जाने माने रंगकर्मी और अपने दौर के जबरदस्त नाटककार हबीब तनवीर पर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है… उनके नाटकों पर, उनके व्यक्तित्व पर और कभी समझौता न करने वाले उनके मिजाज़ पर। उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि पर उन्हें रंगकर्मी अपने अपने तरीके से याद करते हैं… कोई उनके तमाम नाटकों की बात करता है, कोई उनके सामाजिक सरोकार को याद करता है तो कोई नाटकों के प्रति उनके समर्पण के बारे में बताता है। इप्टा के महासचिव, नाटककार और संस्कृतिकर्मी राकेश ने हबीब साहब के साथ अपने वर्धा के अनुभव साझा किए हैं… इससे हबीब साहब को समझने में मदद भी मिलेगी और उनके सरल, स्नेहिल व्यक्तित्व और समर्पण की झलक भी मिलेगी। राकेश जी का यह आलेख 7 रंग के पाठकों के लिए।
यूं तो हबीब तनवीर से बिना परिचय के पहली मुलाकात तो आठवें दशक में किसी समय लखनऊ में उनके नाटक “चरन दास चोर” के देखने के साथ हुई,बाद में प्रगतिशील लेखक संघ और आईपीटीए से जुड़ाव के कारण धीरे धीरे गहरी आत्मीयता में बदल गई। 2008 से 2010 के बीच जब महात्मा गांधी अंतररराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा गया तो उन्हें “राइटर इन रेजिडेंस”बनाया गया। वे पहले अपना नाटक ले कर विश्विद्यालय आ चुके थे लेकिन “राइटर इन रेजिडेंस” बनने के बाद उनके आवास के लिए वर्धा शहर में विश्वविद्यालय में एक अतिथि गृह मुकर्रर किया गया, तब परिसर में कुछ आवासों को छोड़ कर कोई जगह नहीं थी। जाहिर है,उनकी जिम्मेदारी मुझ पर ही थी।
अतिथि गृह की साफ सफाई का निरीक्षण मैंने कर लिया था। नियत तारीख को सुबह वे भोपाल से ट्रेन से एक सहयोगी के साथ आए, उन्हें अतिथि गृह पहुंचा कर मै घर चला आया। लगभग 11 बजे सूचना आई, हबीब साहब बहुत नाराज़ हैं, मै दौड़ा गया, साथ में पत्नी वेदा भी थीं। जाते ही हबीब साहब बिफर पड़े “मुझे इतनी बदइंतजामी में नहीं रहना” सहयोगी से बोले “सामान बांधो,हम इसी समय वापस जायेंगे”। कारण बताने को तैयार नहीं। गुस्से में इशारे से बताया “बाथरूम देखो” मैंने देखा, बाथरूम साफ सुथरा था,थोड़ा पानी फैला हुआ था। उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कहा “फ्लश चलाओ” फ्लश चलाया तो पानी बाहर आ गया। मैंने कहा,”यह अभी ठीक कराता हूं ” वे बोले” कराते रहो, मुझे यहां नहीं रुकना” सहयोगी से कहा चलो”सामान बांधो”।
दोपहर के 12 बज चुके थे। वेदा ने हस्तक्षेप किया “बहुत मीठी आवाज़ में कहा “एक बात मानेंगे” उन्होंने उसी गुस्से में कहा, “कहो” वेदा ने कहा” लंच का वक्त हो गया है, बस मेरे हाथ की दो रोटी खा लीजिए, फिर चले जाइएगा “रूखेपन से कहा ” ठीक है ” वेदा घर जा कर खाना ले कर आईं, तब तक बाथरूम दुरुस्त हो चुका था लेकिन अभी तक उन्होंने न अपना निर्णय बदला था, न इस पर कोई बात कर रहे थे। खाना लग गया था लेकिन उनका गुस्सा कायम था। वेदा ने कहा “खाना गुस्से में नहीं खाना चाहिए” वे पहली बार मुस्कराए। खाना खा कर बोले। “खाना मै रोज तुम्हारे यहां ही खाऊंगा, मंजूर” जाहिर है “वेदा ने कहा “जरूर”।
