संस्कृति को सरहद नहीं संवाद चाहिए-अजीत कौर

नई दिल्ली: साहित्य और कला को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। पड़ोसी देशों की कला, साहित्य और संस्कृति को
एक मंच पर लाने वाला फोसवाल साहित्य महोत्सव इस बार 3 से 6 दिसंबर तक नई दिल्ली में आयोजित किया जा रहा
है। फोसवाल (पहले इसे सार्क महोत्सव कहते थे)का यह 64वां महोत्सव है। इसका आयोजन फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स
एंड लिटरेचर करता है। महोत्सव में भारत सहित नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका के लेखक, साहित्यकार व
कलाप्रेमी भाग लेने पहुंचेंगे। महोत्सव के पहले सत्र में भक्ति, बौद्ध धर्म एवं सूफ़ीवाद पर विमर्श होगा। बाद के कई सत्रों में
दो संवेदनहीन युद्धों की पीड़ा पर विभिन्न वक्ता अपनी राय रखेंगे।

महोत्सव विविध कार्यक्रमों का साक्षी बनेगा, जिसमें कला, संस्कृति से जुड़े विभिन्न विषयों पर व्याख्यान, कविता पाठ व
अन्य साहित्यिक गतिविधियां, अनुवाद विधा पर प्रकाश जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। कार्यक्रम के कई सत्र हिंदी, उर्दू और
पंजाबी कविताओं के पाठ को समर्पित हैं। जिसमें अनामिका, सविता सिंह, डॉ वनिता, डॉ रक्षंदा जलील जैसे बड़े नाम
शामिल हैं। कार्यक्रम का उद्घाटन जानी मानी लेखिका व फोसवाल की अध्यक्ष पद्मश्री अजीत कौर करेंगी। और सभी
कार्यक्रम एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के सभागार में संपन्न होंगे। इस मौके पर पड़ोसी देश के लेखकों को
पुरस्कृत भी किया जाएगा।


पिछले कई सालों से पंजाबी की मशहूर साहित्यकार और फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड लिटरेचर की संस्थापक अध्यक्ष
अजीत कौर खुद अपने साधन से इस प्रोग्राम का आयोजन कर रही हैं। लेकिन क्या ऐसे आयोजन से कुछ लाभ हैं और क्या है
इसका इतिहास? जब इसके बारे में उनसे पूछा तो उनका कहना था- एक लंबी लड़ाई की कहानी है ये। मैंने देखा कि
सरहद की दीवार तो है ही, राजनीति की एक दीवार भी एक देश के लोगों को दूसरे देश के लोगों से अलग करती है।
पड़ोसी देशों के लेखकों के बीच कोई संवाद का जरिया ही नहीं दिखता था। फिर मैंने सोचा कि क्यों नहीं पड़ोसी देशों के
लेखकों को आपस में मिलाया जाए। राईटर्स कांफ्रेंस का विचार मन में आया तो सबसे पहला नाम पाकिस्तान का ही
आया। 1947 के बाद से पाकिस्तान का कोई भी लेखक इंडिया आया ही नहीं था। फिर शुरु हुआ मंत्रालय का चक्कर।
वीजा मिलने की प्रक्रिया आसान नहीं रही। लेकिन मैं तो जिद पर अड़ी रही कि मुझे तो बुलाना है। फिर 1987 में 10
वीजा मिला। उस वक्त वहां के दिग्गज लेखकों में अहमद फराज, मंशा याद, इंतिजार हुसैन, मुहम्मद अफजल रंधावा,
हसन जैगम जैसे लोग आए थे। त्रिवेणी सभागार में आयोजन हुआ था। भीड़ देखकर मैं तो दंग थी। हैदराबाद से लोग आए
थे, लखनऊ से, नासिक से…चकित थी मैं तो। लोग पड़ोसी देश के अपने प्रिय कथाकारों को सुनने आए थे। हॉल की
क्षमता से कई गुणा ज्यादा लोग। कमलेश्वर जी ने हिंदी कहानी पड़ी थी। जोगिंदर पाल ने उर्दू कहानी पढ़ी। वह कहानी
दरवार था। फिर मैं अपने खर्च पर कभी नेपाल के लेखकों को बुलाने लगी तो कभी श्रीलंका के लेखकों को। उस समय विदेश
मंत्रालय में एक बहुत बड़ी अधिकारी थीं मीरा शंकर। उनकी सोच बड़ी थी। एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया। अपने एक साथी
को भेजा। मैं उनके साथ गई। उन्होंने कहा कि आप इस तरह अलग-अलग देश के लोगों को बुलाने के बदले पड़ोस के सात

देशों (उस समय सार्क में सात देश)के लेखकों को एक साथ क्यों नहीं बुलातीं। मैंने कहा कि आप बुलाइये। मैं साथ दूंगी।
उन्होंने कहा कि हम नहीं कर सकते। ताज्जुब की बात यह है कि सार्क देशों के आपसी रिश्तों के लिए जो नियम और कायदे
तय हुए थे, उसमें संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं थी। उन्होंने आर्थिक मदद का भरोसा दिया। इस तरह सार्क राइटर्स
कांफ्रेस का आयोजन अप्रैल 2000 में शुरु हुआ। काफी संख्या में लोग आए। विराट जमघट था संस्कृति से जुड़े लोगों का।
तब से आज तक सार्क फेस्टिवल का आयोजन और इससे जुड़े रहना मेरे लिए हमेशा सुकून भरा रहा है। इसे आप एक बड़ी
उपलब्धि की तरह भी देख सकते हैं। अब यह आठ मुल्कों में एकमात्र ऐसी संस्था है। संतुष्टि और सुख मिलता है यह
देखकर कि इसके जरिये आठ मुल्कों के लेखक और कलाकार आपस में मिल पाते हैं। अपने विचार साझा कर पाते हैं। एक-
दूसरे की संस्कृति के बारे में, एक-दूसरे की रचना प्रक्रिया के बारे में जान-समझ पाते हैं।
अब इस महोत्सव का नाम बदलकर फोसवाल लिटरेचर फेस्टिवल हो गया है। अजीत कौर कहती हैं सच तो यह है कि
हम एक कठिन समय में जी रहे हैं। इंसानियत को खोखला बनाने का जो लगातार जतन हो रहा है, वह हमें एक अजीब से
अंधेरे की ओर लेकर जा रहा है, जहां हमें सूरज भी काले रंगों में चमकता दिखाई देता है। हमारे समय का यह संकट ऐसा
है कि आदमी और प्रकृति, आदमी और समाज, आदमी और धर्म, आदमी और ब्रह्मांड सब अपनी-अपनी धुरी छोड़ चुके हैं।
लेकिन मेरा मानना है कि संवाद से सारे अवरोध हटाए जा सकते हैं। सार्क फेस्टिवल का आयोजन संवाद का ही एक मंच
है। रचनाकारों का रचनाकारों से…संस्कृति का संस्कृति से। हमें लगता है कि इस तरह के और मंच बनें तो यह जो मन का
अंधेरा है, वह छंटेगा। सार्क फेस्टिवल के जरिए जिस चुप्पी को हमने तोड़ने की कोशिश की है, उसके परिणाम तो सुखद
रहे हैं। और सच तो यह है कि अगर कोई लेखक किसी दूसरे देश के लेखक से मिलता है, बातें करता है या अपनी रचनाओं
को साझा करता है तो उससे दोनों के लेखन में परिपक्वता तो आती ही है।

Posted Date:

December 1, 2023

8:16 pm

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Copyright 2024 @ Vaidehi Media- All rights reserved. Managed by iPistis