हबीब तनवीर : हमारे सपनों के राजकुमार
जाने माने रंगकर्मी और रंगलीला के संस्थापक, पत्रकार और संस्कृतिकर्मी अनिल शुक्ल बेहद जीवट से भरे और रचनात्मक ऊर्जा से भरपूर साथी हैं। हबीब तनवीर से अपनी मुलाकात और अनुभवों को अनिल जी ने अपने फेसबुक वॉल पर साझा किया है.. ये पहली किस्त है और उनका संस्मरण आगे भी आएगा तो हम 7 रंग के पाठकों के लिए साझा करेंगे। अनिल जी से बगैर पूछे ये संस्मरण हम यहां छाप रहे हैं, ये जानते हुए कि वो कभी मना नहीं करेंगे। तो चलिए याद करते हैं रंगमंच के संस्था बन चुके हबीब साहब को…
जो आपके सपनों का राजकुमार हो, उससे आप राजकुमारी न होकर किसी और रूप में रूबरू हों ऐसा ही मेरे साथ तब हुआ जब मैंने पहली बार हबीब तनवीर से मुलाक़ात की।
हबीब तनवीर का पहला नाटक ‘चरणदास चोर’ मैंने सन 76 में आगरा के सर्किट हाउस मैदान में चल रहे ‘आगरा बाजार’ में देखा था। बंसी कौल की वर्कशॉप से ट्रेनिंग लेकर मैं हाल ही में ‘अमेचर’ रंगकर्मी बना था। मैंने हबीब साहब के नाटक को देखा और छत्तीसगढ़ी लोक ‘नाचा’ पर आधारित उनके आधुनिक नाट्यकर्म का मुरीद हो गया। पूरा नाटक छत्तीसगढिय़ा भाषा में था। इसमें वहां की जनजातियों की लोक परंपरा की झलक थी, इसमें करमा, ददरिया, सुआ और पंथी नृत्य और संगीत था।
कहानी चरणदास की थी जो गांव से सोने की थाली चुरा कर भाग जाता है। पुलिस से बचने के लिए वह साधु को सवा रुपए देकर दीक्षा ले लेता है। गुरु उससे चोरी छोडऩे को कहते हैं, लेकिन वह नहीं मानता। गुरु के सामने 5 प्रतिज्ञाएं लेता है- सोने की थाली में नहीं खाएगा, रानी से शादी नहीं करेगा, किसी देश का राजा नहीं बनेगा और हाथी-घोड़े पर बैठकर जुलूस में शामिल नहीं होगा। गुरु उसे पांचवीं प्रतिज्ञा हमेशा सच बोलने की दिलाता है और यही पांचवीं प्रतिज्ञा उसका पूरा जीवन ही बदल देती है।
मेरे शिक्षक और निर्देशक बंसी कौल में बेशक़ ‘फ़ोक’ का ‘टिल्ट’ था लेकिन थे तो वह इब्राहिम अल्काज़ी के ही शिष्य। उस नज़रिये से हबीब साहब मुझे कोरे ‘लोक निर्देशक’ लगे। उनकी कहानी भी ‘फ़ोक’ थी, शिल्प भी ‘फ़ोक’ था और उनको छोड़ कर उनके सभी अभिनेता-अभिनेत्रियां भी निखालिस ‘फ़ोक’ आर्टिस्ट थे। वह आगरा के शो में आये थे, आदतन उन्होंने पुलिस वाला सरीखी एकाध छोटी-मोटी भूमिकाएं भी की थीं। मैं और मेरे कई रंगकर्मी साथी उनके सम्पूर्ण नाटक के मुरीद तो बन गए लेकिन चाह कर भी ‘बैक स्टेज’ जाकर उन्हें मिल पाना हमारे लिए नामुमकिन निकला। अपने रंगकर्मी साथियों के साथ मैं भी मन मसोस कर रह गया।
