उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में एक छोटा सा कल्बा है डिबाई… शुरुआत से ही हिन्दू मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे का प्रतीक… देश के विभाजन के वक्त आबोहवा कुछ ऐसी बनी कि यहां का एक अज़ीम शख्स पाकिस्तान के लाहौर जाने को मजबूर हो गया… और वह भी तब जब उसके परिवार के सभी लोग यहीं रह गए…लेकिन उस शख्स में हिन्दुस्तान और खासकर अपना कस्बा, अपना बचपन धड़कता रहा… वह शख्स था बेहतरीन अफसानानिगार यानी कहानीकार इंतज़ार हुसैन..
इंतज़ार हुसैन ने 1946 ने जब मेरठ से एमए किया, तबतक उन्होंने कुछ भी लिखना शुरु नहीं किया था, अलबत्ता राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, कृष्ण चंदर जैसे लेखकों को पढ़ते हुए बड़े हुए.. लेकिन जब विभाजन की हवा चली तो उनके तमाम दोस्त, साहित्यकार और बहुत से करीबी लाहौर जाने लगे.. इंतजार हुसैन आखिर क्यों पाकिस्तान गए और कैसे उनका बचपन बीता इस बारे में वो तमाम मौकों पर बताते रहे… वो कहते थे कि डिबाई कस्बा जहां वो पैदा हुए, जहां बचपन गुज़ारा वहां उनका मकान हिन्दुओं के मोहल्ले से लगा हुआ था.. उनका बचपन एक तरफ मस्जिद की अजान तो दूसरी तरफ मंदिरो के भजन के बीच बीता, वो दिवाली, होली से लेकर हर त्यौहार मनाते और उन्हें कभी इंसानों में कोई फर्क महसूस नहीं हुआ.. जब हापुड़ में स्कूल में दाखिला हुआ तो भी वो अपनी क्लास में अकेले मुसलमान थे, लेकिन कभी उन्हें कोई फासला नहीं लगा…मेरठ में बीए करते वक्त उन्होंने सुना कि मुल्क में बंटवारे की बात शुरु हो गई है.. और एमए करते ही विभाजन का भयानक दौर आया और कुछ ऐसे हालात बने कि वो लाहौर चले गए। उनका परिवार बुलंदशहर में ही रह गया। वो कहते थे कि उन हालातों का आज तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता।
इंतज़ार हुसैन कहते हैं कि लाहौर जाने के बाद उनके भीतर का लेखक बाहर आया.. उनके भीतर अपने कस्बे, अपनी बस्ती और बचपन की ढेर सारी यादें एक नॉस्टेल्जिया की तरह हावी रहीं और वही उनके लेखन में नज़र आती रही। उन्होंने महाभारत, रामायण और भारतीय पौराणिक ग्रंथ पढ़े, अलिफ लैला से लेकर तमाम फंतासी किस्से पढ़े और लेखन की तकनीक के साथ उन्हें अपने लेखन में उतारा।
मुझे याद है अस्सी के दशक का शुरुआती साल जब एक दफा इंतज़ार हुसैन साहब लखनऊ आए थे। वहां इंदिरा नगर में उनके दोस्त और जाने माने कहानीकार रामलाल रहते थे। हमारे घर के पास ही वो रुके थे। फिर वो हमारे घर आए और तकरीबन 3-4 घंटे अनिल सिन्हा, रामलाल जी और इंतज़ार हुसैन साहब के बीच कहानियों पर, दोनों मुल्कों के साहित्यिक माहौल पर, हिन्दी-उर्दू के रिश्तों पर लंबी बातचीत होती रही। मुझे भी उन्हें सुनने और थोड़ा बहुत समझने का मौका मिला। फिर उनकी कहानियां पढ़ीं और उनका चर्चित उपन्यास बस्ती भी पढ़ा। बेशक इंतज़ार हुसैन की कहानियों और पूरे लेखन में कई शेड्स हैं। नॉस्टेल्जिया है, फंतासी है, समसामियक हालातों की बारीकी से अभिव्यक्ति है, इंसानियत है, संवेदना है और वो तमाम पहलू हैं जो किसी लेखक और साहित्यकार को संपूर्ण बनाते हैं।
इंतज़ार हुसैन के बारे में बात करते वक्त उनके रचना संसार के बारे में जानना जरूरी है… 7 दिसंबर 1923 को डिबाइ में पैदा होने के बाद इंतज़ार हुसैन जब 1947 में पाकिस्तान गए तो 24 साल के थे…उसके बाद लिखना जो शुरु किया तो बेइंतहां लिखा – कोई 25 किताबें हैं इंतज़ार हुसैन की.. उन्होंने पाकिस्तान के प्रमुख उर्दू अख़बार ‘जंग’ तथा बाद में अंग्रेज़ी अख़बार ‘द नेशन’ में लगातार समसामयिक तथा साहित्यिक विषयों पर कालम लिखते रहे। इन कालमों पर आधारित उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। हुसैन का साहित्य केवल उपन्यासों एवं कहानियों तक ही सीमित नहीं रहा। उन्होंने ड्रामे, सफ़रनामे तथा जीवन वृत्तान्त भी लिखे। इन्तिज़ार हुसैन ने अंग्रेज़ी कहानियों, उपन्यासों एवं ड्रामों के अनुवाद के साथ-साथ आलोचनात्मक निबन्ध भी लिखे। ‘चाँद-गहन’, ‘दिन और दास्तान’, ‘बस्ती’, ‘तज़करा’ तथा ‘आगे समन्दर है’, उनके चर्चित उपन्यास हैं। उनकी कहानियों के सभी संग्रहों को दो हिस्सों में ‘जनम कहानियाँ’ तथा ‘क़िस्से -कहानियाँ’ के नाम से समग्र रूप में प्रकाशित किया जा चुका है।
— अतुल सिन्हा
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Posted Date:
December 7, 2021
6:00 pm Tags: Intezar Hussain, Pakistani Story Writer, Intezar Hussain Novels, Dibai, Bulandshehar, Lahore