कायस्थों का खान-पान (तीसरी कड़ी)
— संजय श्रीवास्तव
खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. ये भी कहते हैं कि खाना एक-दूसरे को जोड़ता है. खाना हमारे तौरतरीकों, लिहाज और परंपराओं को जाहिर करता है. कायस्थों का खाना भी ऐसा ही है. हम आज जो खाते-पीते हैं, वो कई कल्चर्स का फ्यूजन है. ये विदेशी व्यापारियों, यात्रियों, बाहर की यात्रा पर गए हमारे लोगों के साथ मुगलिया और ब्रितानी राज की देन माना जाता है. हालांकि इतिहासकारों का मानना है कि जब ग्रीक हमलावर के तौर पर पश्चिमी सीमांत इलाकों तक आए तो उनके खानों का भी भारत में फ्यूजन हुआ. हर खाने, मसालों, सब्जियों, मिष्ठानों और पेय की अपनी कहानियां हैं. कहना चाहिए कि भारतीय खानपान में फ्यूजन का तड़का डालने का काम कायस्थों ने काफी कुछ किया.
कायस्थ पहले तो लंबे समय तक कई राज्यों और रियासतों के शासक रहे. मुगल और अंग्रेज राज आया तो उन्हें महत्वपूर्ण ओहदों और पोजिशन मिलीं. उनकी रसोई भी उसी तरह समृद्ध होती गई. उन्होंने तमाम खाने को नए रंग-रूप दिया. राजस्थान से लेकर उत्तर भारत और बंगाल, असम से लेकर हैदराबाद तक फैले कायस्थों ने तमाम तरह खानों को विविधता दी. मुगल जब भारत आए तो वो ग्रेवी वाले खानों की बजाए स्टफ्ड खाना खाते थे. लेकिन उनके व्यंजनों को मांसाहार से लेकर शाकाहार में ग्रेवी के साथ मिश्रित करने का काम कायस्थों ने किया.
केटी आचार्या की किताब “ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड” कहती है, “वर्ष 1126 से 1138 तक हैदराबाद से 160 किलोमीटर दूर बीदर रियासत के राजा सोमेश्वर को मीट खाने का बहुत शौक था. मीट को हल्दी, लहसुन के पेस्ट के साथ मेरीनेट करने का काम उसी ने शुरू करवाया था. राजा सोमेश्वर काफी विद्वान था. उसने तब 100 अध्यायों की एक किताब लिखी थी, जिसमें प्रशासन से लेकर ज्योतिष और पाक कला के बारे में लिखा गया था. सोमेश्वर मछली, क्रैब और भेड़ (पोर्क भी) को भुनवाता और सरसों तेल से उन्हें फ्राई कराता था. हालांकि मैं साफ कर दूं कि भारत में मसालेदार करी या ग्रेवी का इतिहास ईसा से 2000 साल पहले मिलता है.
मैं कायस्थ कुजीन पर किताब” मिसेज एलजी टेबल” लिखने वाली अनूठी विशाल का एक इंटरव्यू पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने बताया कि किस तरह कायस्थों ने कोफ्ते और अन्य व्यंजनों को ग्रेवी से जोड़ा. फिर बिरयानी, कबाब, कोफ्ता और हलवा जैसे व्यंजनों का देशीकरण करने के ना जाने कितने तरीके अपनाए. इनके विविध रूप और कैसे आते चले गए. उसके बारे में आगे बताऊंगा. हलवा मूल रूप से फारस की देन है. 07वीं शताब्दी में इसका पहली बार जब जिक्र हुआ तो इसे हलवन कहा जाता था. फिर 09 सदी में इसे खजूर और दूध मिलाकर बनाने का उल्लेख मिलता है. लेकिन जब ये मुगलों के साथ भारत आय़ा तो इसे आटा से लेकर सूजी, बेसन, मूंग दाल, आलू, कद्दू, शकरकंदी और कई तरह के ड्राइफ्रूट्स, दूध मिलाकर बनाया गया. जिसमें कायस्थों ने खास भूमिका अदा की. इसमें सामग्री को भूनने, घी, तेल और पानी की संतुलित मात्रा में मिलाने के साथ उचित समय पर दूध मिलाने का पूरा खास तरीका था. तब आजकल की तरह गैस के चूल्हे नहीं थे. तब आमतौर पर लकड़ी के चूल्हों का इस्तेमाल होता था. इन चूल्हों में तापमान को नियंत्रित करने के अपने तौरतरीके थे. पीतल और कांसे के बर्तनों के साथ मिट्टी के बर्तनों का अपना महत्व था.
किचन में आजकल की तरह ज्यादा उपकरण नहीं थे. मसालों की पिसाई सिलबट्टों पर होती थी. सील को समय समय पर छेनी से टांका जाता था. इसका अलग विज्ञान था. ताकि उस पर मसाला पुख्ता तरीके से पिसा जा सके. लोहे से लेकर पत्थर के खल-मूसर थे, जिसमें खड़े मसाले से लेकर नमक, गुड़ और अन्य खानपान की सामग्रियों को कूटा जाता था. रोज हाथ की पत्थर की चक्की का इस्तेमाल होता था. हर रसोई में कम से कम पत्थर के बने ये उपकरण होते ही होते थे. दूध और अन्य सामग्रियों को ओटने के लिए बड़ी-बड़ी मथनियां हुआ करती थींं. पानी मिट्टी के घड़ों से लेकर पीतल और कांसे के पात्रों में रखा जाता था. तेल और घी को आमतौर पर चीनी मिट्टी के मर्तबान में रखा जाता था.
कायस्थ खान-पान में ये सब इसलिए कर पाए, क्योंकि हिंदू जाति संरचना के बीच एक ऐसे वर्ग के तौर पर उभरे थे, जो अपने परिवेश से लेकर खानपान, रहन-सहन और कल्चर को लेकर काफी लिबरल और प्रयोगवादी दृष्टिकोण के थे. अक्सर वो उलाहनाओं का भी शिकार हुए. हालांकि वो इस लेख का विषय नहीं है. कोई खानपान तभी आगे बढ़ पाता है, जबकि उसमें जायजा, लज्जत, स्वाद और खास स्टाइल हो. साथ ही वो प्रयोगों की यात्रा से भी बावस्ता होता रहे. कायस्थों की रसोई इस मामले में हमेशा आगे रही. कई बार कायस्थों ने मुगलों को भारतीय खाने को लेकर सुझाव भी दिए. औरंगजेब अपने पूर्ववर्ती मुगल शासकों की तरह मांसाहार को कम पसंद करता था. उसे शाकाहार ज्यादा पसंद था. उसे उसके दरबारी कायस्थों ने खास पंचमेल दाल से रू-ब-रू कराया. कुबोली की किताब रुकत-ए-आलमगीरी खासतौर पर इसका जिक्र करती है. औरंगजेब को शाकाहारी ड्रायफ्रूट्स वाली बिरयानी पसंद आती थी. साथ ही वो पंचमेल दाल, जो राजस्थानी रसोई से निकलकर आई थी. माथुर मानते हैं कि ये दाल खासतौर पर उनके किचन में पहले आजमाई गई थी. अबुल फजल आइने अकबरी में लिखते हैं कि अकबर के राज में खानपान पर एक पूरा मंत्रालय ही बना दिया गया था, जिसमें कायस्थ भी थे.
(संजय श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से)
April 11, 2020
9:59 am Tags: कायस्थों का खान पान, संजय श्रीवास्तव, ज़ायका कायस्थों का, संस्कृति और ज़ायका, मटन और फिश करी, नॉनवेज और वेज ज़ायका