एक लेखक के कितने आयाम हो सकते हैं, समाजवाद और इंसानियत के प्रति उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता किस हद तक हो सकती है ये समझने के लिए हमें ख्वाज़ा अहमद अब्बास की ज़िंदगी को करीब से देखना चाहिए। आज़ादी के आंदोलन के दौरान ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने इप्टा से जुड़कर तमाम इंकलाबी और तरक्कीपसंद हस्तियों के साथ तो काम किया ही, अपने लेखन को बचपन से जिंदगी के आखिरी दिनों तक बदस्तूर जारी रखा। एक पत्रकार के तौर पर अब्बास साहब ने जो किया उससे आज के दौर के पत्रकारों को सीखना चाहिए, एक लेखक के तौर पर उन्होंने 70 से ज्यादा किताबें लिखीं और एक फिल्मकार के तौर पर ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने 35 से ज्यादा बेहतरीन फिल्में दीं। उनके सफ़रनामे पर लेखक ज़ाहिद खान ने अपने लेखों में विस्तार से बताया है और हाल ही में 1 जून को उनकी पुण्यतिथि के दौरान जाहिद खान के ये आलेख तमाम अखबारों और न्यूज़ पोर्टल में छपे। दरअसल इस लेख में जाहिद ने अब्बास की जिंदगी के हर पहलू को पकड़ने और उनके भीतर के समाजवादी सोच को पकड़ने की कोशिश की है। 7 रंग के पाठकों के लिए ख्वाज़ा अहमद अब्बास के जन्मदिन पर ये लेख हमने ‘जनचौक’ से साभार लिया है।
1939 की बात है. भारतीय सिनेमा की नींव के पत्थर की हैसियत रखने वाले वी. शांताराम एक फिल्म बना रहे थे. फिल्म का नाम था ‘आदमी’. फिल्म बन तो गई थी, लेकिन रिलीज़ होने में कुछ अडचनें आ रही थीं. रिलीज़ की डेट कई बार आगे खिसकाई जा चुकी थी. ऐसे में एक फिल्म क्रिटिक ने तंज कसा. कहा कि शायद शांताराम का आदमी पुणे से चल कर मुंबई आ रहा है. और लगता है रास्ते में थक कर किसी पेड़ के नीचे सो गया है. वी. शांताराम को ये तंज चुभ गया. जब फिल्म रिलीज़ हुई, तो उस क्रिटिक को उसका पास नहीं भेजा गया. लेकिन वो आदमी भी अपनी तरह का एक ही था. उसने अपने पल्ले से पैसे खर्च कर के 18 बार ये फिल्म देखी. बाद में फिल्म की तारीफ में 7 कॉलम का लंबा लेख लिखा.
वो आदमी था ख्वाजा अहमद अब्बास. वो शख्स जो पहले पहल एक पत्रकार था. फिर लेखक बना. फिर संपादक. फिर फिल्म समीक्षक. उसके बाद फिल्म लेखन में भी हाथ आज़माया. आखिर में फिल्म डायरेक्शन का ज़िम्मा भी संभाला. सामाजिक सरोकारों के लिए हमेशा जागृत इस शख्स की मौत 1 जून 1987 को हुई थी.
विरासत ऐसी कि रश्क़ आ जाए
ख्वाजा अहमद अब्बास एक ऐसे परिवार में पैदा हुए, जहां नामचीन हस्तियों का बोलबाला था. वो शानदार शायर ‘ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली’ के खानदान से थे, जो मिर्ज़ा ग़ालिब के शागिर्द थे. जिन्होंने ग़ालिब की जीवनी ‘यादगार ए ग़ालिब’ भी लिखी और कुछ जानदार शेर भी. जैसे,
“फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना
मगर इसमें लगती है मेहनत ज़ियादा”
ख्वाजा अहमद अब्बास के दादा ख्वाजा गुलाम अब्बास 1857 के विद्रोह में शामिल प्रमुख क्रांतिकारियों में से एक थे. उन्हें अंग्रेजों ने तोप से बांध कर उड़ा दिया था. अगर उनके शज़रे को फॉलो किया जाए तो वो अय्यूब अंसारी तक जा मिलता है, जो पैगंबर मुहम्मद के साथी थे.
