बैठना, बतियाना और कविताएं सुनना, सुनाना…
आपने कई कवि सम्मेलन सुने होंगे, काव्य गोष्ठियों में शिरकत की होगी, घरों में भी कई बार अनौपचारिक तौर पर कविताओं और रचनाओं के पाठ हुए होंगे, गपशप, खानपान के साथ कुछ कविताई और कुछ हंसी ठहाके भी हुए होंगे। दिल्ली में आमतौर पर ऐसे औपचारिक, प्रायोजित और कुछ संस्थागत आयोजन तो अक्सर होते ही रहते हैं। लेकिन अगर कलाकारों के बीच एक बेहतर कलात्मक माहौल में ऐसा मिलना बैठना हो, तो समां कुछ और बंधता है। पत्रकार, रचनाकार और कलाकार देवप्रकाश चौधरी ने इस परंपरा की एक अनूठी शुरुआत की।
 
नई दिल्ली में 30 अक्टूबर की वह एक ऐसी शाम थी, जिसमें कोई औपचारिकता नहीं थी। कुछ कवि थे। कुछ कलाकार। कुछ प्रकाशक। कुछ शब्द प्रेमी। सब आपस में मिलने आए थे। बतियाने आए थे। सुख-दुख की बातें करने आए थे। अपने लिखे को सुनाने आए थे। दूसरों के लिखे को सुनने आए थे। वे अपना-अपना धैर्य साथ लेकर और ऊब छोड़कर आए थे।और फिर राजधानी के सिरी फोर्ट इलाके में एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के सभागार की वह शाम सबों के लिए यादगार बन गई। ऐसा लगा मानो रविवार सबके लिए छोटा पड़ गया हो। कार्यक्रम की शुरुआत में वरिष्ठ चित्रकार और पत्रकार देव प्रकाश चौधरी ने इस बात पर सबको राजी कर लिया कि हम सब सवाल पूछेंगे। इसी बात को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि एक नागरिक का सवाल पूछना सिर्फ व्यवस्था से सवाल पूछना नहीं होता है। जिम्मेदार बने रहने के लिए जरूरी है कि हम खुद से सवाल पूछें। और फिर आई कवियों की बारी।
सबसे पहले अपनी कविता के साथ प्रख्यात गीतकार और कवि यश मालवीय खड़े हुए। पूरा हॉल उत्सव में बदल गया। “चाल हंस की क्या होगी जब सब कुछ काला है,अपने भीतर तुमने काला कौवा पाला है…” के बाद जब उन्होंने अपनी एक मशहूर रचना “आओ भाई रामसुभग, दरी बिछाओ रामसुभग” सुनाई तो हॉल तालियों से गूंज उठा। फिर बारी थी वरिष्ठ पत्रकार और  कवि प्रताप सोमवंशी की-“दर्जनों किस्से कहानी खुद ही चलकर आ गए, उससे जब भी मैं मिला, इतवार छोटा पड़ गया।” उनके हर शेर पर लोगों की सस्वर सहमति थी-“राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था, दस के दस चेहरे बाहर रखता था।” या फिर “तय हो जाता है तब किस्तों में मरना, जब अपने अंदर ही क़ातिल होता है।”
वरिष्ठ आलोचक कवि और गीतकार ओम निश्चल भी खूब जमे-“चांद को बदलियों ने देख लिया, फूल को तितलियों ने देख लिया, लाख छुपता रहा मगर, उसको आज फिर कनखियों ने देख लिया।”
आआईटी (मंडी) के प्राध्यापक और भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित कवि सौम्य मालवीय की कविता ” नदी के पथ में/धूप में चमकते /चिकने स्निग्ध पत्थर…” को लोगों ने जमकर सराहा।’गेंहूं का अस्थि विसर्जन’  काव्य संग्रह से ख्यात ऊर्जावान कवि अखिलेश श्रीवास्तव ने अपनी कविता में बताया कि स्त्रियां गायें क्यों नहीं होती-” स्त्रियां गायें नहीं होती, क्योंकि पूजी जाती है गाय, स्त्रियों के भाग्य में नहीं है गाय हो जाना।” ‘ठिठुरते लैम्प पोस्ट’ के बेहद चर्चित कवि अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ को भी उनकी कविताओं पर वाह-वाही मिली।‘दूसरा मत’ के संपादक और कवि ए.आर.आजाद तो अपनी कविता में ‘शब्दों का कारखाना’ ही लेकर आए थे। वहीं इस जन गुल्लक में युवा कवयित्री अनुपम सिंह संवेदनाओं का पुल लेकर आई थीं- “बिल्ली अंधेरे में भी खेलती है अपने बच्चों संग और कवि गढ़ लेता है उजाले का बिंब।”
दिल्ली के सिरी फोर्ट इलाके में एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के सभागार में लोगों का यूं मिलना,मुस्कुराना, बतियाना और फिर अपनी-अपनी बातें रखना, दरअसल एकेडमी की उस परंपरा का हिस्सा था, जिसे एकेडमी की संस्थापक और पंजाबी की मशहूर कथाकार अजीत कौर ने 1986 में ‘डायलॉग’ से नाम से शुरू किया था। कोरोना काल को छोड़कर डायलॉग लगातार जारी रहा और रविवार की शाम भी हम सबने महसूस किया कि “अगर बातचीत हो तो दीवारें गिरती हैं।”
इन कवियों की कविताओं और स्वर में जो ताजगी थी, उससे श्रोता अंत तक जमे रहे।
मशहूर चित्रकार अर्पणा कौर की स्नेहमयी और मशहूर कलाकार अजीत कौर की ममतामयी उपस्थिति ने सबके सामने एक बात तो साफ कर दी कि सिर्फ घरों में ही नहीं, किसी शब्द जमघट में भी बड़ों के आशीष हमें संबल देते हैं। इस कार्यक्रम में सबों को बार-बार एहसास हुआ, मानो सब घर में एक दूसरे से बतिया रहे हों। महीने के हर अंतिम रविवार को सब ऐसे ही मिलेंगे, संवाद जारी रहेगा।
    
Posted Date:

November 2, 2022

5:47 pm Tags: , , , , , , , ,
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