राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने आज भारंगम के कार्यक्रमों की घोषणा करते हुए बताया कि इस वर्ष भारतीय रंग महोत्सव के दौरान इब्राहिम अल्काजी ,धर्मवीर भारती , मोहन राकेश और हरिशंकर परसाई पर चर्चा की जायेगी और वह श्रुति कार्यक्रम के अंतर्गत होगी । एनएसडी की इस घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि उसने रंगमंच की चार विभूतियों को याद करने का एक उपक्रम किया है। इब्राहिम अल्काजी को याद करना बहुत स्वाभाविक है क्योंकि उन्होंने एनएसडी की नींव रखी है और आज यह संस्था जिन ऊंचाइयों पर पहुंची है उसके पीछे इब्राहिम अल्काजी का बहुत बड़ा योगदान है जिसे कभी भुलाया नहीं हो सकता। जाहिर है आज जब अल्काजी का जन्म शताब्दी वर्ष शुरू हो रहा है तो एनएसडी को उन्हें याद करना ही चाहिए ताकि आज की पीढ़ी अल्काजी के बारे में जान सके जो कि भारतीय रंगमंच की हस्ती बन चुके हैं। प्रख्यात लेखक संपादक धर्मवीर भारती की भी जन्मशती इस वर्ष शुरू हो रही है और उनका नाटक “अंधा युग” मील का एक पत्थर माना जाता है। कनुप्रिया प्रबंध काव्य पर भी कई मंचन हुए हैं। गिरीश कर्नाड का तो कहना था कि पिछले ढाई हजार वर्षों में अंधा युग जैसा कोई नाटक लिखा ही नहीं गया। अंधा युग के अब तक सैकड़ों शो हो चुके हैं और भारत में ही नहीं विदेशों में भी यह कई जगह खेला गया है। आज भी “अंधा युग ” हर निर्देशक के लिए एक चुनौती बना हुआ है और हर निर्देशक के मन में एक ख्वाहिश रहती है कि वह अपने जीवन काल में अंधा युग का मंचन अवश्य करें। इब्राहम अल्काजी, सत्यदेव दुबे से लेकर रामगोपाल बजाज और भानु भारती जैसे लोग करते रहे हैं।
यही हाल मोहन राकेश के नाटकों का भी है। राकेश के तीनों नाटक भी हिंदी रंगमंच के इतिहास में मील के पत्थर माने जाते हैं। आषाढ़ का एक दिन ,”लहरों के राजहंस” और “आधे अधूरे” का निर्देशन हर रंगकर्मी अपने जीवन में एक बार जरूर करना चाहता है। परसाई जी प्रसिद्ध व्यंग्यकार रहे लेकिन उनकी व्यंग्य रचनाओं पर आधारित नाटक भी काफी लोकप्रिय रहे हैं। इस दृष्टि से अगर उनपर विचार विमर्श होता है तो इसका भी स्वागत होना ही चाहिए लेकिन सवाल यह उठता है कि गत वर्ष एनएसडी ने हबीब तनवीर और रेखा जैन को क्यों नहीं याद किया जबकि उनकी भी जन्मशती थी। क्या हबीब साहब का योगदान भारतीय रंगमंच में किसी से कम है ? क्या रेखा जैन का योगदान बाल रंगमंच के क्षेत्र में किसी से कम है ? आखिर इन दो हस्तियों की अनदेखी एनएसजी ने क्यों की जबकि पिछले वर्ष एनएसडी के डायरेक्टर चितरंजन त्रिपाठी से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल पूछा गया तो उन्होंने यह कहा भी कि आज की पीढ़ी हबीब तनवीर को नहीं जानती और हमें उनके जानने के लिए कोई न कोई उपक्रम करना चाहिए।
वैसे कहने को इस भारंगम में आगरा बाजार का मंचन नया थिएटर द्वारा किया जा रहा है। इस वर्ष बादल सरकार और तापस सेन की भी जन्मशती है। क्या बादल सरकार कोई छोटे नाटककार हैं कि उनपर कोई सेमिनार आदि न हो। गत वर्ष चितरंजन त्रिपाठी ने यह भी कहा कि वह भीष्म साहनी का नाटक “तमस “भी करेंगे लेकिन एक साल गुजर गया। उन्होंने ” तमस” का दोबारा मंचन नहीं किया यहां तक कि रेखा जैन पर भी कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया। एक जमाने में रेखा जैन पर एनएसडी से महेश आनंद की पुस्तक भी निकली है। इसलिए अगर एनएसडी ऐसी हस्तियों की अनदेखी करती है तो सवाल बनता ही है।
भारंगम में धर्मवीर भारती का कनुप्रिया और मोहन राकेश का आधे अधूरे भी मंचित किया जा रहा है। आखिर कुछ हस्तियों को दरकिनार किए जाने के पीछे कारण क्या है ? क्या एनएसडी का रंग बदल रहा है? आज के प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार ने निदेशक महोदय से एक सवाल भी किया कि आखिर भारंगम के सूत्र वाक्य ” एक रंग श्रेष्ठ रंग” के पीछे का भाव क्या है, निहितार्थ क्या है? इस नारे का संबंध कहीं उस नारे से तो नहीं जिसमें “एक देश एक चुनाव” या एक भारत श्रेष्ठ भारत की बात कही जा रही है। आखिर इस देश में सब कुछ “एक” करने की जरूरत क्यों महसूस की जा रही है ?