पत्रकारिता में ऐसे झंडे गाड़े कि आज तक रिकॉर्ड न टूटा
1933 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने के बाद उन्होंने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अख़बार ‘नेशनल सेल’ के लिए पत्रकारिता शुरू की. अगले साल उन्होंने ‘अलीगढ़ ओपिनियन’ नाम से एक वीकली मैगज़ीन निकालना शुरू किया, जो कि भारत की पहली यूनिवर्सिटी छात्रों की मैगज़ीन थी. उससे अगले साल उन्होंने प्रसिद्ध अंग्रेज़ी अखबार ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ जॉइन कर लिया.
इसी अखबार के लिए उन्होंने ‘लास्ट पेज’ नाम से एक वीकली कॉलम लिखना शुरू किया. आगे जब वो ‘ब्लिट्ज मैगज़ीन’ में गए, तब भी इस कॉलम को लिखना जारी रखा. ये कॉलम 1987 में उनकी मौत तक पब्लिश होता रहा. लगातार 52 सालों तक. भारत के प्रिंट मीडिया के इतिहास में ये सबसे ज़्यादा चलने वाला कॉलम है. कोई इसके आसपास भी नहीं है. ये कॉलम उर्दू में ‘आज़ाद कलम’ और हिंदी में ‘आख़िरी पन्ने’ के नाम से प्रकाशित होता था.
‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में ख्वाजा अहमद अब्बास फिल्मों की समीक्षाएं लिखा करते थे. और इतनी मारक कि लोगों को पसंद आने लगी. उनकी लिखी समीक्षा से फ़िल्में हिट और फ्लॉप होने लगीं. एक बार एक पार्टी में उस ज़माने के मशहूर
प्रोड्यूसर और बॉम्बे टॉकीज़ के मालिक हिमांशु राय ने उन्हें ताना मार दिया. कहा, “फिल्म को देख कर उसमें नुक्स निकालना आसान है. फिल्म खुद बनाओ तो जानें.”
ये बात ख्वाजा अहमद अब्बास के दिल पर लगी. वो फिल्म की दुनिया में आ गए. फ़िल्में लिखना शुरू किया. अपनी पहली पटकथा ‘नया संसार’ उन्होंने बॉम्बे टॉकीज़ को ही बेची. अशोक कुमार और देविका रानी इस फिल्म में लीड रोल में थे. कहानी एक पत्रकार की ज़िंदगी पर ही थी. फिल्म ने सिल्वर जुबली मनाई. इसके बाद उन्हें और फ़िल्में लिखने का ऑफर मिलने लगा.
‘नया संसार’ के बाद ख्वाजा अहमद अब्बास ने तीन फ़िल्में और लिखीं. लेकिन जब वो परदे पर आईं, तो वह दंग रह गए. कहानी के कुछ हिस्सों को छोड़ कर सब कुछ बदला हुआ था. उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ. शिकायत करने पर उन्हें टका सा जवाब मिला. कहा गया कि कहानी के साथ न्याय चाहते हो, तो खुद डायरेक्ट कर लो फ़िल्में. चुनौतियों से भागना तो उनको आता ही नहीं था. कबूल लिया ये चैलेंज भी. अपनी ही कहानी पर एक फिल्म बनाई. ‘धरती के लाल’. साल था 1945.
‘धरती के लाल’ बंगाल में पड़े अकाल पर आधारित फिल्म थी. ये वही फिल्म थी जिसने भारत में उन फिल्मों की राह बनाई, जिन्हें बाद में ‘आर्ट सिनेमा’ के नाम से जाना जाने लगा. ख़याली दुनिया को दरकिनार कर यथार्थ की कठोर ज़मीन की बात करने वाला सिनेमा.
अब सदी के महानायक कहलाने वाले अमिताभ बच्चन को जब हिंदी सिनेमा दुत्कार रहा था, उस वक़्त ख्वाजा अहमद अब्बास ने उन्हें मौक़ा दिया. अपनी फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ में. पुर्तगालियों से गोवा को आज़ाद कराने के लिए जूझते सात क्रांतिकारियों की इस कहानी से अमिताभ ने सिल्वर स्क्रीन पर कदम रखा था. अमिताभ ने ख्वाजा साहब के दिए इस मौके को एहसान माना, उसे याद रखा और आगे इसको चुकाने की कोशिश भी की.
ख्वाजा अहमद अब्बास का नाम हिंदी सिनेमा के इतिहास में थोड़ा उपेक्षित सा ही है. बावजूद बेहतरीन फ़िल्में देने के उन्हें उतना सम्मान कभी नहीं मिला, जितने के वो हक़दार थे. उनकी बनाई हर फिल्म किसी न किसी सामाजिक मुद्दे को छू रही होती थी. उन्हें समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का सदा एहसास रहा. उन्होंने गरीबी, छुआ-छूत, सांप्रदायिकता, सामाजिक असमानता जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द कहानियां लिखी और उन्हें परदे पर उतारा.
