नंदलाल नूरपुरी: जिनके रचे गीत लोकगीत हो गए
पंजाब के जाने माने तरक्कीपसंद कवि और गीतकार नंदलाल नूरपुरी के बारे में कम ही लोग जानते हैं। लेकिन उनके गीतों में मानो पंजाब का दिल धड़कता है, वहां की सोंधी खुशबू की सुगंध बसती है… एक जून 1906 को नूरपुरी साहब की जन्मतिथि है… उनके बारे में, उनके गीतों के बारे में वरिष्ठ पत्रकार सुधीर राघव का आलेख ‘ 7 रंग ‘के पाठकों के लिए….   
‘जिनके गीतों में देशभक्ति, किसान और मजदूर की मेहनत, बेबसी और खुशियां, सब एक साथ बोलते हैं…’
यह अस्सी के दशक की बात है। सुबह बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो रहे होते, तब जालंधर रेडियो स्टेशन से प्रसारित हो रहे पंजाबी गानें ड्रेस पहनने, कंघी करने, परांठे की बुर्की तोड़ने और उसे दही में डुबोने जैसे हर काम को लयबद्ध कर देते थे। हर दूसरे-तीसरे गीत से पहले यही बताया जाता, गीत दे बोल ने नंदलाल नूरपुरी दे।
पंजाब में आतंकवाद दस्तक दे चुका था, मगर हर साल अगस्त और जनवरी में 15 अगस्त और 26 जनवरी के कार्यक्रमों की रिहर्सल स्कूलों में शुरू हो जाती थीं। भटिंडा (अब बठिंडा) के स्टेडियम में शहर और आसपास के गांवों के स्कूलों से आये चुने हुए बच्चों का रंगारंग कार्यक्रम होता था। इसमें हमारे एसएसडी सीनियर सेकेंड्री स्कूल के बच्चे पीटी के लिए जाते थे। छठी से लेकर आठवीं तक हम भी इन कार्यक्रमों के नियमित हिस्सा थे। मगर हरबार कार्यक्रम की रौनक गिद्दा-भंगड़ा और बोलियों के बाद तब और जोश भर देती थी, जब कोई छात्र सिर पर चटख रंग का साफा बांधे और हाथ में इकतारा लिए बड़ी सधी आवाज में गाता था, ‘बल्ले नी पंजाब दिए शेर बच्चिये…।’ सब मंत्रमुग्ध होकर उसे सुनते जैसे आसा सिंह मस्ताना की अवाज में खुद नंदलाल नूरपुरी हो। इस बड़े स्टेडियम में कई हजार स्कूली बच्चे एक साथ हिस्सा लेते थे और उन सबका जन्म पंजाबी के कवि और गीतकार नंदलाल नूरपुरी के अवसान के बाद ही हुआ था। मगर पुराना जादू कायम था।
आर्थिक संकट और अवसाद में घिरे संवेदनशील कवि नंदलाल नूरपुरी ने 1966 में अपने जीवन का अंत कर लिया था मगर पंजाबी साहित्य के लिए वह आज भी सदाबाहर कवि हैं। उनकी मौत के दो दशक बाद उस समय में जब हम होश संभाल रहे थे, नंदलाल नूरपुरी के गीत, जो अक्सर मोहम्मद रफी, आसा सिंह मस्ताना, सुरिंदर कौर, प्रकाश कौर या लतामंगेशकर की आवाज में होते थे, उमंग से भर देते थे। नूरपुरी के बारे में कहा जाता था कि शब्द नूरपुरी के हों तो गीत गीत नहीं रहता, वह लोकगीत बन जाता है।
वह जो लिख रहे थे और गा रहे थे, वह सीधा लोगों के दिलों में दर्ज हो रहा था। उनकी मौत के बाद समाज को सुध आई कि बहुत कुछ है जिसे किताब के रूप में भी दर्ज होना चाहिए। उनकी मौत के कई साल बाद ‘पंजाब बोलियां’ नाम से उनकी रचनाएं पुस्तक के रूप में सामने आईं। पंजाबी के इस मस्तमौला कवि का जन्म जून 1906 में लाइलपुर के गांव नूरपुर में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। चालीस साल की उम्र में देश के बंटवारे की चोट उन्हें झेलनी पड़ी और अपना सबकुछ गंवा कर जालंधर में आ बसे। हालांकि वह लगातार पंजाबी और उर्दू में काफी कुछ रच रहे थे। किताब नूरपुरिया उर्दू में छपी। उसके बाद चंघियाड़े, जिउंदा पंजाब, वंगा, सौगात को भी पुस्तक का रूप दिया।
नूरपुरी का रचना संसार उनकी फकीरी और मस्तमौला अल्हड़पन से ही ऊर्जा लेता था। कोई बंधीबंधाई जिंदगी उन्हें रास नहीं आई। वह चप्पल पहने, साइकिल पर गाते-गुनगुनाते गुजरते लोगों के लिए बेहद सहज थे। शादी के बाद बीकानेर रियासत में उन्हें थानेदार की नौकरी मिल गई थी, मगर उनका कवि मन बहुत दिन तक इस नौकरी से बंधकर नहीं रह सका। इससे पहले वह शिक्षक की नौकरी भी छोड़ चुके थे। मंगती और विलायतपास फिल्मों में उनके लिखे गानों की लोकप्रियता को देखते हुए फिल्म निर्माण कंपनी कोलंबिया ने उन्हें नौकरी दी मगर कुछ ही समय बाद उन्होंने इसे भी छोड़ दिया।
उनके गीतों में देशभक्ति, किसान और मजदूर की मेहनत, बेबसी और खुशियां, सब एक साथ बोलते हैं। इश्क और हुस्न के संवाद को गीत में पिरोकर उन्होंने प्रेम की अनंत अभिव्यक्ति को सरलता से शब्दों में बांध दिया। असल में नूरपुरी पंजाब के जनजागरण के कवि थे। उनके गीत पूरे पंजाब की आवाज हैं।
प्रकाश कौर की अवाज में – चनवे शौकण मेले दी, पंजाब के हर मेले और समारोह की शान हुआ करता था। अब भले शादी-विवाहों में डीजे में पंजाबी पॉप का जमाना है मगर ‘मैनू दिओर दे विआह विच नच लैण दे’, ‘लट्ठे दी चादर, उत्ते सलेटी रंग माहिया’, ‘काला डोरेया कुंडे नाल अड़ैया ओ’,  ‘गोरी दियां झांजरां’,  ‘काले रंग दा परांदा’,  ‘वंगां वालियां हत्था दे नाल तारा मीरा तोड़दी फिरां’ की मिठास अपना न भूलने वाला मुकाम आज भी रखती है।
सुधीर राघव
Posted Date:

June 1, 2020

4:12 pm Tags: , , , , , , , , ,
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