जॉर्ज फर्नांडिस की कुछ अनसुनी कहानियां…

पूरा देश जॉर्ज फर्नांडिस को अपने अपने तरीके से याद कर रहा है। आम आदमी से जुड़े, संघर्षों में तपे और सादगी के पर्याय जॉर्ज साहब बरसों से गुमनामी के अंधेरे में गंभीर बीमारी से अकेले जूझ रहे थे। फिर 29 जनवरी 2019 को आखिरकार उन्होंने सबको हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। जाने माने वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रम राव ने उनके साथ लंबा वक्त बिताया, संघर्ष के दिनों के साथी रहे, इमरजेंसी के दौरान जेल में साथ साथ बहुत समय बिताया। के. विक्रमराव ने उन अतीत के पलों को कैसे याद किया है, आप भी पढ़िए…

      प्राण तजकर भी जॉर्ज मैथ्यू फर्नान्डिस इतिहास रच गये। ईसाई थे लेकिन लोदी रोड विद्युत शवदाह गृह में चिता बनी। शेष अस्थियाँ पृथ्वीराज रोड क्रिश्चियन कब्रगाह में गजभर भूमि में दफ्न हो गईं। जीते जी भौतिकवादी और लोहियावादी रहे। ईसाई माता-पिता के पुत्र, सुन्नी महिला के पति (मौलाना आजाद के साथी, शिक्षाशास्त्री, हुमायूँ कबीर के दामाद) गीताज्ञानी और मानसपाठी जॉर्ज से बड़ा कोई और सेक्युलर राजनेता क्या भारत में मिलेगा?

जब सांस थमी तो वे अट्ठासी के हो गये थे। पर उन्हें पता नहीं था। स्मृति लोप के कारण। जिस युवा समाजवादी द्वारा बन्द के एक ऐलान पर सदागतिमान, करोड़ों की आबादीवाली मुम्बई सुन्न पड़ जाती थी। जिस मजदूर पुरोधा के एक संकेत पर देश में रेल का चक्का जाम हो जाता था। जिस सत्तर-वर्षीय पलटन मंत्री ने विश्व की उच्चतम रणभूमि साइचिन की अठारह बार यात्रा कर मियां परवेज मुशर्रफ को पटकनी दी थी। सरकारें बनाने-उलटने का दंभ भरनेवाले कार्पोरेट बांकों को उनके सम्मेलन में ही जिस उद्योग मंत्री ने तानाशाह (इमरजेंसी में) के सामने हड़बड़ाते हुये चूहे की संज्ञा दी, वही पुरूष अब अनन्त में विलीन हो गया। जॉर्ज के देशभर में फैले मित्र याद किया करते रहे। विशेषकर श्रमिक नेता विजय नारायण (काशीवासी) और साहित्यकार कमलेश शुक्ल, जो मेरे साथ तिहाड़ जेल में बडौदा डायनामाइट केस में जॉर्ज के 24 सहअभियुक्तों में रहे। अपने अट्ठावन वर्षों के सामीप्य पर आधारित स्मृतियां लिए, एक सुहृद को याद करते मेरे इस लेख का मकसद यही है कि कुछ उन घटनाओं और बातों का उल्लेख हो, जो अनजानी रहीं। काफी अचरजभरी थीं।

