साहिबजान :  दर्द की अंतहीन दास्तान…

वो पाकीज़ा की साहिबजान थीं… वो साहिब बीवी और गुलाम की छोटी बहू थीं…वो बैजू की गौरी थीं.. दो बीघा ज़मीन की ठकुराइन थीं…परिणीता की ललिता थीं…और सबसे बड़ी उनकी पहचान थी ट्रेजेडी क्वीन की… लेकिन असल में वो महज़बीं बानो थीं…एक बेहतरीन शायरा…एक तड़पती हुई बेचैन अदाकारा…बहुत कुछ थीं मीना कुमारी। 31 मार्च को महज 38 साल की ज़िंदगी जीकर मीना ने दुनिया को अलविदा कह दिया…उनकी ज़िंदगी में कमाल अमरोही क्या थे… उनके लिए प्यार के क्या मायने थे… वो क्यों इतनी अकेली थीं… इतनी शोहरत और रुतबे के बाद भी वो क्यों तन्हा थीं…उनके लफ्ज़ों में वो क्या दर्द था जो बार बार छलक आता था… आखिर क्या थीं मीना कुमारी….जाने माने पत्रकार और फिल्मों को बेहद गहराई से पढ़ने देखने और समझने वाले प्रताप सिंह ने इस शख्सीयत को अपनी नज़र से देखा है। प्रताप सिंह ने अपनी किताब ‘सिनेमा का जादुई सफ़र’ में एक हिस्सा मीना कुमारी को समर्पित किया था – ‘साहिबजान की रुह में क़ैद पाक़ीज़ा’। 7 रंग के लिए प्रताप सिंह ने साहिबजान की दास्तान को कुछ खास अंदाज़ में पेश किया है….

साहिबजान मीना कुमारी की रूह का ही कोई पोशीदा नाम है! जो आज भी… रहमताबाद के कब्रिस्तान में अपने माजी के साथ रहती है। हम उस महज़बीं बानो को ‘साहिब, बीवी और गुलाम’ से भी ज्यादा ’पाकीजा’ की नरगिस और साहिबजान के पुरनूर चेहरे की मार्फ़त याद किया करते हैं। हकीकत हों ना हों दोनों शाहकार उसी के दिल की हूक हैं!!

उसके भीतर वैसे तो कितनी कलाएं और किरदार हैं। जिन्हें बारी बारी से हम याद करते हैं। पर एक अज़ीम शाइरा अपनी ग़ज़लों में भी जि़ंन्दा है और अपने माज़ी का जिक्र गोया अपने इस यकताए फ़न में करती रही, जिसने गुलज़ार साहब को भी शायर बना दिया।

 

उस माहेकामिल की डायरी का एक टुकड़ा/एक -दो मिसरा

अब-तब जागा ही रहता है और अपनी कहानी रु-ब-रू

कहता चला जाता है…

आबला-पां इस दस्त में कोई

आया होगा…

वर्ना, आंधी में दिया किसने

जलाया होगा !!

मिल गया होगा-कोई सुनहरी

पत्थर…

अपना बीता हुआ कल, याद तो आया होगा!!

रात जलते हुए कांटों से बुझाई होगी…

रिसता पानी भी हथेली पे

सजाया होगा…”

   

(मीना कुमारी का एक रेंखाकन — प्रताप सिंह की पेंसिल से)                                                                           कमाल अमरोही

जाहिर है महज़बीं से मीना कुमारी और साहिबजान बनी इस अदाकारा की ज़िन्दगी और मौत दोनों ही उसके लिए माइल-ब-करम (दयालु/sympathetic) नहीं रही!! लिवर का कैंसर तो बहुत बाद में मौत की ख़बर बना। और जीते जी उसे कितनी बार मरना पड़ा…! फिल्मों में, उनको ज़िंदा रखने वाली एक तन्हा ज़िन्दगी में अपमान के घूंट पीकर ज़िंदा रहना भी कैसी

सजा दी, जो उसे अपनों ने दी।

महमूद उस घड़ी से बाहर निकाल ले आए। मेकअप रुम में कमाल ने चेहरे पर झन्नाटेदार आवाज़ पैदा की थी। ये अपमान भूलकर और दिलीप जो देवदास पढ़ने को दे गए थे। उसकी वजह से कितना सुनने को मिला। फिर देवदास नहीं की। अमरोही जो उनकी तीमारदारी का रूक्का पढ़ चुके थे। फिर उन्हें भी छोड़ दिया। ‘साहिब बीवी और गुलाम’ की छोटी बहू जाने कैसे साहिबजान से आन मिली और पाकीज़ा की दास्तां में महफूज़ हो गई। मुझे लगा वही इस मुल्क की ग़मगीन महान अभिनेत्री अपने आखिरी शानदार शाहकार में साहिबजान की रूह में कैद हो गई।

पाकीज़ा शायद ‘साहिब,बीवी और गुलाम’ के बाद उसको तन्हाई और भटकन से मुक्त करने की सबसे खूबसूरत सौगात है! पर वहां भी रश्क करना पड़ा! इन्हीं लोगों ने…ये अकेले अमरोही ही नहीं और भी थे। धर्मेन्द्र.. गुलज़ार तो बस यूं ही उसकी चाहतों के सफ़र में एक पड़ाव रहे। उसकी ट्रेजडी क्वीन की चाहनाओं के बुलबुले आबला पां (फफोले वाले पांव) की तरह एक -एक कर फूटते चले गए। मय ने इस नर्गिसे-बीमार को सहारा दिया।

गो, खुद में पहले से ज्यादा गफ़लत में डूबती चली गई। अपनी तकदीर के रोने की आवाज़ भी नहीं सुनी। बेगैरत दुनिया तसल्ली देती रही। आखिर में गोया साहिब, बीवी और गुलाम की छोटी बहू ने ही उसके दिल की महकती आवाज़ सुनी•••

“जब मैं मर जाऊं तो मुझे खूब सजाना और मेरी मांग सिंदूर से भर देना। इसी में मेरा मोक्ष है!”