हबीब साहब से मेरी पहली रूबरू मुलाक़ात दिल्ली में हुई सन 90 की फ़रवरी में। वह उन दिनों अपने छत्तीसगढ़िया लोक कलाकारों के साथ मुनिरका डीडीए फ्लेटस में ही बस गए थे और मैं एक पेशेवर पत्रकार के रूप में दिल्ली वासी बन चुका था। ‘सन्डे मेल’ नामक अखबार में मैं काम करता था। डालमिया समूह का यह साप्ताहिक अख़बार हिंदी और अंग्रेजी भाषा में दिल्ली और कलकत्ता (अब कोलकाता) से निकला करता था। मैं हिंदी साप्ताहिक से जुड़ा था। इन 16 पेज वाले ‘ब्रॉड शीट’ अख़बारों की बहुत बड़ी ख़ासियत इनके साथ प्रकाशित होने वाली एक रंगबिरंगी मैगज़ीन हुआ करती थी। मेग्ज़ीन कला, साहित्य और संस्कृति पर केंद्रित थी। हिंदी मैगज़ीन के संपादक हिंदी के मशहूर कहानीकार उदयप्रकाश थे।
मैं मूलतः राजनीतिक संवाददाता नियुक्त था और अख़बार भी मुझसे राजनीतिक ख़बरें ‘फ़ाइल’ करने की ही उम्मीद रखता था लेकिन जब मैंने ‘फ़ीचर एडिटर’ उदयप्रकाश से एक दिन यह कहा कि मैं आपकी मैगज़ीन के लिए हबीब तनवीर पर एक ‘कवर स्टोरी’ लिखना चाहता हूँ तो उन्होंने मुझे हलके में लिया। उन्हें लगा कि सियासी मसलों में दिन-रात उलझे रहने वाले मुझ जैसे संवाददाताओं का भला हबीब तनवीर और उनके नाटक से क्या लेना देना ? मैंने जब कई बार ज़ोर देकर अपनी बात रखी तो एक शाम उन्होंने मुझे टालने की नीयत पूछा कि हबीब तनवीर पर ऐसा अभी तक क्या नहीं छपा है जिस पर तुम अब लिखना चाहते हो।
मैंने कहा कि हबीब साहब के नाटकों से लेकर उनके मेंबर पार्लियामेंट हो जाने तक, मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ स्वतंत्र राज्य का तब गठन नहीं हुआ था) के राजनेता श्यामाचरण शुक्ल से लेकर वीसी शुक्ल होते हुए इंदिरा गाँधी तक पहुँच जाने के उनके सियासी रिश्तों पर बेशक़ सब कुछ छप चुका हो लेकिन मैं उस छोटे से बच्चे और नागपुर के उसके ननिहाल के बारे में लिखना चाहता हूँ जिसके माहौल ने उसे आगे चलकर हबीब तनवीर के बतौर एक नामचीन रंगकर्मी बड़ा किया। मैं उनके ननिहाल की कहानी लिखना चाहता हूँ।
अब चौंकने की बारी उदयप्रकाश की थी क्योंकि न तो उन्हें यह मालूम था कि हबीब साहब का ननिहाल नागपुर है और न ही यह कि वहां ननिहाल में ऐसा क्या माहौल था जिसके चलते वह आगे चलकर एक नामचीन रंगकर्मी बने। वह दरअसल हबीब साहब के बचपन से सयाना बन जाने तक का कोई क़िस्सा नहीं जानते थे क्योंकि यह सब हिंदी-अंग्रेजी के पत्र-पत्रिकाओं में कभी कहीं छपा ही नहीं था और न ही तब तक उनकी बायोग्राफ़ी ही प्रकाश में आयी थी। हड़बड़ाए हुए उन्होंने अपनी सिगरेट मेज़ पर रखी अपनी ऐश ट्रे में झाड़ी, पैकेट में से नई सिगरेट निकाल कर मुझे पेश की, ख़ुद भी सुलगाई और मुझे फुर्सत से बैठ जाने को कहा।
ऑफ़िस के चाय वाले को चाय का आर्डर देने के बाद उन्होंने सवालिया निगाहों से यह जानना चाहा कि यूपी का रहने वाला मैं, यूपी और राजस्थान में कई सालों की रिपोर्टरी के बाद दिल्ली में आकर अब राजनीतिक ‘बीट्स’ कवर करने के दौरान भला यह कैसे जान गया हूं?
“आप हैडिंग बना सकते हैं- एक रंगकर्मी के ननिहाल की कहानी।” मैंने उत्साह में भरकर सिगरेट का धुंआ छोड़ते हुए कहा।
“तुम्हारी हबीब साहब से पहले की मुलाक़ात है?” उदय ने मुझसे पूछा और मैंने गर्दन हिलाकर इंकार किया।
“फिर तुम यह सब कैसे जान गए?’
