुकी थी। नये फ़लक पर जिसे आरोहण के हरिमंडल और सद्गति के दुखी चमार
जितना ही सशक्त पार के नौरंगिया और दामुल के संजीवना और रजुली के अलावा
बाजार की जोड़ी साजिद -शबनम तथा इन सबसे भी कहीं पहले ,दस्तक** के हामिद- सलमा
की मार्फत क्रमश: ओमपुरी,नसीर, अन्नूकपूर और शहराती -दमन में पिसे जोड़े के रूप में फारुक शेख-
सुप्रिया पाठक और संजीव कुमार-रेहाना ने ज़िन्दगी के भिन्न पड़ावों पर जिंदा कर दिखाया था। अरसा
दर अरसा..यही नुमाया होता जलजला अभिनय के चुनिंदा मदरसों में जारी है। जिसका एक सिरा
राजकपूर के मनपसन्द लेखक-दिग्दर्शक ख्वाज़ा अहमद अब्बास के दृष्टि-संसार से शहर और सपना
की मुख़्तलिफ़ सच्चाई के रास्ते भी कभी दिखाई पड़ा था। राजकपूर इनसे आगे का वो मुआशरा देख
नही पाये जो अब फिर से ग्लैमर की अलहदा तड़क-भड़क, कामुकता के साथ चित्रपट पर आसीन हो
चुका है। फिर भी सच्चा सिनेमा उसे कभी -कभार मात दे ही देता है। जैसा राजकपूर के युग में भी
अपनी वैश्विक चमक उजागर करता था। पर अब पैमाने बदल गया हैं और उनके परम पारखी भी!
राजकपूर केंद्रीत सिनेमा और समाज नवउदारवाद की शर्तों पर साथ ही घोर व्यवसायिकता की धुरी
पर टिका था। जिसकी खामियां और खूबियां अलबत्ता, उस मजीद-महान कलाकार की शुभ्र -कलाओं
और ज़िन्दगी का गुम्फित दर्शन बन गई थीं। उसकी व्याख्या का निचोड़ आवारा के बाद मेरा
नाम जोकर की सूरत भी रोमांस और अफसाने की खुरदरी-आईनागरी में निमज्ज था। सजीले,सादगी
भरे इस मसखरे नायक की त्रासदी का ठिकाना और व्यवहार-जगत सबसे भिन्न था।
दरहक़ीक़त सिनेमा के परदे पर राजकपूर ने एक ऐसे नये धीरेोदात्त नए किस्म के नायक को पेश
किया जो संगदिल की भी बदनाम नहीं चाहता। सीने में धड़क रहे टूटे दिल की ख़बर लेने वाले बेगाने
होकर गये हैं। ये बेगानापन भी उसे मंजूर है। जाने कब उसकी अपनी हकीकत और अफसाने बेहद
दिलचस्प महानाटक में बदलते रहते हैं । हर पल उसे धोखे के खेल में फाँसे हुए है। फ़क़त विगत
प्रेयसियों के उत्तप्त प्रेम की लिपियां उदासियों में झांक रहीं हैं! इन्हें सर्कस की रिंग में रचने का
दुस्साहस इतना नाटकीय है कि तमाम प्रेम-परिहास, हटाने अभिसार, आरजूएं अब कसक, टीस भर हैं।
जो एक जीनियस के मुखौटे के साथ विदूषक की हँसी का पर्याय बन गई हैं! दिल का हाल कहे
दिलवाला की जुबान पर जैसे ताला जड़ा है।अतीत के रूपीले खंडहरों में पुन: भटकने का रोमान भी
नॉस्टेलजिया ही साबित हुआ है। मेरी(सिम्मी ग्रेवाल), मरीना ( रूसी सर्कस की कलाकार सीना
राबिंकिना) और मीना (पद् मिनी) के सम्मोहक रूपक वहां तारी हैं! या यह उसका वहम था!! तीन घंटे
की कालावधि में नीरज की पंक्तियों में समाया बचपन/जवानी/ बुढ़ापे की लकीरी-फकरी का खेल खत्म
नहीं हुआ है! उसी मासूमियत के साथ जोकर की नीली आँखों में अगली सदियों का इंतज़ार झांक रहा
है। सर्कस की दर्शक-दीर्घा में राजू के रंगबिरंगे फ्लैशबैक सिमट गये हैं! बस, जाने कहाँ गये वो दिन..का
त्रास शेष है! …
आखिर कैसा है यह मसखरा-नायक और उसका सात्विक-सा दर्शन जो यारा-ए-सब्र (सहनशीलता का
याकूत / रतन) साबित होना चाहता है! जो किसी से कुछ छिपाता भी नहीं!! पर कहीं अपनी दरपर्दा
जीस्त [ज़िन्दगी] की पहेलियों और मसकरेपन में समाए बोड़मपन से कुछ-कुछ चार्ली की तरह ही बाज़
आता भी नहीं ! हां, चार्ली चैप्लिन से उधार लिए [ और खूब काम आए ] इस जेनुइन, मगर पस्त चेहरे
की पीड़ा भी बेशकीमती है। उसे भी जीवन के कड़वे अनुभवों की किश्त [खेती] या कमाई समझ लिया
गया है। राजकपूर चार्ली चैप्लिन तो नहीं हो सकते, पर अपने इस प्रौढ नायक के बेदाग़ -दिल के साथ
वही पर्दापोशी रखने में कायम रहे। वास्तविकता यही कि राजकपूर पूर्वरंग में अपनी फिल्मों की
दहलीज पर जिस्मानी, इरोटिक, सपनीली दुनिया में रमे ज्यादा दिखाई देने के बाद भी मोहभंग की
स्थिति में नहीं हैं। वह अपने काशाना [घर] और इस काइनात में अपनी सजीली महफ़िल जस की तस
छोड़ गये हैं। वहाँ शायद कोई काकुले शमा से पहले की रौनक है जो उनकी याद में हमारे दिलों में
उनकी दास्ताँ की सूरत जगमगा रही है ! वही देहली की चौखट पर
पहले-पहल उनके शताब्दी-वर्ष में, लज़्ज़त आश्ना (रसज्ञ, नये अनुभवी) की सूरत दास्तान-ए-
अहवाल-ए-कपूर .फ्रतेशौक, रंगमंचों पर जनाब महमूद .फारुकी के मुसाहिब के संग हाल ही में
पेश की गई। उम्मीद करें कि अगले वक्तों में भी यह दास्तान अपनी-सी नयी आज़्माइश में
दास्तानगोई की शक्ल में, उस महान-कलावन्त की सिनेकारी का अफ़्शा-ए-राज़.. (रहस्योदघाटन करने
वाला) सीधा-सच्चा, दिनायत – अफ़साना साबित हो।
— प्रताप सिंह
pratapsingh1949@gmail.com
December 13, 2024
3:55 pm Tags: मेरा नाम जोकर, तीसरी कसम, राजकपूर, शोमैन, राजकपूर जन्मशती, राजकपूर जन्मदिन