 ( माधुरी की पुरानी फाइलों से मीना कुमारी की चंद शायरी                                                          चित्र सौजन्य – प्रताप सिंह )

पर मोक्ष कहां मिला? किसी को कभी मिलता है! अफसानानिगारी और हकीकत में एक साथ जीती रही उसी मीना कुमारी के उन पांवों को राजकुमार की नज़्जारगी में ख़त में कहा गया जमीन पर न रखिएगा मैले हो जाएंगे! ”

क्या कन्ट्रास्ट रहा होगा! उधर कमाल अमरोही पाकीज़ा बनाकर प्रायश्चित कर रहे थे। उसमें बेशक एक अनहोनी की बैचेनी भी शामिल थी। महल की फ़ंतासी से जुदा एक नायाब फ़रोग़/रूह की रौशनी। जो सबके कलेजे को चीर गई थी और सब तारीफ़ में मश्गूल थे। कमाल अमरोही को छोड़कर! उन्हें खालिद कादरी जरुर याद आ रहे थे…

“ज़िन्दगी इश्क की पाकीज़ा अमानत है

तुम इसे गर्देमलामत से बचाए रखो।”

कमाल साहब ने वही किया देर-आयद ही सही!!!

वही ऐसा कर सकते थे। क्योंकि किशोरी मीना को उसके अबोध बचपन से नवयौवन के अल्हड़पन तक सीढ़ियां पार करते हुए गुरबत के बाद कालीन पर कदम रखते हुए, धोखे और नफरतों की सौगात समेटते हुए…साथ ही उन्हें पाये जख़्मों के साथ जीने-मरते  खुद उन्होंने देखा था।

सिनेमाई-भव्यता और इतिहास की कसीदाकारी में माहिर कमाल अमरोही अपनी इस साहिबे-जान को उसी गर्दे मलामत से बचाने की दरहकीकत तस्वीर परदे पर उतार रहे थे या मीना कुमारी के साथ इस ज़माने के हाथों हुई ज्यादतियों का प्रायश्चित कर रहे थे? पाकीज़ा उसी मीना की

दर्दोग़म से लबरेज रही हयात के चटकने की आखिरी आवाज़ है। उसे पार्श्व गायिका का खिताब नहीं मिला,जो वह थी,पर उसके गुलू (कंठ) में तो दर्द की लकीरें खींच दी गई थीं।

बावजूद इसके उसने अपनी तकदीर को हॅ॑सकर टाल दिया। ज़माना आज उनकी बरसी पर पाकीजा से कहीं पहले और भी शहतीरों को कैसे भूल सकता है जो सलीब की तरह जिस्म और उनकी आत्मा से कभी जुदा नहीं हुईं।  लैदरफेस की बेबी महज़बीं  बैजू बावरा, दायरा, परिणीता, मिस मैरी, शारदा, सहारा, यहूदी, सवेरा, चार दिल चार राहें, दिल अपना और प्रीत पराई, दिल एक मंदिर, भाभी की चूड़ियां, कोहेनूर, आजाद के बाद मंझली दीदी के साथ ही अगले दशकों की बेहतरीन फिल्मों में भी अपनी प्रतिभा काजल, फूल और पत्थर में झलका गई। चित्रलेखा के बाद फणी मजूमदार, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार की फिल्म में नज़र आईं। प्रसाद, बिमल राय, अबरार अल्वी और ख्वाजा अहमद अब्बास, एस.यू.सनी, देवेंद्र गोयल से सावन कुमार टाक की फिल्म में अचानक विदाई की रील चलने लगी। कोई री टेक नहीं। मीठावाला चाल में १ अगस्त १९३३ को पैदा हुई मीना को कोई मनाज़िर अपना याद नहीं रहा। उस माहज़बीं की मराहिलें आज तक खत्म नहीं हुई हैं। १९७२ की ३१ मार्च तो उन्हें सलीके से फ़क़त याद रखने की एक रस्म है। “मेरे अपने” और “गोमती के किनारे” भी लम्हा-लम्हा एक उदास जंगल में झांक रही जलती सी आंखों का फ़रोज़ा है! मैं उन्हें तमाम किरदारों के संग (परकाया-प्रवेश में…) करीब से… उनके ही इस शेर में सजते-संवरते और गुजरते देख रहा हूं***

“सारे चेहरे जमा हैं माज़ी के

मौत क्या दुल्हनों की सूरत है

शायद यह भी उनके अफ़साने का आखिरी सफ़ा न हो ! जो कतरा- कतरा मुश्किल दिन हिम्मत से बीत गई हो और धज्जी -धज्जी रात उड़ा कर, पुरकशिश- अंधेरों का भी पथ-प्रदर्शन करती रही हो, ऐसी पैगाम्बरी के पुर-अश्क संभाल कर रखिएगा!

आमीन

🪶 प्रताप सिंह

31 मार्च,2021

Posted Date:

March 31, 2021

2:38 pm Tags: , , , , , , , ,
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