क्या इन दिनों बहुसंख्यक संस्कृति को एक “रंग” नहीं माना जा रहा जबकि यह देश विविध संस्कृतियों का देश है और यहां विविधता और बहुलता काफी है। यह अनेकता में एकता वाला देश है। ऐसे में ” एक रंग” का क्या तात्पर्य है? त्रिपाठी ने उस सवाल के “आशय ” को समझते हुए कहा कि आप उस सवाल को कहीं और ले जा रहे हैं और अपने हिसाब से” रंग” की व्याख्या कर रहे हैं राजनीति की तरफ ले जा रहे हैं। त्रिपाठी ने “एक रंग ” की व्याख्या करते हुए भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का सहारा लिया और बताया कि कई तरह के नाटक खेले जाते हैं लेकिन अंतत वे नाटक ही होते हैं और यह नाटक का एक रंग है। हमारे इस स्लोगन के पीछे यही उसका आशय है, भाव है लेकिन पत्रकार महोदय उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हो पाए। बात आई गई खत्म हो गई लेकिन अगर इस “एक रंग” को हबीब तनवीर के “रंग” से जोड़ा जाए तो शायद यह शंका लोगों के मन में उत्पन्न होगी कि तनवीर साहब को उनके जन्मशती वर्ष में इसलिए एनएसडी ने याद नहीं किया क्योंकि उनका “ रंग” अब एनएसडी के “रंग “ से नहीं मिलता जुलता है। क्या पिछले 10 वर्षों में एनएसडी का भी “रंग “बदला है, जब अन्य संस्थाओं के रंग बदल रहे और बदल गये?
अगर कुछ वर्षों में एनएसडी के कुछ नाटकों की थीम को देखें तो कुछ ऐसे भी नाटक खेले जा रहे हैं जिनमें पौराणिकता और परंपरा की छौंक अधिक है वह भारतीयता के नाम पर पीछे की ओर लौट रही है और अब वह आधुनिकता नहीं रही जो कभी इब्राहिम अल्काजी ने एनएसडी में अपने नाटकों से स्थापित की थी ।यूं तो एनएसडी कह सकती है कि वह परसाई जैसे वामपंथी विचारधारा वाले लेखक परआयोजन कर रही है , इसलिए उस पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का सवाल नहीं उठाया सकता है पर प्रश्न यह भी है कि अगर परसाई की जन्मशती बीत गई है और उसके बावजूद उन पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे तो हबीब तनवीर पर क्यों नहीं ? क्या तनवीर साहब पर गोष्ठी रखने से पोंगा पंडित नाटक पर चर्चा नहीं होगी जो एक ज़माने में मध्य्प्रदेश सरकार के निशाने पर रहा है? क्या इसलिए उन्हें याद करने का उपक्रम नहीं किया जा रहा और रेखा जैन को क्यों भुला दिया जा रहा ? क्या इसलिए कि वह एक स्त्री थी और बाल रंगमचं कर रही थी या इसलिए कि वह एक ऐसे लेखक की रिश्तेदार हैं जिन्होंने मौजूदा सत्ता के खिलाफ वर्षों से मोर्चा खोल रखा है। क्या यह माना जाये कि एनएसडी से जाने अनजाने कोई भूल हुई हो या उसके निर्णय कहीं और से संचालित हैं। लेकिन यह सवाल तो सबके मन में उठता ही है कि आखिर एनएसडी ने हबीब साहब को उनके जन्म शती वर्ष में क्यों नहीं याद किया और क्यों रेखा जैन को उसने भुला दिया ?
वर्तमान एनएसडी पर आरोप लगते रहे हैं भले वह एक स्वायत्त संस्था हो लेकिन क्या वह मंत्रालय से वह अधिक निर्देशित और संचालित होती है। वह एक स्वतंत्रता सेनानी रंगकर्मी को भी याद नहीं कर पा रही जिसने बड़ा योगदान किया , जिससे लोग आजतक अनभिज्ञ थे?
एनएसडी भव्य भारंगम आयोजित कर इस बार विदेशों में भी झंडे गाड़ रही है लेकिन क्या उसकी धार नहीं कुंद हो रही है?