जब तक वे वर्धा में रहे यह क्रम चलता रहा। उसी दौरान विश्वविद्यालय में नाटक के विभाग खोलने की प्रक्रिया भी चल रही थी, उसकी जिम्मेदारी भी मेरे कंधे पर थी। पाठ्यक्रम तय करने के लिए राज बिसारिया, डॉ सचिन तिवारी, देवेन्द्र राज अंकुर,अमिताभ श्रीवास्तव, पंकज राग आए हुए थे। दिन भर बैठक चली वे एक शब्द नहीं बोले अलबत्ता बिना मुझे बताए सभी को मेरे घर डिनर पर आमंत्रित कर लिया। मुझे यह जानकारी किसी ने बैठक की समाप्ति पर चलते चलते कहा “रात को मिलते हैं आपके घर। मेरे घर? मैंने आश्चर्य से पूछा। “हबीब साहब ने सबको आपके यहां ही तो बुलाया है डिनर पर “मन ही मन हंसी आई, घर में न बैठने को कुर्सियां न इतने लोगों के बनाने खाने के बर्तन लेकिन निमंत्रण तो दिया जा चुका था। बहरहाल आनन फानन कुछ कुर्सियां जुटाईं गई। एकदम बगल में रहने वाले मित्र और प्रो वाइस चांसलर प्रो नदीम हसनैन के यहां से बर्तन आए, खाना बना।
रात की बैठकी में प्रसंग नाट्य और फिल्म प्रशिक्षण का ही छिड़ा हुआ था। हबीब साहब ने रौबीली आवाज़ में कहा “शैखुल जामिया साहब से मेरे दो सवाल हैं, पहला “क्या वे किसी कम पढ़े लिखे लोक कलाकार अभिनेता को सीधे एम ए में एडमिशन देंगे? दूसरा “ऐसे कलाकारों को जिनका अभिनय, नाटक में बेमिसाल योगदान है, उन्हें सीधे पी एच डी करने देंगे। सारी शाम इन्हीं सवालों के पक्ष विपक्ष में गुजरी। मै निस्संदेह उनके साथ था। बाद में कभी वेदा ने बताया कि ओरई में उन्होंने भी नाटक “चरनदास चोर” का निर्देशन किया था। उन्होंने नाटक के गीतों की धुनें सुनी और सुनते ही बताया यह बुन्देली की फलां लोक धुन है। वे बहुत खुश हुए। वेदा से उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कहा “तुम्हे भोपाल में मेरे साथ काम करना है” ।
मै एक सवाल उनसे बार बार पूछता आया था “आपने अपने नाटकों में छत्तीसगढ़ की लोक कला और कलाकारों का बहुत सार्थक उपयोग किया है लेकिन आपके सभी नाटकों की अवधि 2 घंटे के आसपास ही है जो जाहिर है, शहरी दर्शकों को नजर में रख कर निर्धारित है जबकि गांव में अभी भी लोग पूरी रात नाटक, नौटंकी देखते हैं। मैंने अपनी गांव की यात्राओं के विवरण और अनुभव भी उनसे साझा किए। उन्होंने कहा “जरूर अब हम गांव के लोगों की जरूरत के मुताबिक नाटक बनायेंगे और अगर मै नहीं कर सका तो यह जिम्मेदारी तुम्हारी है। वे यह जिम्मेदारी मुझ पर और IPTA पर छोड़ कर गए हैं, अभी भी हम इसे पूरा नहीं कर पाए हैं। अभी तो मैं इस संकल्प को दोहरा ही सकता हूं और साथियों से आवाह्न कर सकता हूं कि इस महादेश के गांवों और कस्बों के करोड़ों लोग कला और नाटक के शहरी लोगों से ज्यादा पारखी हैं, जरूरत है वहां तक पहुंचने की। हबीब तनवीर के काम को हम इसी तरह आगे बढ़ा सकते हैं।
उन्हें सादर नमन।
Posted Date:September 1, 2020
6:05 pm