कविता पोस्टर एक कला है और प्रगतिशील आंदोलन का एक मजबूत हथियार
♦ रवीन्द्र त्रिपाठी
पिछले तीस पैंतीस बरसों से हिंदी भाषी इलाके में कविता को लेकर एक नई तरह की उत्सुकता पैदा हुई है। कविता पोस्टरों के रूप में। कई ऐसे कविता प्रेमी सामने आए हैं जो कविताओं या काव्य पंक्तियों के पोस्टर बनाते हैं। कुछ इनकी प्रदर्शनियां भी लगाते हैं। कुछ, बल्कि ज्यादातर, सोशल मीडिया के माध्यम से अपने पोस्टरों को प्रचारित करते हैं। इस सिलसिले मे जिन लोगों के नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं वे हैं मुकेश बिजोले, अशोक दुबे, पंकज दीक्षित, अनिल करमेले, विनय अंबर और रोहित रुसिया। अनिल करमेले तो खुद कवि हैं और बिजोले एक पेंटर। पर इन सबने कविता-पोस्टर को नई दिशा दी है। पर क्या ये सिर्फ कविता को लोकप्रिय बनाने का अभियान है ? नहीं। ये कविता के साथ समाज को चाक्षुषता से जोड़ने की प्रक्रिया भी है।
अशोक दुबे और बिजोले इसे एक सामूहिक प्रयास की तरह लेते हैं। बिजोले एक कागज या कैनवास पर पेंटिग बनाते हैं और अशोक दूबे उस पर कैलिग्राफी करते है यानी शब्द संयोजन। और ये शब्द कविता के भी हो सकते हैं और किसी बड़े लेखक या चिंतक की उक्तियां भीं। जैसे महात्मा गांधी के विचार। अशोक दूबे ने उर्दू के शायर जावेद अख्तर की हिंदी में अनुदित या लिप्यंतरित शायरी की कैलीग्राफी की है। पुस्तकाकार रूप में। मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले के पंकज दुबे तो पिछले तीसेक सालों से कविता के पोस्टर ही बना रहे हैं। कई हजार पोस्टर वे बना चुके हैं। भोपाल के अनिल करमेले, छिंदवाड़ा के रोहित रुसिया और जबलपुर के विनय अंबर भी इस काम में बरसों से लगे हैं और और हजारों पोस्टर बना चुके हैं। इनकी कई प्रदर्शियां भी हो चुकी हैं। संयोग से ये सभी नाम मध्य प्रदेश से हैं।
पोस्टर एक जनकला है। पोस्टर पेंटिग की तरह लाखों या करोड़ों में नहीं बिकते। शायद हजारों में नहीं भी नहीं बिकते। (हालांकि बिक सकते हैं)। लेकिन वे आम लोगों में एक चेतना फैलाते हैं। उनमें वो सौंदर्यपरकता होती है जो दर्शकों को कविता से जोड़ती है। कई बार ऐसा होता है कि लोग कविता नहीं पढ़ते क्योंकि इनके पास काव्य संग्रह नहीं होते। या पत्रिकाएं नहीं होतीं। हो सकता है कि उनकी कविता में रुचि भी न हो। ऐसे में जब वे सुलेख में अच्छी कविता देखते और पढ़ते हैं तो उनके भीतर एक काव्य संस्कार भी विकसित होता है। इसलिए ऐसे पोस्टर साहित्य और समाज में एक सेतु का काम करते हैं। समाज में कलाबोध विकसित करते हैं।
विनय अंबर को इसके बारे मे एक किस्सा सुनाते हैं। एक बार अपनी नाट्य मंडली के साथ वे ट्रेन से कहीं जा रहे थे और देखा कि डब्बे के टायलेट में अपशब्द लिखे हुए हैं। उन्होंने अपने मार्कर से ट्रेन के डिब्बों के टायलेटों में कविताएं लिख दीं। टीटी पहले तो उनके टायलेट में कुछ लिखते देखकर नाराज हुआ लेकिन जब पढ़ा कि क्या लिखा है तो बड़ा खुश हुआ नाट्य मंडली के सभी सदस्यों के चाय भी पिलाई। आशय ये कि सार्वजनिक जगहों पर भी कविता सुलेख में अंकित की जाए तो लोगों की सांस्कृतिक चेतना में परिष्कार हो सकता है।
इस सिलसिले में एक पक्ष ये भी जिन जिन नामों का इस सिलसिले में उल्लेख हुआ है वे सभी भाऊ समर्थ से या तो जुड़े रहे या उनसे प्रेरित रहे। भाऊ समर्थ प्रगतिशील चेतना के कलाकार थे जिन्हों लघु पत्रिकाओं से लेकर सारिका जैसी प्रत्रिकाओं मे अपने रेखांकन और सुलेख से सामान्य जनों के साहित्यबोध और कलाबोध को जोड़ा। समर्थ इसे लेकर कई जगहों पर कार्य़शालाएं भी करते रहे। बिजोले और पंकज दीक्षित ने इन कार्यशाओं में भाग भी लिया है। इस तरह के पोस्टर देवनागरी लिपि के चाक्षुष सौंदर्य का भी विस्तार भी करते हैं। बेशक आज मुद्रित कविता भी ज्यादा पढ़ते हैं या इंटरनेट दौर में अलग अलग फौंट में। लेकिन जब सुलेख या हस्तलेख में कविताएं आती हैं तो उनके भीतर निहित सौदर्य भी विशेष तरह से उद्घाटित होता है। कविता में एक चाक्षुष पहलू को भी होता है। इन पोस्टरों मे ये भी उद्घाटित होता है।
Posted Date:June 22, 2020
5:15 pm