बतौर रंग निर्देशक विनय शर्मा की पहचान राष्ट्रीय रही है। विनय लंबे अरसे से कोलकाता में रंगमंच पर सक्रिय हैं और श्यामानंद जालान ने उन्हें अपनी रंगसंस्था `पदातिक’ से जोड़ा। वे निर्देशन के अलावा लेखन और अभिनय में भी अपनी अच्छी पहचान बना चुके हैं। वे एक बेहतरीन अभिनेता हैं इसकी मिसाल दिल्ली के दर्शकों को तब मिली जब पिछले हफ्ते अक्षरा थिएटर में `हो सकता है दो आदमी दो कुर्सियां’ का मंचन हुआ। ये विनय शर्मा का ही लिखा दो पात्रों का नाटक है और इसमें एक अभिनेता वे खुद हैं और दूसरे हैं अशोक सिंह। अशोक सिंह भी कोलकाता के चर्चित अभिनेता हैं। निर्देशन भी विनय शर्मा का ही है।
नाटक का नाम बेशक कुछ उलझा हुआ सा है लेकिन `हो सकता है दो आदमी दो कुर्सियां’ में जो दो पात्र हैं उनका कोई नाम नहीं है। ये दोनों बारी बारी से कुछ कहानियां सुनाते हैं। ये संपूर्ण कहानियां नहीं है जैसा दास्तानगोई वाले करते हैं। ये कहानियां छोटी हैं और आम लोगों की हैं। इनमें परिवार का तनाव या संकट भी है और किसी टैक्सी चलाने वाले की जिदगी का छोटा सा अध्याय भी। कह सकते हैं कि कहानियों में अमूर्तन की खोज भी की गई हैं। रंगमंच मूर्त माध्यम है लेकिन क्या यहां भी अमूर्तन का अनुभव कराया जा सकता है? अर्थात क्या रंगमंच पर उन एहसासों को पेश किया जा सकता है जो महसूस तो होते हैं पर जिनका कोई लंबा जीवन नहीं होता है। विनय शर्मा का ये नाटक इस सवाल का जवाब हां में देता है। इसलिए ये नाटक देखकर निकलने के बाद दर्शक के मन में कोई एक पूरी कहानी नहीं होती। होते हैं तो तरह तरह के सघन और आवेगपूर्ण भावनापूर्ण संचयन जो कई कहानियों के टुकड़ों से बनते हैं। असल में जब हम कोई लंबी कहानी सुनते या पढ़ते हैं तो उसका पूरा आख्यान हमें प्रभावित करता है। लेकिन ऐसे मे ये बात कहीं छुप जाती है कि लंबे आख्यानों में कुछ ऐसे हिस्से होते हैं जो अपने आप में संपूर्ण होते हैं। विनय ने इसमें उन अंशों को रेखांकित किया है।
दूसरी बड़ी बात ये है कि इस नाटक में मंच सज्जा या प्रकाश योजना नाम की कोई चीज नहीं है। प्रॉपर्टी के नाम पर सिर्फ दो तत्व हैं। एक तो दो कुर्सियां जिन पर दोनों अभिनेता बैठते हैं, अगर बैठने की जरूरत हो तो। दूसरा वो स्टैंड जिसमें धातु के कुछ टुकडे लगे हैं और जिन्हें छूकर या उन पर चोट कर उनका घंटियों की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। पर जिनकी असल उपयोगिता ये है कि इनको बजाकर दोनों अभिनेता अपनी बारी आने का संकेत करते हैं। पूरा नाटक दोनों अभिनेताओं के कहानी सुनाने पर आधारित है। यानी ये न्यूनतम का नाटक है। अभिनय भी न्यूनतम, दूसरी रंगमंचीय प्रविधियां भी न्यूनतम। लेकिन इन न्यूनतमों से महत्तम साकार होता है। दो अभिनेताओं द्वारा उच्चरित शब्द ही उस लोक को निर्मित करते हैं जिसमें पूरा रंग अनुभव बसा हुआ है। ये नाटक कहीं भी हो सकता है- किसी कमरे में, खुले में, एक बल्ब से आनेवाली बिजली की रोशनी में या लालटेन से निकलनेवाले प्रकाश में। ये नाटक गांव में भी सकता है और किसी महानगर में भी। बस सिर्फ तैयार और प्रशिक्षित अभिनेता चाहिए।
विनय शर्मा की अपनी पहचान इस रूप में है कि उनके भीतर जो कई प्रकार की रंगमंचीय प्रतिभाओं का समिश्रण है। वे समकालीन भारतीय रंगमंच के एक ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व हैं जिनके पास वैश्विक रंगदृष्टि भी है और भारतीय रंगपंरपरा का बोध भी। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चा कम होती है क्योंकि वे मीडिया में कम रहते हैं। लेकिन युवा रंगकर्मी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अभिनय भी, लेखन भी और निर्देशन भी। और, हां, नाट्य लेखन भी।
Posted Date:August 1, 2019
3:37 pm Tags: रवीन्द्र त्रिपाठी, विनय शर्मा, दो आदमी दो कुर्सियां, अक्षरा थिएटर, निर्देशक अभिनेता विनय शर्मा, अभिनेता अशोक सिंह