चाहे खेल हो, संस्कृति हो, परंपराएं हों या फिर इतिहास के पन्नों में बिखरी ढेर सारी जानकारियां वरिष्ठ पत्रकार संजय श्रीवास्तव बहुत बारीकी से उनपर नज़र डालते हैं। इन दिनों अपने फेसबुक वॉल पर कायस्थों के खान-पान पर अपनी शोधपरक और दिलचस्प जानकारियों के साथ कुछ कड़ियां लिख रहे हैं। हालांकि अब कायस्थ के तमाम परिवार इन परंपरागत खान पान से दूर हो चुके हैं लेकिन इन्हें पढ़ना और उन ज़ायकों की कल्पना करना भी कम दिलचस्प नहीं है। टीवी के तमाम कुकरी शोज में आप कई तरह के खान पान के तौर तरीके देखते ही हैं, लेकिन ज़रा इन कड़ियों को पढ़िए, बेशक आनंद आएगा… ‘7 रंग’ पर संजय श्रीवास्तव की सहमति से ये कड़ियां एक एक कर पेश हैं…
बनारस के अर्दली बाजार में काफी बड़ी संख्या में कायस्थ रहते हैं. अगर आप रविवार को यहां के मोहल्लों से दोपहर में निकलें तो हर घर के बाहर आती खाने की गंघ बता देगी कि अंदर क्या पक रहा है. ये हालत पूर्वी उत्तर प्रदेश के तकरीबन उन सभी जगहों की है, जहां कायस्थ अच्छी खासी तादाद में रहते हैं. बात कुछ पुरानी है. अर्दली बाजार में कजिन के साथ घूम रहा था. पकते लजीज मीट की खुशबु बाहर तक आ रही थी. कजिन ने मेरी ओर देखा, तपाक से कहा, “ललवन के मुहल्लवां से जब संडे में निकलबा त पता लग जाई कि हर घर में मटन पकत बा.”
हकीकत यही है. उत्तर भारत में अब भी अगर आप किसी कायस्थ के घर संडे में जाएं तो किचन में मीट जरूर पकता मिलेगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कायस्थों को लाला भी बोला जाता है. देशभर में फैले कायस्थों की खास पहचान का एक हिस्सा उनका खान-पान है. संडे में जब कायस्थों के घर जब मीट बनता है तो अमूमन बनाने का जिम्मा पुरुष ज्यादा संभालते हैं. मैने मौसाओं को बखूबी ये काम करते देखा है.
मैं ऐसे घर का हूं, जहां मेरे पिता पक्ष में कोई मीट नहीं खाता. मां पक्ष में नाना पक्के सत्संगी लेकिन नानी को खूब शौक था. जौनपुर के ननिहाल में हर संडे नानी की रसोई हमेशा मुख्य रसोई से परे खिसक जाती थी, बर्तन भी अलग होते थे. क्योंकि उस दिन वो मीट बनाती थीं. वो इसे कैसे बनाती थीं. वो कितना लजीज होता था, ये किस्सा आगे. जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के कायस्थों की रसोई और खान-पान के बारे में चर्चा करूंगा.
पिछले शनिवार और रविवार जब मैं किताबों और कागजों से कबाड़ हल्का कर रहा था, तब फ्रंटलाइन में छपा एक रिव्यू हाथ आ गया. जो काफी समय पहले पढ़ने के लिए रखा था. शायद इसलिए, क्योंकि वो उस किताब का रिव्यू था जो कायस्थों के खानपान पर आधारित है. इस की काफी तारीफ तब अखबारों और पत्रिकाओं में आई थी. किताब का नाम है “मिसेज एलसीज टेबल”. इसकी लेखिका हैं अनूठी विशाल. मिसेज एलसी मतलब मिसेज लक्ष्मी चंद्र माथुर. और टेबल यानि उनके लजीज पाकशाला से सजी टेबल.
