किशोरी अमोनकर को याद करते हुए…
किशोरी अमोनकर (10 अप्रैल 1931-3 अप्रैल 2017)

शास्त्रीय गायन में उनकी आवाज़, किसी राग के भीतर तक उतर जाने और श्रोताओं को एक नई दुनिया में ले जाने की उनकी कला का जवाब नहीं था। किशोरी अमोनकर अगर आज होतीं तो 89 बरस की हो रही होतीं… 10 अप्रैल 1931 को मुंबई में जन्मीं किशोरी अमोनकर तीन साल पहले हमसे रुखसत हो गईं… लेकिन उन्होंने शास्त्रीय संगीत को जो ऊंचाई दी, वह हर शास्त्रीय संगीतप्रेमी के लिए एक अद्भुत एहसास से गुजरने जैसा है… आज तकनीकी क्रांति के इस दौर में किसी भी महान गायक या गायिका को आप कभी भी सुन सकते हैं.. लेकिन जिन लोगों ने उन्हें देखा, सुना और उनकी गायिकी को महसूस किया उनके अनुभवों को पढ़ना सुनना भी कम खास नहीं है… जाने माने पत्रकार, लेखक और कवि कुलदीप कुमार ने तीन साल पहले ‘द वायर ‘ के लिए किशोरी अमोनकर पर जो लिखा, वह आपको भी पढ़ना चाहिए। 7 रंग के लिए किशोरी अमोनकर के जन्मदिन पर ये खास पेशकश….

कुलदीप कुमार

आने वाली नस्लें हम पर रश्क करेंगी कि हमने किशोरी अमोनकर को देखा था

अमोनकर में एक ख़ास कैफ़ियत थी, जिसे समझाया नहीं जा सकता. इसे हम करिश्मा कहते हैं. आप इसे महसूस तो कर सकते हैं, लेकिन इसे समझ या समझा नहीं सकते.

प्रख्यात शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोनकर का पहला कंसर्ट सुनने का मौक़ा मुझे 1974 में नई दिल्ली के कमानी सभागार में मिला था. उससे पहले मैंने 1971 में आया उनका एक एलपी रिकॉर्ड सुना था. इसके एक तरफ़ राग बागेश्री था, दूसरी तरफ़ राग भूप था. शास्त्रीय संगीत में मेरी गहरी रुचि थी लेकिन मैं इसकी बारीकियों को नहीं समझ पाता था. रागों के गठन का पता लगाना या दो घरानों के बीच अंतर करना मुझे नहीं आता था. इस एलपी को सुनना मेरे लिए एक ख़ास अनुभव था. मुझे उसी क्षण संगीत से प्रेम हो गया. अमोनकर को पहली बार लाइव सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया था. उनमें एक ख़ास कैफ़ियत थी, जिसे समझाया नहीं जा सकता. इसे हम करिश्मा कहते हैं. आप इसे महसूस तो कर सकते हैं, लेकिन इसे समझ या समझा नहीं सकते.

उसके बाद मैंने किशोरी अमोनकर को दर्ज़नों बार सुना, लेकिन मुझे कभी निराश नहीं होना पड़ा. यह सही है कि उनके पेशेवर गायन के आख़िरी दशक में उम्र का प्रभाव उन पर दिखने लगा था, लेकिन फिर भी कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनकी किसी प्रस्तुति में जगमगाते हुए वक़्फ़े न आए हों. अगर क्रिकेट की भाषा में कहें तो इसका कारण यह था कि फॉर्म अस्थायी होता है, लेकिन क्लास स्थायी.

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बाबुल मोरा नइहर छूटो जाए…..

अमोनकर सच्चे अर्थों में नई लीक तैयार करने वालों में थीं. संगीत के परिदृश्य पर जब उन्होंने दस्तक दी, तब तक उनके जयपुर अतरौली घराने से केसरबाई केरकर, मोगुबाई कुरदीकर (किशोरी अमोनकर की मां), लक्ष्मीबाई जाधव और मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे कई दिग्गज सामने आ चुके थे. इस घराने की शैली का आविष्कार अल्लादिया ख़ान ने किया था. उनके बेटे मांजी ख़ान एक शानदार गायक थे. वे तीन साल तक मल्लिकार्जुन मंसूर के उस्ताद भी रहे, मगर कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई. उनके दूसरे बेटे भूर्जी खान ने अपना जीवन योग्य छात्रों को घराना संगीत का प्रशिक्षण देने के लिए समर्पित कर दिया. उन्होंने ज़्यादा प्रस्तुतियां नहीं दीं.

