अमर उजाला की साहित्यिक बैठक की ताज़ा जुगलबंदी
नामवर सिंह विश्वनाथ त्रिपाठी
दक्षिण दिल्ली के अलकनंदा के पास है शिवालिक अपार्टमेंट। डीडीए की इस एमआईजी कॉलोनी में दूसरी मंज़िल पर रहते हैं जाने माने आलोचक नामवर सिंह । 90 साल के हो चुके हैं। सेहत भी ठीक नहीं रहती। इसके बावजूद तकरीबन पचास सीढ़ियां चढ़कर हिन्दी आलोचना का यह शिखर पुरुष एकदम अकेला अपने किताबों के बीच समाज, सियासत और साहित्य पर चिंतन करने में किसी से पीछे नहीं है। नामवर जी ने जितना लंबा दौर देखा है, साहित्य और लेखकों की कई पीढ़ियों को जितनी बारीकी से पढ़ा और समझा है, शिक्षण संस्थानों की संस्कृति के साथ साथ देश के तमाम विश्वविद्यालयों में सबसे ज्यादा नियुक्तियां की हैं और खुद जितना लिखा और बोला है, वह ऐतिहासिक है। अमर उजाला की अनोखी साहित्यिक पहल ‘बैठक’ की ‘जुगलबंदी‘ इस बार नामवर सिंह और हिन्दी के विद्वान लेखक और शिक्षाविद् विश्वनाथ त्रिपाठी के बीच हुई। विश्वनाथ जी हालांकि नामवर सिंह से केवल तीन साल ही छोटे हैं, बीएचयू में साथ पढ़े भी हैं और एक तरह से उन्हें अपना गुरुभाई मानते हैं लेकिन लेखन, साहित्य, आलोचना, सियासत और साहित्य-समाज आदि को लेकर उनका अपना नज़रिया है। दिलशाद गार्डन के एक छोटे से फ्लैट में विश्वनाथ जी रहते हैं और उनकी सक्रियता ही उन्हें स्वस्थ रखती है। नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी ने अमर उजाला टीम के साथ अपने ढेर सारे अनुभव बांटे, साहित्य की तमाम धाराओं पर बात की, आलोचकों की परंपरा को अपने अपने नज़रिये से देखा, देश के सियासी हालात और वामपंथ के साथ साथ दक्षिणपंथ के मौजूदा स्वरूप पर चर्चा की, लेखकों के सम्मान वापसी पर राय जाहिर की।
इन दोनों हस्तियों से अमर उजाला टीम के चंद सवाल-जवाब 7 रंग के पाठकों के लिए साभार –
आज बीएचयू और दूसरे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों का जो हाल है, उसे आप कैसे देखते हैं… तब और अब में क्या फ़र्क महसूस करते हैं?
नामवर सिंह — अखबारों में खबर पढ़कर रोते हैं कि हमारे विश्वविद्यालय का ये हाल हो गया। हमारे समय में ऐसा कभी नहीं हुआ। मैं कभी हॉस्टल में तो नहीं रहा। घर था तो तुलसी घाट पर रहता था। उस समय भी महिलाओं के लिेए अलग हॉस्टल था। सुरक्षित था। जो हो रहा है, उसे सुन कर रोना आता है। अब तो मेरा भी काशी छूट गया। कहते हैं ‘भैरव का सोटा’ लग जाए तो आदमी काशी में न रह पाता है। मुझे ‘भैरव का सोटा’ लगा, दिल्ली आ गया।
विश्वनाथ त्रिपाठी – हमारे ज़माने में वाइस चांसलर इतने असरदार और निर्भीक होते थे कि उनकी इजाजत के बगैर कोई कैंपस में घुस नहीं सकता था.. मेरे समय में बीएचयू के हमारे वाइस चांसलर की जानकारी के बगैर एक बार तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत आ गए तो वाइस चांसलर ने चिट्ठी भेजकर उनसे पूछ लिया कि उनकी जानकारी के बगैर वो कैंपस में कैसे आ गए…पहले बिना वीसी के अनुमति के कैंपस