कविता में बनारस: नौ सदी के कवियों का दस्तावेज़

 

शिव काशी कैसी भई तुम्हारी, अजहूं हो शिव लेहु विचारी।

चोवा, चंदन अगर पान घर घर सुमृति होत पुरान।।

शिव की नगरी काशी की महिमा पर आज से छह सौ साल पहले कबीर ने ऐसी तमाम पंक्तियां लिखीं। तो रैदास ने भी पंद्रहवीं सदी में ही लिखा –

सदा अतीत ग्यांन, ध्यानं बिरिजित, नीरबिकांर अबिनासी।

कहै रैदास सहज सूंनि सति, जीवन मुकति निधि कासी।।

रैदास के बाद तुलसी ने काशी महिमा पर सोरठा और दोहे लिखे, काशी की स्तुति लिखी और बहुत कुछ ऐसा लिखा जो उनके भीतर इस नगरी के गहरे असर का आईना है। वहीं महज 35 साल की अपनी जीवन यात्रा में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने गंगा वर्णन भी किया और ‘देखी तुमरी कासी’ भी रच डाला। और अब छह सदी बाद भी यानी बीसवीं सदी के अंत और 21वीं सदी के दो दशकों तक बनारस लगभग हर कवि और रचनाकार का प्रिय और जरूरी विषय रहता आया है। बनारस और काशी की महिमा पर ढेर सारी किताबें आईं, खूब किस्सागोई हुई, कविताएं लिखी गईं, उर्दू शायरों के केन्द्र में भी बनारस रहा और अब तो खैर बनारस पर सियासत का कुछ ऐसा रंग चढ़ा है कि यहां कि शक्लो सूरत बदल रही है, नई पीढ़ी के लिए बनारस वो नहीं रहा जिसके लिए वह जाना जाता रहा है।

लेकिन इस दौरान वहां के साहित्य, संस्कृति और समृद्ध परंपराओं को जीवित रखने की सकारात्मक और रचनात्मक कोशिशें भी हो रही हैं और ये कोशिश वो लोग कर रहे हैं जिनके भीतर हर वक्त बनारस धड़कता है, उनकी रगों में बनारस दौड़ता है और जो बेशक अब बनारस से बाहर हों, लेकिन जहां होते हैं अपने साथ पूरा बनारस जीवंत कर देते हैं। चाहे वह हेमंत शर्मा का ‘देखो हमारी काशी’ पढ़ लीजिए या फिर हाल ही में राजीव सिंह के संपादन में आई ‘कविता में बनारस’। हेमंत शर्मा की किताब पर खूब चर्चा हो चुकी है, इसे लेकर बनारस में भव्य आयोजन हो चुके हैं, इसलिए हम बात करेंगे राजीव सिंह की किताब ‘कविता में बनारस’ की। ये एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जिसमें आपको छह सौ सालों के विशाल कालखंड के दरम्यान बनारस पर लिखी गई उन तमाम कवियों की चुनी हुई रचनाएं हैं जिन्हें एक साथ इकट्ठा कर पाना वाकई एक अद्भुत काम है। शुरु में हमने कबीर, रैदास, तुलसी और हरिश्चंद्र का जो ज़िक्र किया है, वह इसी संचयन से लिया गया है।

राजीव सिंह बनारस में पले बढ़े, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में पीएचडी की, बनारस के हर रंग को जिया, पत्रकार भी रहे और लेखक भी, ग्रामीण पत्राकारों के लिए बहुत कुछ करने की कोशिश की, आज के दौर में   मीडिया के व्यावहारिक स्वरूप को नई पीढ़ी के पत्रकारों को गंभीरता से देते रहे हैं। ‘प्रगतिशील आलोचना की परंपरा’ और ‘डॉ रामविलास शर्मा’ जैसी पुस्तकें लिखने के बाद अब राजकमल प्रकाशन ने उनकी यह महत्वपूर्ण पुस्तक ‘कविता में बनारस’ छापी है। राजीव सिंह की खासियत है कि वह साहित्य और आज के शोर शराबों से दूर चुपचाप अपना साहित्य सृजन करते हैं और हर बार कुछ नया और संग्रहणीय दे जाते हैं। इस बार भी छह शताब्दियों के 57 चुने हुए कवियों की रचनाएं तलाशना, कालखंड के हिसाब से इन कवियों को बांटकर उनकी कविताएं खूबसूरती से पेश करना मामूली बात नहीं है। राजीव जी पूरी साफगोई से अपनी बात रखते हुए इस संभावना को सामने लाते हुए अफसोस जताते हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद कई अहम कवियों की महत्वपूर्ण कविताएं छूट गईं हैं।