  मसलन जून का गर्म महीना था। चवालीस साल बीते। इन्दिरा गांधी का हुकुम स्पष्ट था सी.बी.आई. के लिये कि भूमिगत जॉर्ज को जीवित नहीं पकड़ना है। दौर इमर्जेंसी का था। दो लाख विरोधी सीखचों के पीछे ढकेल दिये गये थे। कुछ ही जननेता कैद से बचे थे। नानाजी देशमुख, कर्पूरी ठाकुर आदि। जार्ज की खोज सरगर्मी से थी। उस दिन (10 जून 1976) शाम को बडौदा जेल में हमें जेलअधीक्षक पण्ड्या ने बताया कि कलकत्ता में जार्ज को पकड़ लिया गया है। तब तक मैं अभियुक्त नम्बर एक था। मुकदमों की तहरीर में भारत सरकार बनाम मुलजिम विक्रम राव तथा अन्य था। फिर क्रम बदल गया। जार्ज का नाम मेरे ऊपर आ गया। तिहाड़ जेल में पहुँचने पर साथी विजय नारायण से जार्ज की गिरफ्तारी का सारा किस्सा पता चला। कोलकता के चौरंगी के पास संत पाल कैथिड्रल है। बड़ौदा फिर दिल्ली से भागते हुये जॉर्ज ने कोलकता की चर्च में पनाह पाई। कभी तरूणाई में बंगलौर में पादरी का प्रशिक्षण ठुकरानेवाले, धर्म को बकवास कहनेवाले जार्ज ने अपने राजनेता मित्र रूडोल्फ रॉड्रिक्स की मदद से चर्च में कमरा पाया। रूडोल्फ को 1977 में जनता पार्टी सरकार ने राज्य सभा में एंग्लो-इण्डियन प्रतिनिधि के तौर पर मनोनीत किया था। सभी राज्यों की पुलिस और सी.बी.आई. के टोहीजन शिकार को सूंघने में जुटे रहे। शिकंजा कसता गया। चर्च पर छापा पड़ा। पादरी विजयन ने जॉर्ज को छिपा रखा था। पुलिस को बताया कि उनका ईसाई अतिथि रह रहा है। पर पुलिसिया तहकीकात चालू रही। कमरे में ही एक छोटे से बक्से में एक रेलवे कार्ड मिला। वह आल-इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के अध्यक्ष का प्रथम एसी वाला कार्ड पास था। नाम लिखा था जॉर्ज फर्नाण्डिस। बस पुलिस टीम उछल पड़ी, मानो लाटरी खुल गई हो। तुरन्त प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क साधा गया। बेशकीमती कैदी का क्या किया जाए ? उस रात जार्ज को गुपचुप रूसी फौजी जहाज इल्यूशिन से दिल्ली ले जाया गया। इन्दिरा गांधी तब मास्को के दौरे पर थीं। उनसे फोन पर निर्देश लेने में समय लगा। इस बीच पादरी विजयन ने कोलकता में ब्रिटिश और जर्मन उपराजदूतावास को बता दिया कि जॉर्ज कैद हो गये हैं। खबर लन्दन और बर्लिन पहुंची। ब्रिटिश प्रधानमंत्री जेम्स कैलाघन, जर्मन चांसलर विली ब्राण्ड, आस्ट्रिया के चांसलर ब्रूनो क्राइस्की तथा नार्वे के प्रधानमंत्री ओडवार नोर्डी जो सोशलिस्ट इन्टर्नेशनल के नेता थे, ने एक साथ इन्दिरा गांधी को मास्को में फोन पर आगाह किया कि यदि जॉर्ज का एनकाउन्टर कर दिया गया तो परिणाम गम्भीर होंगे। योजना थी कि जार्ज की लाश तक न मिले। गुमशुदा दिखा दिया जाता। वे बच गये और तिहाड़ जेल में रखे गये। 