कंसर्ट के मंच पर घराना परंपरा को आगे बढ़ाने का काम केसरबाई केरकर ने किया, जिन्हें अपने करियर के उरूज पर श्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायकों में गिना जाता था. जब उन्हें लगा कि उनका सर्वोत्तम पीछे छूट गया है, तब उन्होंने कंसर्ट के मंच को अलविदा कह दिया. ऐसा करके उन्होंने एक नज़ीर पेश की थी. केसरबाई केरकर भले ही कंसर्टों की मल्लिका रही हों, लेकिन ये भी सच है कि एक शीर्ष गायिका के तौर पर कुरदीकर की भी काफी प्रतिष्ठा थी. लेकिन, उन्हें हमेशा अपने परिवार का भरण-पोषण के लिए संघर्ष करना पड़ा और अक्सर आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा. ये बात अमोनकर जीवनभर भुला नहीं पाईं.

कभी-कभी जयपुर-अतरौली घराने की आलोचना ग़ैरज़रूरी ढंग से बुद्धिजीवी होने और भावनात्मक आकर्षण की कमी के कारण की जाती थी. अमोनकर ने किराना शैली से प्रभाव ग्रहण करते हुए इसकी बढ़त (स्वर दर स्वर राग का विस्तार) को अपनी गायकी की शैली में ढाला. इस तरह उन्होंने संगीत के भावनात्मक आयाम पर कहीं ज़्यादा ज़ोर दिया. उन्होंने रागों के मूल भाव (मूड) को लेकर अपनी समझदारी विकसित की और इसे अपने गायन के द्वारा व्यक्त करने की कोशिश की.

और ऐसा करते हुए उन्होंने अपने घराना के मूलभूत सिद्धांतों में कोई बदलाव नहीं किया और उसकी गायकी की विशेषताओं को बनाए रखा. यही कारण है कि उनकी कभी यह कहकर आलोचना नहीं की गई कि उन्होंने अपने घराना की परंपराओं के साथ विश्वासघात किया है. यहां यह याद किया जा सकता है कि भीमसेन जोशी ने भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश की थी, हालांकि उनकी यात्रा बिल्कुल विपरीत दिशा में थी.

किराना घराना से संबंध रखने वाले भीमसेन जोशी ने लय को थोड़ा ज़्यादा तेज़ करने की कोशिश की. इसके लिए उन्होंने केरकर की तानों का अनुकरण किया और इस तरह वे जयपुर-अतरौली घराने की शैली की ओर झुक गए. एक तरफ कृष्णराव शंकर और मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे शास्त्रीय शुद्धतावादियों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वे सिर्फ़ रागों को गाते हैं और अभिव्यक्ति का माध्यम भर हैं, तो दूसरी तरफ़ कुमार गंधर्व और अमोनकर जैसे स्वच्छंदतावादियों को यक़ीन था कि वे रागों के द्वारा ख़ुद को व्यक्त करते हैं और राग उनकी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है.

इस रोमांटिक सोच ने भावनात्मक कथ्य पर काफी ज़्यादा ज़ोर दिया. यही कारण है कि वर्तमान समय के श्रोताओं के बीच इसका ज़्यादा आकर्षण दिखता है. संगीत सीखा जा सकता है, लेकिन कोई भी गुरु रचनात्मकता और कल्पनाशीलता का दान नहीं दे सकता. इसलिए कई बार हम तकनीकी रूप से बगैर किसी नुस्ख वाली, मगर संगीत के स्तर पर बंजर प्रस्तुतियां सुनते हैं.

इस लिहाज से अमोनकर अपने समकालीनों से कई मील आगे थीं. उन्होंने अपने घराने के साथ-साथ दूसरे घरानों की भी पूरी तालीम हासिल की थी. वे भिंडी बाजार की देवी अनजानी बाई मालपेकर की भी शागिर्द रहीं. अमोनकर के यहां जो आह्लादकारी मींड़ (संगीत में किसी भी स्वर से आवाज़ को तोड़े बगैर दूसरे स्वर तक घसीटते हुए ले जाने की क्रिया को मींड़ कहते हैं) है, वह मालपेकर की ही देन है.