में पुलिस आ नहीं सकती थी…अब कुछ बचा ही नहीं… हर तरह की सामाजिक बुराइयां आपको दिख जाएंगी। नियुक्तियों से लेकर पढ़ाई लिखाई के स्तर तक। आज अनेक कारणों से हम योग्य अध्यापकों की नियुक्ति नहीं करते… चाहे जातिवाद हो, वर्णवाद हो, पैसा हो या सेक्स हो या खुशामद… मनुष्य की कमजोरियां उसे बहुत परेशान करती हैं… आजकल ईजी मनी और पोजिशन पा लेने की होड़ में ये सब हो रहा है.. इससे सारा संतुलन बिगड़ गया है, जो एस्थेटिक्स है या सौंदर्य है… उसकी सबसे बड़ी शर्त होती है कि जितना आपको चाहिए, जितनी आपको जरूरत हो, उससे ज्यादा नहीं होना चाहिए आपके पास…पैसा बहुत हो गया है..इसलिए वो ईमानदारी और दमखम नहीं रहा किसी में।
(नामवर सिंह के कमरे में लगा एक चित्र — वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी के साथ नामवर सिंह )
लेखकों की अवार्ड वापसी को लेकर पिछले दिनों बड़ा हो हल्ला मचा… आपकी नज़र में असहिष्णुता के सवाल पर लेखकों का ये कदम कितना सही था…
नामवर सिंह — मैंने कहा था कि भाई, जिस संस्था से मुझे पुरस्कार मिला, वह सरकार की संस्था नहीं है। साहित्य अकादेमी देश की इकलौती गैर-सरकारी और स्वायत्त संस्था है। जब यह बनी थी तो पहली सचिव कृष्णा कृपलानी थीं। उन्होंने पत्र लिखकर नेहरू से कहा कि जब तक कमिटि बनकर चुनाव न हो जाए, तब तक आप अध्यक्ष बन जाएं। तो नेहरू ने मना कर दिया। कहा, कम से कम साहित्य को तो सत्ता से अलग रहने दो। साहित्य अकादेमी सरकार से पैसा लेती है, लेकिन सरकार की सुनती नहीं। उस समय तय हुआ कि रवींद्र नाथ टैगौर के शांति निकेतन की तरह इसे बनाएं। नाम रवींद्र भवन है तो परंपरा भी वही हो। साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष इलेक्टेड होते हैं। यही नहीं, जेएनयू जब बना तो उसे स्वायत्त रखा गया। जेएनयू के वीसी को अधिकार है कि बिना इंटरव्यू के पोस्ट ऑफर कर पाए। पहले वीसी बीडी नाथ चौधरी थे। उन्होंने मुझे ऑफर किया था। मैंने अप्लाई नहीं किया था। इसलिए प्रतिरोध के लिए एक स्वायत्त संस्था की ओर से मिले उसके पुरस्कारों की वापसी का कोई औचित्य ही नहीं बनता है।
विश्वनाथ त्रिपाठी – जिन लोगों ने मौजूदा स्थितियों से विक्षुब्ध होकर पुरस्कार छोड़ा, उन्होंने कुछ छोड़ा ही, लिया तो नहीं…उनका आदर किया जाना चाहिए.. ये कहना सही नहीं कि अगर लेखक ऐसा नहीं करते तो पहले पन्ने पर नहीं छपते, अगर अखबारों में छप ही गए तो कौन सी बड़ी बात हो गई… मैं समझता हूं कि लेखकों ने अच्छा कीम किया… जिन लोगों ने नहीं भी छोड़ा और विरोध किया, वो भी आदरणीय है… इसलिए यह कोई कसौटी नहीं बनती.. असल में साहित्यकार भावनाओं में बहकर कई फैसले लेते हैं…
देश में इन दिनों स्वच्छता अभियान का बड़ा शोर है… मोदी सरकार के इस अभियान को आप कैसे देखते हैं…
नामवर सिंह — सफाई अभियान अच्छा है, लेकिन सफाई और सफाये के बुनियादी मायने समझने होंगे। सफाई और सफाये में फर्क होता है। सफाई अच्छी बात है, लेकिन उससे किसका सफाया हो रहा है, उस पर भी बात होनी चाहिए।