जॉर्ज की राजनेता वाली ओजस्विता तिहाड़ जेल में हमारे बड़े काम आयी। दशहरा का पर्व आया (अक्टूबर 1976)। तय हुआ कि अखण्ड मानसपाठ किया जाय। पूर्वी रेल यूनियन के नेता महेन्द्र नारायण वाजपेयी ने संचालन संभाला। मानस की प्रतियाँ भी आ गईं। आसन साधा गया। मुश्किल आयी कि हम हिन्दूजन केवल आधे-पौन घंटे की क्षमतावाले ही थे। कमसे कम दो तीन घंटे का माद्दा केवल जॉर्ज में था। आखिर श्रमिक रैली, चुनावी सभाओं और लोकसभा में भाषण की आदत तो थी ही। तय हुआ कि जॉर्ज को पाठ के लिए चैबीस में से बारह घंटे चार दौर में आवंटित किये जाये। शेष हम बारह लोग एक एक घंटे तक दो किश्तों में पाठ करें। इसमें थे सर्वोदयी प्रभुदास पटवारी जो बाद में तमिलनाडु के राज्यपाल बने (फिर प्रधानमंत्री बनते ही इन्दिरा गांधी ने उन्हें बर्खास्त कर दिया था)। स्वर्गीय वीरेन शाह थे। नामी गिरामी उद्योगपति और भाजपाई सांसद, वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे। दोहों के उच्चारण, लय तथा शुद्धता में कवि कमलेश शुक्ल माहिर रहे। आखिर पूर्वी उत्तर प्रदेश के विप्रशिरोमणि जो थे। विजय नारायण, महेन्द्र नारायण वाजपेयी, वकील जसवंत चौहान बड़े सहायक रहे। तभी भारतीय जनसंघ (तब भाजपा जन्मी नहीं थी) के विजय मलहोत्रा, सुन्दर सिंह भंडारी, मदनलाल खुराना और प्राणनाथ लेखी, अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल आदि भी हमारे सत्रह नम्बर वार्ड में यदाकदा आते थे। एक बार हम सब को भोजन करते समय ये राजनेता “त्वदीयम् वस्तु गोविन्दम्” उच्चारते देखकर अचरज में पड़ गये। वे समझते थे कि लोहिया के अनुयायी सब अनीश्वरवादी होते हैं।

लोहिया का चेला हो और विवादित व्यक्तित्व वाला न हो ? नामुमकिन। भ्रष्टाचार के तीन भयंकर आरोप लगे थे जॉर्ज़ पर। कारगिल के शहीदों की लाशें लाने के लिये विदेश से अल्मूनियम के ताबूत का आयात किया गया। आरोप था कि इनकी खरीद में लूट हुई है।

जॉर्ज को सोनिया गांधी ने कफन चोर कहा था। तहलका ने एक स्टिंग आपरेशन में शस्त्रों की खरीद में दलाली का आरोप दिखाया। इस्राइल से शस्त्र खरीदने में भी रिश्वत का आरोप लगाया गया। सबकी सी.बी.आई. ने जांच की। रक्षा विशेषज्ञ ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने गवाही दी थी, जो बाद में राष्ट्रपति बने । सोनियानीत यूपीए सरकार ने चार वर्ष तक जांच टाला। अन्ततः सी.बी.आई. ने इन मामलों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बता दिया कि जॉर्ज फर्नाण्डिस निरपराध हैं, दोषमुक्त करार दिये गये।

       मुम्बई की चौपाटी के बेंचो पर खुले आसमान तले जवानी बिता देने वाले, विपन्न जॉर्ज फर्नाण्डिस का मुम्बई महानगर पालिका के पार्षद से लोकसभा पहुँचने का किस्सा भी इतिहास का दस्तावेज है। मुम्बई में चार लोकसभाई चुनावों (1967) में सबसे ज्यादा दिलचस्प था दक्षिण मुम्बई में। बेताज के बादशाह, नेहरू काबीना के वरिष्ठ मंत्री एस.के. पाटिल का सामना था नगर पार्षद और श्रमिक पुरोधा जॉर्ज फर्नांडिस से। तीनों लोक सभाओं के चुनाव में अपार बहुमत से जीतनेवाले सदाशिव कान्होजी (सदोबा) पाटिल चौथी बार दक्षिण मुम्बई क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी थे। इन्दिरा गांधी काबीना में वे दमदार मंत्री थे।