‘राही’ फिल्म में चाय बागानों के मजदूरों की आपबीती हो या ‘बम्बई रात की बाहों में’ फिल्म में दिखाई बड़े शहरों की रात की ज़िंदगी का सियाह पहलू. या फिर ‘शहर और सपना’ में फुटपाथ पर ज़िंदगी बिताने वाले लोगों की व्यथा. या नक्सल समस्या पर ‘द नक्सलाइट्स ’ जैसी फिल्म. उन्होंने अपने सामाजिक दायित्व का ख़याल हमेशा रखा. उनकी फिल्मों को समीक्षकों ने डाक्यूमेंट्री कह के नकार दिया, लेकिन वो अपना काम करते रहे.
ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने अलावा अगर किसी और के लिए सबसे ज़्यादा फ़िल्में लिखीं, तो वो शोमैन राज कपूर थे. 1951 में ‘आवारा’ से ये जुगलबंदी शुरू हुई. जिसने ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘बॉबी’ जैसी सफल फ़िल्में दी. राज कपूर की मौत तक ये साथ जारी रहा.
इन दोनों की दोस्ती का एक किस्सा बड़ा मशहूर है. ‘मेरा नाम जोकर’ जब बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गई, तो राज कपूर कंगाल हो गए. उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास से रिक्वेस्ट की कि वो उनके लिए एक मसाला फिल्म लिखें. अपने दोस्त की मदद करने के लिए उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता किया और किशोरों के रोमांस पर आधारित ‘बॉबी’ लिखी. फिल्म सुपरहिट रही.
हालांकि ‘बॉबी’ में भी वो अपना टच ले ही आए थे. तमाम चमक-दमक के बावजूद ‘बॉबी’ में सामाजिक वर्गभेद और अंतरजातीय विवाह जैसे मुद्दों को छुआ गया था.
ख्वाजा अहमद अब्बास बेहद खुद्दार आदमी थे. उन्हें किसी से मदद लेना गवारा नहीं था. किस्सा तब का है जब वो ‘दो बूंद पानी’ नाम की फिल्म बना रहे थे. पैसे की भारी किल्लत हुई. रॉ स्टॉक तक के पैसे नहीं थे. फिल्म का काम ठप्प हो गया.
ख़बर फैली तो अमिताभ तक जा पहुंची. अमिताभ जानते थे कि वो सीधे मदद तो लेंगे नहीं. उन्होंने किसी बहाने से अपने भाई अजिताभ को उनके यहां भेजा. अजिताभ कुछ देर तक उनसे बातें करने के बाद लौट गए. बाद में अब्बास साहब ने देखा कि वो एक पैकेट भूल गए हैं. माजरा तत्काल उनकी समझ में आ गया. खैर.
फिल्म का काम शुरू हुआ. फिल्म बन गई. रिलीज़ भी हो गई. उसके बाद एक सुहाने दिन अब्बास साहब टहलते हुए अमिताभ के यहां पहुंचे और एक पैकेट भूल आए.
सिनेमा के साथ साहित्य को भी समृद्ध किया
सार्थक फ़िल्में बनाने के अलावा अब्बास साहब ने करीब 73 किताबें लिखी. अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में. उर्दू साहित्य में तो उनको बहुत आला मकाम हासिल है. उनकी आत्मकथा ‘आई एम नॉट ऐन आइलैंड’ को बायोग्राफी में एक प्रयोग माना गया. उनके मशहूर कॉलम को बाद में किताबों की शक्ल में प्रकाशित किया गया. दो वॉल्यूम में. उनका एक उपन्यास ‘इंकलाब’ तो सांप्रदायिक हिंसा पर लिखे बेहतरीन उपन्यासों में से एक माना जाता है.
अपने आख़िरी दिनों तक वो काम करते रहे. जब उनको तीसरा और आख़िरी हार्ट अटैक आया, वो अपनी फिल्म ‘एक आदमी’ की डबिंग का काम कर रहे थे. ख्वाजा अहमद अब्बास उन चुनिंदा लोगों में से एक थे, जिन्होंने जिस चीज़ में हाथ डाला उसे सोना कर दिया. चाहे पत्रकारिता हो, स्तंभ लेखन हो, कहानी लेखन हो या फिल्म निर्देशन. उनका बेहतरीन काम एक अनमोल विरासत है हम सबके लिए.
(जनचौक से साभार)
Posted Date:June 7, 2020
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