आनंद मोहन जुत्शी उर्फ गुलज़ार देहलवी साहब बेशक 94साल के रहे हों, लेकिन उनके भीतर का शायर बदस्तूर अपनी पूरी रवानगी के साथ मौजूद था। उनके गुज़रने से दिल्ली वालों का अज़ीम शायर तो चला ही गया, शायरी की दुनिया का वो शख्स भी चला गया जिसकी मौजूदगी का एहसास हर आम ओ खास महफ़िल में ज़रूर होता था। गुलज़ार देहलवी साहब तमाम मंचीय शायरों की उस फ़ौज का हिस्सा नहीं थे, जिनकी मार्केटिंग और वाहवाही के लिए एक पूरी जमात लगी रहती हो लेकिन उनकी शख्सियत को शायरी के बाज़ार का हर शायर सलाम ज़रूर करता था। जाने माने पत्रकार, दिल्ली को बेहद करीब से देखने समझने और इसके इतिहास से लेकर संस्कृति को अपनी बेहतरीन कलमकारी के ज़रिये पाठकों के सामने पेश करने वाले विवेश शुक्ल ने नवभारत टाइम्स में गुलज़ार साहब को कुछ यूं याद किया। आप भी पढ़िए…
मनहूसियत का चालू दौर एक और बुरी खबर दे गया। इमाम ए उर्दू और शाहजहांनाबाद की आन बान शान, पुरानी दिल्ली की रवादारी, वाजादरी, खुश मिजाज़ अखलाक के मालिक पंडित आनंद मोहन जुत्शी गुलज़ार देहलवी नहीं रहे। वे 95 साल के थे।
सफ़ेद चूड़ीदार पायजामा और गुलाब के फूल लगी सफ़ेद शेर वानी पहनने वाले गुलज़ार साहब की सरपरस्ती में दिल्ली में गुजरे 65-70 सालों के दौरान सैकड़ों मुशायरे हुए थे। इस दरम्यान कोई खास मुशायरा उनकी गैर-मौजूदगी में हुआ हो इस बात की उम्मीद करना मुमकिन नहीं है। उन मुशायरों में फ़ैज़, फ़राज़, जोश, जिगर, फ़िराक़, मजाज़, साहिर, अली सरदार और कई आला शायर शिरकत करते थे।
गुलजार साहब लाल किले पर हर साल होने वाले जश्ने-आज़ादी के ऐतिहासिक मुशायरे से लेकर खुसरो के उर्स पर होने वाले मुशायरों की सदारत कर रहे थे। उन्हें गालिब, मीर, इक़बाल, फ़ैज़ से लेकर दूसरे उस्ताद शायरों के हजारों शेर याद थे । गुलज़ार साहब की याददाश्त कमाल की थी।
गुलजार साहब और कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी दिल्ली के मुशयारों और दूसरी अदबी महफिलों की जान हुआ करते थे।‘दिल्ली जिसे कहते हैं वतन है मेराउर्दू जिसे कहते हैं ज़ुबां है मेरी’ गुलजार साहब को दिल्ली का उर्दू अदब से जुड़ा समाज अपना रहबर और रहनुमा मानता था।
गुलज़ार देहलवी का ताल्लुक़ दिल्ली की कश्मीरी पण्डित बिरादरी से था, जो सीता राम बाज़ार में बस गई थी। वे दिल्ली और देश में अन्तिम सांसें ले रही गंगा जमुनी तहज़ीब का रोशन चेहरा थे । धर्म निरपेक्ष मूल्यों के प्रति उनकी आस्था अटूट थी । उन्होंने 1947 का दौर भी देखा था । तब दिल्ली से मुसलमान पाकिस्तान पलायन कर रहे थे। कई जगहों में मुसलमानों के कुछ परिवार ही रह गए थे और मस्जिदें वीरान होने लगी थीं । तब गुलजार साहब ने उन मस्जिदों में मुइज़्ज़िन का फ़र्ज़ भी अदा किया।
देहलवी साहब एक शेर बहुत मकबूल हुआ था जिसे वे हर मुशायरे में पढ़ते थे। आप भी पढे- “मैं वो हिन्दू हूँ कि नाज़ा हैं मुसलमां जिसपे, दिल मे क़ाबा है मेरे, दिल है सनमखानों में, जोश का क़ौल है और अपना अक़ीदा ‘गुलज़ार’ हम सा काफ़िर न हुआ कोई मुसलमानों में !” “बुझती हुई दिल्ली का धुआँ है हम लोग, कुछ रोज़ में पूछोगे कहाँ है हम लोग।”
गुलजार साहब की शख्सियत का दूसरा पहलू ये था कि वे रामलीला मैदान में होने वाली रामलीला के आयोजन से भी सक्रिय रूप से जुड़ते थे। वे रामलीला मैदान के आसपास के स्कूलों में जाकर बच्चों को रामलीला के समय वालंटियर बनने के लिए आमंत्रित करते थे।
गुलजार साहब बताते थे कि दिल्ली में कश्मीरी परिवार 19 वीं सदी के मध्य से आकर बसने लगे थे। ये तब सीताराम बाजार में रहने लगे। ये जिधर रहते थे उस जगह को कहा जाने लगा गली कश्मीरियान। इनके सरनेम रेहु, जुत्शी, हक्सर, कुंजरू, कौल,टिक्कू,जुत्शी वगैरह थे।
गुलजार साहब गुजरे कुछ बरसों से नोएडा में शिफ्ट कर गये थे। वहां लेखिका फरहत रिजवी भी उनकी पड़ोसी थी। वे बताती हैं कि उनके घर में अदबी महफ़िलें सजती जिनमें लेखक, पत्रकार दानिशवर शरीक होते। हामिद अंसारी साहब भी एक महफ़िल में शरीक होने उनके घर आए। वे अपने से उम्र में बहुत छोटे और जूनियर लोगों की हमेशा हौसलाअफ़जाई करते।
गुलजार देहलवी की पढ़ाई एंग्लो संस्कृत स्कूल और हिन्दू कॉलेज में हुई थी। उन्हें इस बात का फख्र था कि उनके मामा
पंडित लक्ष्मी धर ने दिल्ली यूनिवर्सिटी का ध्येय वाक्य ‘निष्ठा धृति: सत्यम्’ दिया था। वे सेंट स्टीफंस कॉलेज में संस्कृत पढ़ाते थे।
बेशक गुलजार साहब की मृत्यु से एक युग का अंत हो गया है। दिल्ली उन्हें याद करेगी इस शेर के साथ-
तुम याद करोगे हमारे बाद हमें,
ये रौनक ए बज्म ओ महफिल फिर कहां
Posted Date:June 13, 2020
2:04 pm Tags: गुलज़ार देहलवी, आनंद मोहन जुत्शी, विवेक शुक्ल, शायर देहलवी, शायर गुलज़ार देहलवी, Gulzar Dehlavi, Poet Dehlavi, Vivek Shukla