सामाजिक चेतना से लैस एक अभिनेता का जाना
  • अतुल सिन्हा

इरफान खान का जाना एक सदमे की तरह है। महज 53 साल की उम्र में इस कलाकार ने अपने संघर्षों और खास अंदाज़ की वजह से अपनी जगह बनाई। बॉलीवुड के साथ साथ करोड़ों दर्शकों के दिलों में अपनी छाप छोड़ी। बिंदास अंदाज़ में ज़िंदगी को लेने वाले और बेहद संवेदनशील तरीके से समाज को देखने वाले इस अभिनेता ने अपनी खास शैली बनाई…चाहे वह अपनी बेहद गंभीर और गहरी आंखों से बहुत कुछ कह देने का अंदाज़ हो या फिर डॉयलॉग डिलिवरी का उनका एकदम अलग तरीका। इरफान खान गंभीर रूप से बीमार थे, ये सबको पता था। लंदन में इलाज करवाकर पिछले साल सितंबर में वापस लौटे थे। इसके बाद उन्होंने फिल्म अंग्रेजी मीडियम की शूटिंग भी की। ये लगने लगा था कि वो पूरी तरह ठीक हो गए और अब वो फिर से पूरी लय के साथ वापस लौट आएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उनके बेहद अजीज दोस्त और पीकू जैसी फिल्म में इरफान को अहम किरदार में पेश करने वाले शुजीत सरकार ने उनके गुज़र जाने की खबर सार्वजनिक की। मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में उनका रातभर का संघर्ष और सुबह ज़िंदगी से हुई उनकी हार ने इस लॉकडाउन में सबको भीतर तक हिलाकर रख दिया।

पूरा बॉलीवुड स्तब्ध है। इरफान के करोड़ों चाहने वाले सदमे में हैं। उनकी तमाम यादें सबकी आंखों के सामने तैर रही हैं। अभी चार दिन पहले उनकी फिल्म अंग्रेज़ी मीडियम देखते हुए और किरदार में डूब जाने की उनकी फितरत को महसूस करते हुए करीब 6 साल पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान 2014 में इरफान खान को एक सेशन में बुलाया गया था। फ्रंट लॉन के इस कार्यक्रम का नाम रखा गया था – आक्रोश। चर्चा हो रही थी कि आखिर देश में दलितों और पिछड़ी जातियों के भीतर का जो आक्रोश है और सियासी पार्टियों के लिए कैसे ये महज एक वोट बैंक हैं, साथ ही कैसे समाज के इस वर्ग को सामाजिक बराबरी का दर्जा दिलाने में, इनकी आवाज़ को बुलंद करने में कला, साहित्य, फिल्म आदि मददगार साबित हो सकती हैं। विषय गंभीर था, लेकिन इरफान खान बेहद सुलझे हुए अंदाज़ में बता रहे थे कि ये जो सामाजिक व्यवस्था है, लोगों को आपस में बांटने वाली, वह बेहद गहराई से जड़ें जमा चुकी है, लेकिन इस गैरबराबरी को खत्म करना जरूरी है और ये एक अच्छी बात है कि इसे लेकर आज की पीढ़ी में चेतना जाग चुकी है. इस संघर्ष का एक व्यापक रूप भी नजर आने लगा है।

इरफान खान ने ये बताया कि जब गोविंद निहलाणी ने फिल्म आक्रोश बनाई थी, तब और अब में बहुत फर्क आया है। बॉलीवुड के फिल्मकार भी अब इस विषय पर तमाम फिल्में बना रहे हैं और इस विषय को बेहद संजीदगी से उठा रहे हैं। इरफान खान ने तब ओमप्रकाश वाल्मिकी की कुछ कविताएं भी सुनाई थीं जिनमें – ‘सदियों का संताप’ और ‘वो मैं हूं’ जब उन्होंने पढ़ा तो उनके अंदाज़ में कविता के पात्र मानो जी उठे।

इन 6 सालों में इरफान खान ने बहुत ज्यादा फिल्में तो नहीं कीं, लेकिन जितनी भी कीं, उनकी चर्चा जरूर हुई। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने वैसे तो कई मंजे हुए कलाकार दिए, सबकी अपनी अपनी खासियतें रही हैं, जाहिर है इरफान ने भी यहीं से खुद को तराशा और एक अलग पहचान बनाई। संघर्ष तो तमाम कलाकार करते ही हैं और अपनी जगह भी बड़ी मुश्किल से बनाते हैं, इरफान को भी शुरु में इस संघर्ष से जूझना पड़ा, 1988 में सलाम बॉम्बे में पहला मौका मिला, हर साल 4-5 फिल्में वो करते रहे लेकिन लोगों ने पहचाना मकबूल से, पान सिंह तोमर से, पीकू से, हासिल से, स्लमडॉग मिलेनियर से और फिर बाद में तो हिन्दी मीडियम और अब अंग्रेजी मीडियम तक इमरान देश के बेहतरीन और बेहद प्रतिभावान कलाकारों की फेहरिस्त में शामिल हो ही गए। फिल्मफेयर से लेकर पद्मश्री तक और तमाम अवार्ड्स की कतारें लग गईं, लेकिन सबसे अहम बात ये कि इरफान खान ने अपनी ज़मीन को याद रखा। उन्होंने कभी बॉलीवुड के ग्लैमर को खुदपर हावी नहीं होने दिया और उनकी पढ़ने लिखने की दिलचस्पी बनी रही, सामाजिक चेतना बची रही और समाज को करीब से देखने समझने की भूख बरकरार रही। बेशक इस बेहतरीन और संवेदनशील अभिनेता का इस तरह चले जाना मन के भीतर गहरी टीस पैदा करता है। नमन और श्रद्धांजलि।

Posted Date:

April 29, 2020

4:55 pm Tags: , , , ,
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