“हबीब साहब का पुराना मुरीद हूँ और उनके बारे में तमाम जानकारियां सालों से इकट्ठी करता चला आ रहा हूँ।” मैंने उदय को बताया कि मैं लड़कपन से नाटक करता आया हूं। बहरहाल, उदयप्रकाश और मैं देर तक ‘स्टोरी’ और इसके प्रारंभिक डिज़ाइन पर बातचीत करते रहे।
‘सेल’ फ़ोन युग आने में अभी देर थी और दिल्ली में जमे मुझे डेड़ महीने ही हुए थे लिहाज़ा तब तक मेरे घर में लैंड लाइन फ़ोन कनेक्शन नहीं लगा था। अगली सुबह ऑफ़िस पहुंचकर मैंने हबीब तनवीर को फ़ोन किया। मुझे बताया गया कि दांत में तकलीफ के चलते वह फिलहाल डेंटिस्ट के पास गए हैं। 3 दिन की टेलफ़ोनिक उहापोह के बाद आख़िरकार हबीब साहब से फ़ोन पर मुलाक़ात हुई। हाल ही में किसी शहर में उनका शो लगा था और वह मुझसे फ़ोन पर ही दाँतो का रोना और रिहर्सल कंडक्ट न करवा पाने की गहरी नाराज़गी में डूबने-उतराने लगे। किसी तरह बात सिमटी और उन्होंने अगली सुबह मुनिरका स्थित अपने आवास पर आने को कहा (जबकि उस दिन उन्हें डेंटिस्ट के यहाँ नहीं जाना था)। उन्होंने शर्त रखी- रिहर्सल बड़े सवेरे से रखी गयी है लिहाजा कुछ देर इंतज़ार करना पड़ सकता है। मैं ? बैठे ठाले हबीब साहब की रिहर्सल देखने को मिल रही थी! अंधा क्या मांगे-दो आँखें!
मैंने पीयूष श्रीवास्तव को फ़ोन किया जो 70 के दशक के आगरा के ज़माने में मेरे रंगकर्म का साथी था। तब जिसके साथ मैंने हबीब तनवीर का नाटक ‘चरण दास चोर’ देखा था और जो मेरी ही तरह तब उनकी अनकही ‘राजकुमारी’ बन गया था। पीयूष अब कम्यूटर शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से उभर रहे कॉर्पोरेट समूह ‘एनआईआईटी’ के प्रबंधन से जुड़ा था। उस शाम मैंने और पीयूष ने इस उत्साह में दारू पी कि अगले दिन हम अपने 14 साल पुराने सपनों के राजकुमार से मिलने वाले थे। देर रात तक हम हबीब साहब से की जाने वाली बातचीत की योजनाएं बनाते रहे।
पीयूष का ऑफ़िस भी दक्षिण दिल्ली में ही था। अगली सुबह वह जल्द ही मेरे ऑफ़िस पहुंच गया। मैं, मेरा फ़ोटोग्राफर संजीव रस्तोगी और पीयूष, हम तीनों जन दोपहर होने से पहले हबीब साहब के ठिकाने पर पहुंच गए। डीडीए ने वहां उन्हें और उनके कलाकारों के रहने के लिए 4-5 एमआईजी फ़्लैट का एक समूह सौंप रखा था।
जिस समय हम वहां पहुंचे उनकी रिहर्सल चल ही रही थी। गाल पर रुई की मोटी सी पट्टी रखे हबीब साहब हमें देख कर आहिस्ता से मुस्करा दिए। जिस महिला ने लेकिन गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया, बाद में पता चला कि वह मोनिका जी थीं, हबीब साहब की पत्नी मोनिका मिश्रा। कोई घंटा भर रिहर्सल चलने के बाद लंच ब्रेक हुआ और तब वह हमसे मुख़ातिब हुए। हम दोनों के समक्ष हमारे 11 साल पुराने सपनों का राजकुमार बैठा था लेकिन अफ़सोस कि राजकुमारी के भेस में हम दोनों में से कोई भी नहीं था…………………. (जारी।)
(अनिल शुक्ल के फेसबुक पेज से साभार)
Posted Date:

June 8, 2022

11:58 pm Tags: , , , , , , , ,
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