राजीव सिंह कहते हैं कि लगभग छह सौ बरस के बीच बनारस पर लिखी गई इन कविताओं से गुजरना बनारस के इतिहास और संस्कृति के गलियारों में विस्मय के साथ घूमने भटकने जैसा रहा। कबीर से लेकर आज की युवा पीढ़ी की कविताओं के साथ गंगा की लहरों पर बहने जैसा।

संकलन में जयशंकर प्रसाद भी हैं, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ यानी बेढब बनारसी भी, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, शंभुनाथ सिंह, केदारनाथ सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, श्रीकांत वर्मा, प्रभाकर माचवे, अजय मिश्र और परमानंद श्रीवास्तव भी हैं और प्रयाग शुक्ल, रामकुमार कृषक, राजेश जोशी, उमाशंकर तिवारी भी। राधावल्लभ त्रिपाठी, रामकृष्ण पांडेय, ज्ञानेंद्रपति, नरेन्द्र पुंडरीक, मुक्ता, सुरेन्द्र वाजपेयी और अष्टभुजा शुक्ला की कविताएं भी आपको मिलेंगी और साठ के दशक में पैदा हुए दिनेश कुशवाहा, निलय उपाध्याय, मोहन राणा, श्रीप्रकाश शुक्ल, लीना महरोत्रा राव और हरि मृदुल, सत्तर के दशक में जन्में युवा कवि बसंत त्रिपाठी, राजुला शाह, विमलेश त्रिपाठी और अस्सी के दशक वाले व्योमेश शुक्ल, उपासना झा, अनिमेष मुखर्जी और गार्गी मिश्र तक आपको इस संग्रह में मिल जाएंगे। सबने अपने अपने तरीके से बनारस को देखा।

लेकिन इस पुस्तक का जो सबसे अहम हिस्सा है वह है उर्दू कवियों और शायरों की नजर में बनारस। इन कवियों में सोलहवीं शताब्दी के वली दकनी का लिखा कूचा-ए-यार ऐन कासी, ईरान से बनारस आए शेख अली हज़ी के साथ साथ ग़ालिब, हातिम अली मेहर, वाज़िद अली शाह, मोहसिन काकोरवी, अकबर इलाहाबादी, सफ़ी लखनवी, अख्तर शीरानी, वामिक जौनपुरी, नज़ीर बनारसी, रईस अमरोहवी, कमल ज़मील, रियाज़ लतीफ, रविश बनारसी को पढ़ना एक अनुभव से गुज़रने जैसा है। बांग्ला कवियों राजा जयनारायण घोषाल और शंख घोष के अलावा स्पैनिश कवि होर्हे लुईस बोर्हेस की नज़र से बनारस को देखना भी कम दिलचस्प नहीं है।

कविता में बनारस पढ़ते हुए यूं तो बहुत सी पंक्तियां आपके भीतर तक उतर जाएंगी, हर जगह आपको बनारस का महिमामंडन और उस पर मुग्ध होने वाली स्थितियां ही नहीं मिलेंगी, वहां के कुछ बदरंग चेहर भी नज़र आएंगे। मिसाल के तौर पर नज़ीर बनारसी की ये पंक्तियां –

गर स्वर्ग में जाना है तो जी खोल के खरचो

मुक्ति का है व्यौपार बनारस की गली में

जबकि बनारस को लेकर दीवानगी का ये आलम आपको अख़्तर शीरानी की इन पंक्तियों में भी मिल जाएगा –

हर इक को भाती है दिल से फ़ज़ा बनारस की

वो घाट और वो ठंडी हवा बनारस की…

जाहिर है बनारस में डूबना उतरना और इसके तमाम रंगों से रू ब रू होना है तो कविता में बनारस को देखिए और आज के सियासी बनारस से दूर यहां के असली रंग रूप और संस्कृति को महसूस कीजिए।

  • अतुल सिन्हा     (यह समीक्षा अमर उजाला के डिजिटल प्लेटफॉर्म काव्य में प्रकाशित हुई थी)
Posted Date:

December 30, 2022

3:45 pm Tags: , , , ,
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