अमोनकर के पास ज़बरदस्त कल्पनाशक्ति थी जिसने उन्हें रागों के भीतर गहरे तक उतरने और इसके अब तक छिपे हुए और अंधेरे कोनों को सामने लाने में मदद की. उनकी आवाज़ की उठान, गीत के शब्दों का सुंदर शैली में उच्चारण और उसके साहित्यिक और सांगीतिक अर्थों की व्याख्या, ये सब उनकी पूर्ण प्रस्तुतियों में, जहां उनकी कल्पनाशीलता बंदिशों के पार चली जाती थी और श्रोता को पूरी तरह विस्मित अवस्था में छोड़ देती थी.

जब वे अच्छे मूड में होती थीं, तब उनकी प्रस्तुति लोगों पर जादू-सा असर करती थी, जिसका प्रभाव हफ़्तों तक बना रहता था. यह भी एक कारण था कि उनके आग जैसे ग़ुस्से और ग़ैरज़रूरी नखरों के बावजूद उनके प्रशंसकों ने उनका साथ नहीं छोड़ा. संगीत के मशहूर विद्वान हरि देशपांडे, जिन्होंने कुरदीकर और अमोनकर दोनों से तालीम हासिल की है, ने लिखा है कि जब उनके लोकप्रिय गाने ‘गीत गाया पत्थरों ने’ (वी. शांताराम की इसी नाम की फिल्म में) के रिकार्ड अचानक संगीत के दुकानों से गायब हो गए तो वे बेहद नाराज़ हुई थीं. हालांकि, देशपांडे ने अमोनकर के हवाले से लिखा है कि इस अनुभव से वे ख़ुश ही हुई थीं, क्योंकि वे किसी भी सूरत में फिल्म संगीत में टिकने वाली नहीं थीं. लेकिन, यह एक तथ्य है कि उन्होंने इसके बाद लता मंगेशकर को कभी माफ़ नहीं किया.

उनको इस बात का शक था कि हिंदी फिल्म संगीत की साम्राज्ञी इस सबके पीछे थीं. यह अलग बात है कि यह साबित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं था. कुछ भी हो, हम आज जब इस गाने को सुनते हैं, तो महसूस करते हैं कि इस गाने में कुछ भी महान या असाधारण नहीं था और यह भला हुआ कि हिंदी फिल्म संगीत के साथ अमोनकर के प्रेम-प्रसंग की उम्र ज़्यादा नहीं रही. अमोनकर के घनघोर प्रशंसक देशपांडे ने उनके अस्थिर स्वभाव का वर्णन अपनी किताब ‘बिटविन टू तानपुराज़’ में अमोनकर को समर्पित अध्याय में किया है.

वे लिखते हैं, ‘किसी प्रस्तुति के लिए देरी से आना और तानपुरा को सुर में लगाने (ट्यून करने) में ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त लगाना उनकी आदत बन गया है. अगर कोई इंटरवल में उनसे मिलने जाता तो वे हमेशा अंग्रेज़ी में बात करतीं. एक बार जब मैं और प्रोफेसर देवधर इंटरवल के दौरान उन्हें उनकी प्रस्तुति के लिए बधाई देने के लिए गए तो उन्होंने प्रो. देवधर की अनदेखी की. एक बार जब रिज़र्व बैंक के एक स्टाफ ने पूर्व वित्त मंत्री डॉ. सीडी देशमुख के लिए एक प्रस्तुति रखी, तो वे मुख्य अतिथि को आधे घंटे तक इंतज़ार करवाने के बाद आईं.’

मैं भी दिल्ली में कई ऐसी कई घटनाओं का गवाह रहा हूं, लेकिन एक घटना मेरी स्मृति में दर्ज होकर रह गई है. घटना भोपाल भवन की है. वहां 15-17 सितंबर, 1995 के बीच ‘जयपुरी घराना की गायकी और किशोरी अमोनकर का इसमें योगदान’ विषय पर एक तीन दिवसीय सेमिनार सह प्रस्तुतियों का आयोजन किया गया था.