विश्वनाथ त्रिपाठी – स्वच्छता तो अच्छी चीज है.. इसका विरोध कौन कर सकता है… लेकिन मन में मैल डालने और सड़क पर से मैल उठाने में फर्क करना होगा…कई कई काम सरकार जो करती है, लेकिन सरकार से ज्यादा जो इसके नेता और एमपी..एमएलए करते हैं, वो बहुत शर्मनाक है… आप देश के प्रधानमंत्री हैं..आरएसएस और भाजपा तो अनुशासन के लिए प्रसिद्ध रही है, आपको तो रोककर इन्हें डांटना चाहिए रोक लगाना चाहिए..राजधर्म का पालन करना चाहिए.. अगर आप ऐसा नहीं करते तो लोगों का भरोसा आपसे खुद ही उठ जाएगा…अब हर आदमी पर इतना शक हो गया है…महंगाई कम हो नहीं रही.. जुमलेबाजी हो रही है… सरकार कोई भी हो देश को फायदा होना चाहिए… शुरू में लगता था कि कुछ अच्छा काम होगा, लेकिन अभी तक तो नहीं लगता..
प्रगतिशील लेखक संघ या जनवादी लेखक संघ विमर्श के वे दरवाजे थे, जिनसे साहित्य में मान्यता के रास्ते खुलते थे। क्या अब यह सब बंद हो गया है?
नामवर सिंह – देखिए कांग्रेस पार्टी में गांधी जी के कारण, नेहरू जी के कारण या इंदिरा जी के समय में भी ढेर सारे साहित्यकार जुड़े हुए थे। गांधी जी के प्रभाव से बड़े बड़े साहित्यकारों का झुकाव कांग्रेस की ओर हुआ। मैथिली शरण गुप्त हुए। बड़े कवि थे। तो एक राजनीति का रास्ता है। एक साहित्य का। संस्कृति का भी है, जिसमें संगीत नाटक सब कुछ है। सबका उद्देश्य है लोक कल्याण। ये रास्ता कांग्रेस के बाद बीजेपी में भी अब खुलने लगा है, लेकिन बीजेपी के पास अभी भी कम साहित्यकार हैं। हालांकि उनकी सरकार है तो साहित्यकार भी आ जाएंगे। जहां गुड़, वहीं चींटीं।
कविता और प्रेम करने की उम्र के बारे में आप क्या सोचते हैं?
नामवर सिंह – कविता लिखने और प्रेम करने की उम्र होती है, वह पार कर ली, तो कविता लेखन बंद कर दिया।
विश्वनाथ त्रिपाठी – मुझे लगता है कि इसकी कोई उम्र नहीं होती। आप सबसे अपनी बुराइयां छुपा सकते हैं, लेकिन पत्नी से नहीं.. प्रेम तो दरअसल बुढ़ापे में ही होता है.. खासकर पति पत्नी के बीच…रामचंद्र शुक्ल ने सबसे बड़ा प्रेम दांपत्य प्रेम को बताया है.. इसकी परीक्षा कदम कदम पर होती है.. दांपत्य जीवन को जहां तक संभव हो बचाकर रखना चाहिए, सहना चाहिए.. इसका जो अमृत है, वो बुढ़ापे में मिलता है…
(नामवर सिंह के साथ अमर उजाला समूह के सलाहकार और लेखक यशवंत व्यास और राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी)
अमर उजाला ने इस पूरी बातचीत को अपने एक विशेष पेज में खास तौर से छापा है। उसका लिंक हम अपने पाठकों के लिए दे रहे हैं… क्लिक कीजिए और वहां इसे और विस्तार से पढ़िए –
http://epaper.amarujala.com/dl/20171022/11.html?format=img
Posted Date:October 23, 2017
7:16 pm Tags: साहित्यिक जुगलबंदी, amar ujala, अमर उजाला, Namvar Singh, Vishwanath Tripathi, Sahityik Baithak, नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, अमर उजाला बैठक