माना जाता है कि भारत में लजीज खानों की खास परंपरा कायस्थों के किचन से निकली है. कायस्थों में तमाम तरह सरनेम हैं. कहा जाता है कि खान-पान असली परंपरा और रवायतों में माथुर कायस्थों की देन ज्यादा है. खाने को लेकर उन्होंने खूब इनोवेशन किया. कायस्थों की रसोई के खाने अगर मुगल दस्तरख्वान का फ्यूजन हैं तो बाद में ब्रिटिश राज में उनकी अंग्रेजों के साथ शोहबत भी.हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश खासकर इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, जौनपुर में रहने वाले श्रीवास्तव भी खुद को कुछ कम नहीं मानते.
मेरे एक बॉस अक्सर मीटिंग कायस्थों के लाजवाब खानपान पर चर्चा करते थे. उनका मानना था कि कायस्थों को अपने बेहतरीन खानपान के कारण होटल जरूर चलाना चाहिए. उनका कहना होता था कि कायस्थ अगर खानपान की पुरानी परंपरा को जीवित कर लें तो उनसे बेहतर ये काम कोई कर ही नहीं सकता.
कहा जाता है कि कायस्थों की जमात तब उभर कर आई, जब मुगल भारत आए. फारसी में लिखा-पढ़ी, चकबंदी और अदालती कामकाज के नए तौरतरीके शुरू हुए. कायस्थों ने फटाफट फारसी सीखी और मुगल बादशाहों के प्रशासन, वित्त महकमों और अदालतों में मुलाजिम और अधिकारी बन गए. कायस्थ हमारी पुरातन सामाजिक जाति व्यवस्था में क्यों नहीं हैं, ये अलग चर्चा का विषय है. इसके बारे में भी कई मत हैं. कोई उन्होंने शुद्रों से ताल्लुक रखने वाला तो कोई ब्राह्मणों तो कुछ ग्रंथ क्षत्रियों से निकली एक ब्रांच मानते हैं.
लेखक अशोक कुमार वर्मा की एक किताब है, “कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि”. वो कहती है, “जब मुगल भारत आए तो कायस्थ मुस्लिमों की तरह रहने लगे. उनके खाने के तौरतरीके भी मुस्लिमों की तरह हो गए. वो बीफ छोड़कर सबकुछ खाते थे. मुगलों के भोजन का आनंद लेते थे. मदिरासेवी थे.”
14वीं सदी में भारत आए मोरक्कन यात्री इब्न बबूता ने अपने यात्रा वृत्तांत यानि रिह्ला में लिखा, “मुगलों में वाइन को लेकर खास आकर्षण था. अकबर के बारे में भी कहा जाता है कि वो शाकाहारी और शराब से दूर रहने वाला शासक था. कभी-कभार ही मीट का सेवन करता था. औरंगजेब ने तो शराब सेवन के खिलाफ कानून ही पास कर दिया था. अलबत्ता उसकी कुंवारी बहन जहांआरा बेगम खूब वाइन पीती थी. जो विदेशों से भी उसके पास पहुंचता था. हालांकि अब मदिरा सेवन में कायस्थ बहुत पीछे छूट चुके हैं. लेकिन एक जमाना था जबकि कायस्थों के मदिरा सेवन के कारण उन्हे ये लेकर ये बात खूब कही जाती थी.
“लिखना, पढ़ना जैसा वैसा
दारू नहीं पिये तो कायस्थ कैसा” वैसे पहले ही जिक्र कर चुका हूं. जमाना बदल गया है. खानपान और पीने-पिलाने की रवायतें बदल रही हैं. हरिवंशराय बच्चन दशद्वार से सोपान तक में लिख गए, ” मेरे खून में तो मेरी सात पुश्तों के कारण हाला भरी पड़ी है, बेशक मैने कभी हाथ तक नहीं लगाया.”.
April 9, 2020
12:56 pm Tags: Sanjay Srivastava, Kayastha, कायस्थों का खान पान, संजय श्रीवास्तव