इस दौरान किशोरी अमोनकर और श्रीकृष्ण बाबनराव हाल्दानकर के बीच सार्वजनिक तौर पर तीखी कहा-सुनी हो गई थी. अमोनकर पुणे के संगीतविद् श्रीरंग संगोराम के साथ मंच पर बैठी थीं, जो उनसे जयपुर गायकी के बारे में सवाल पूछ रहे थे. श्रोताओं को भी अमोनकर से सवाल पूछने की इजाज़त थी.

इसी दरमियान बाबूराव, जिन्होंने कुछ समय पहले जयपुर घराने पर एक आलोचनात्मक पर्चा लिखा था, ने उनसे बसंती केदार में गांधार के उपयोग के ख़ास तरीक़े के बारे में सवाल पूछ लिया.

उन्होंने पहले अमोनकर की मां मोगुबाई अमोनकर से तालीम हासिल की थी. बाद में वे आगरा घराना के उस्ताद ख़ादिम हुसैन ख़ान की शागिर्दी मे चले गए थे. इस तरह उन्होंने आगरा घराना को जयपुर घराने के ऊपर तवज्जो दी थी.

बाबूराव के सवाल से अमोनकर आग बबूला हो गईं. मंच से चीखते हुए उन्होंने कहा, ‘बाबूराव जी, आप मुझे जानते हैं. मैं एक स्वाभाविक योद्धा हूं. आप मुझसे बसंती केदार के बारे में पूछ रहे हैं! आप यहां आइए और मेरे साथ गाइए. मैं आपको दिखाऊंगी गांधार का प्रयोग कैसे किया जाता है. आप हमारे घराने का अनादर करते हैं. आपने अपने पर्चे में केसरबाई के आगे सुरश्री लगाया, लेकिन मेरी मां के नाम के आगे आपने गान-तपस्विनी नहीं लगाया.’

अमोनकर इसी लहजे में कुछ और मिनटों तक बोलती रहीं, जिसने बाबनराव और बाक़ी श्रोताओं को अवाक कर दिया.

अमोनकर को दैवीय उपस्थिति का गहरा इल्म था और उनका संगीत भी इस तरफ झुकता गया. यह बात बहुत लोगों को मालूम नहीं होगी कि कई वर्षों तक उन्होंने अपनी आवाज़ पूरी तरह से गंवा दी थी और वे एक भी स्वर नहीं गा पाती थीं.

तब एक आध्यात्मिक गुरु ने उन्हें इस रोग से बाहर निकाला. इस अनुभव ने अमोनकर को अध्यात्म और धर्म की तरफ़ मोड़ा. इसके बाद उनका संगीत आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से ज़्यादा दैवीय को संबोधित करने की कोशिश बन गया.

उन्होंने संगीत को ईश्वर के सामने चढ़ावे के तौर पर बरता. वे प्राचीन रस-सिद्धांत के भी नज़दीक होती गईं और रागों को ख़ास रसों के साथ जोड़ने लगीं. जब वे गाती थीं तो वे उस विशिष्ट रस का आह्वान करने की कोशिश करती थीं. यह उनके संगीत को मनोहारी बनाता था और गायन के सौंदर्य को बढ़ाता था.

उनकी उपस्थिति इतनी रोबदार थी कि उनके बाद आने वाली बहुत कम गायिकाएं ऐसी थीं, जो उनके प्रभाव से बच पाई हों. कई वर्षों तक ऐसी गायिका की खोज करना मुश्किल था, जिसका गायन किसी न किसी रूप में अमोनकर की शैली से न मिलता हो. अपने जीवन काल में बहुत कम संगीतज्ञ ऐसा प्रभाव कायम करने में कामयाब हुए होंगे.

फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने एक प्रसिद्ध शेर में कहा है कि ‘आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअसरो, जब उनको ये ध्यान आएगा तुमने फ़िराक़ को देखा था.’ ये बात हम अपने लिए कह सकते हैं आने वाली नस्लें हम पर रश्क करेंगी कि हमने अमोनकर को देखा ही नहीं, उन्हें सुना भी था.

(‘द वायर’ से साभार )

Posted Date:

April 10, 2020

1:04 pm Tags: , , , , , , , , , ,
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