जब जॉर्ज ने लैला से शादी की

बात दिसम्बर 1966 की है। सदोबा पाटिल से मिलने हम संवाददाता प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में खबर की खोज में गये। उन्होंने विदेश नीति से लेकर खाद्यनीति तक अपने पाण्डित्यपूर्ण विचार बेलौस व्यक्त किये हालांकि ये विषय उनके केन्द्रीय मंत्रालय से नहीं जुड़े थे। बयान तब भाषणनुमा हो रहा था। तभी मैंने उनसे पूछा कि लोकसभा के चुनाव की घोषणा चन्द हफ्तों में होने वाली है। आप क्या फिर दक्षिण मुम्बई से ही उम्मीदवारी करेंगे। कुछ अचंभे के साथ अचरजभरे स्वर में वे बोले – “और कहाँ से फिर ?” मैंने पूछा कि “यूँ तो आप अजेय हैं, पर इस बार लोहियावादी जॉर्ज फर्नांडिस आपको टक्कर देनेवाले है।“ तनिक भौं सिकोड़ कर पाटिल बोले, “कौन है यह फर्नांडिस ? वही म्युनिसिपल पार्षद ?” मेरा अगला वाक्य था, “आप तो महाबली हैं। आपको तो बस आपसे भी बड़ा महाबली ही हरा सकता है|” कुछ मुदित मुद्रा में वे बोले, “मुझे तो भगवान भी नही हरा सकते हैं।” उस जमाने में रिपोर्टरों के पास टेप रिकार्डर नहीं होता था। अतः जैसे ही बयान पर विवाद उठाता था तो राजनेता साफ मुकर जाते थे और हम रिपोर्टरों की शामत आती थी। इसीलिये बाहर निकलकर मैने अपने संवाददाता साथियों से नोट्स मिलाये। तय हुआ कि हमसब की रपट का इन्ट्रो (प्रथम पैराग्राफ) होगा कि सादोबा पाटिल ने कहा कि “भगवान भी उन्हें नही हरा सकता है।” अगली सुबह मुम्बई के सभी दैनिकों में यही सुर्खी थी। जॉर्ज, जिनका पार्षद कार्यालय मेरे ऑफिस टाइम्स ऑफ़ इण्डिया भवन से लगा हुआ था, से मैं मिला और उन्हें हिन्दू भगवानों के अवतार के किस्से बताये। फिर कहा कि वह वामनावतार लें और विरोचनपुत्र दैत्यराज महाबली बलि (पाटिल) से भिड़ें। जार्ज तब सैंतीस वर्ष के थे। तय कर लिया सब साथियों ने कि पाटिल को टक्कर दी जाये। यह कहानी थी दिये की और तूफान की। अभियान सूत्र मात्र एक वाक्य था: “पाटिल कहते है कि उन्हें भगवान भी नहीं हरा सकता है|” फिर इसके बाद सात किश्तों में पोस्टर निकले। पहला था, “क्या पाटिल को साक्षात परमेश्वर भी नहीं हरा सकते?” और अन्तिम पोस्टर था, “अब मुकाबला पाटिल बनाम आमजन का है|” फिर मतदान के परिणाम आये। जॉर्ज को 48.5 प्रतिशत वोट मिले। परमशक्तिशाली, महाबलवान, अहंकारी, अजेय एस.के. पाटिल चालीस हजार वोटों से हारे।

एक बात जॉर्ज के बारे में और। समाजवादी हो और आतिशी न हो? यही तो उनकी फितरत होती है। जार्ज ने रक्षामंत्री के आवास (तीन कृष्ण मेनन मार्ग) में बर्मा के विद्रोहियों का दफ्तर खोल दिया। इन लोगों ने फौजी तानाशाहों के विरूद्ध मोर्चा खोला था। तिब्बत में दलाई लामा की घर वापसी का समर्थन और उनके बागियों को धन-मन से जॉर्ज मदद करते रहे। अण्डमान के समीप भारतीय नौसेना ने शस्त्रों से लदे जहाज पकड़े जो अराकान पर्वत के मुस्लिम पीड़ितों के लिये लाये जा रहे थे। जॉर्ज ने जलसेना कमाण्डर को आदेश दिया कि ये जहाज रोके न जाएँ। श्रीलंका के तमिल विद्रोहियों ने अपने दिवंगत नेता वी. प्रभाकरण के बाद जार्ज को अपना सबसे निकट का हमदर्द माना था। सच्चा समाजवादी दुनिया के हर कोने में हो रहे प्रत्येक विप्लव, विद्रोह, क्रान्ति, उथलपुथल, संघर्ष, बगावत और गदर का समर्थक होता है। क्योंकि उससे व्यवस्था बदलती है, सुधरती है। जॉर्ज सदा बदलाव के पक्षधर रहे। इसलिए आज भी आम जन के वे मनपसन्द राजनेता हैं।

Posted Date:

February 2, 2019

1:21 pm
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