इच्छा और अनिच्छा से परे का अध्यात्म

रवींद्र त्रिपाठी

क्या धर्म या अध्यात्म इच्छा और अनिच्छा से परे हो सकता है? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या कोई ऐसा मंदिर हो सकता है जिसमें किसी ऐसे भक्त का प्रवेश वर्जित हो जिसमें कुछ इच्छा बची हो? वैसे भी सोचने वाली बात ये है कि कोई भक्त किसी मंदिर या भगवान के सामने तभी तो जाता है जब उसकी कोई मन्नत हो या वो भगवान से कुछ चाहता हो। निष्काम कर्मयोग तो सिर्फ गीता में लिखी गई बात है जिसे बहुत कम ही लोग दैनिक जीवन में मानते हैं। लेकिन संजीव जौहरी का लिखा औऱ उनके द्वारा ही निर्देशित नाटक `धर्मा ट्रैवेल्स’ ऐसी ही संकल्पनाओं से जूझता है। पिछले दिनों खेले गए नाटक ‘एलां फ्रांसे’ का केंद्रीय पात्र अवी (जिसकी भूमिका भी संजीव जौहरी ने ही निभाई है) जब विदेश में लंबा समय बिताने के बाद भारत आता है तो विदेशियों के लिए एक धार्मिक ट्रैवल एजंसी खोलता है। यानी जो पर्यटक आएं वो भारत के धार्मिक स्थलों की यात्रा करें। इसी क्रम में वो पाता है उसके पारिवारिक मंदिर में ही पुजारी ने उसका प्रवेश वर्जित कर दिया। अब वो क्या करे? वो अपने पिता से कहता है इस मंदिर के पुजारी को निकाल बाहर कीजिए। उसका तर्क है कि घर के ही मंदिर का पुजारी किस अधिकार से उसे प्रवेश करने से रोक रहा है। लेकिन पिता पुजारी की बर्खास्तगी से इनकार कर देते हैं। उसके बाद सारी जद्दोजहद इस बात को लेकर है कि क्या वो यानी अवी कभी समझ पाएगा कि मंदिर से पुजारी को निकालने की मांग धर्म की मर्यादा के खिलाफ है?

बेशक इस तरह के विषयों पर दिल्ली में और हिंदी में नाटक नहीं होते हैं। बड़ी वजह तो यही है कि ऐसे विषयोंपर नाटक देखने कौन आएगा? शायद इसीलिए इस नाटक को रोचक बनाने के लिए लेखक और निर्देशक ने इसमें वो पहलू भी डाल दिए है जो इसे थोड़ा सा सनसनीखेज़ बना देते हैं। वो पहलू है `मी टू’ अभियान का जिसके तहत दफ्तर में बॉस पर नारी शोषण का आरोप लगता है और उसके कारण पहले तो उसे पद से हटना पड़ता है और फिर वह आत्महत्या कर लेता है।

इस तरह अध्यात्म और ऐसे प्रसंगों के दुरुपयोग को एक साथ समेटने वाला ये नाटक लगातार दोनों छोरों पर चलता रहता है। अगर ये सिर्फ एक ही छोर पर टिका रहता और इच्छा बनाम अनिच्छा की संकल्पना को और गहरे में जाकर उभारता तो क्या और सार्थक हो सकता था? निर्देशक, लेखक और पूरी नाट्य मंडली को ये सवाल अपने आप से पूछना चाहिए? क्योंकि अगर सिर्फ इतने तक ही ये सिमटा होता तो आध्यात्मिक पहलू और प्रखर होकर उभरता। अभी तो ये जिस तरह का बना है उसमें अध्यात्म वाला पक्ष थोड़ा नेपथ्य में चला गया है और भौतिकवादी पहलू ज्यादा सबल हो गया है।

फिर भी जितना हो सका है उसके आधार पर ये कहा जा सकता है कि कुछ जगहों पर इसमें जबर्दस्त हास्य है और ये सब हुआ है एक अभिनेता की वजह से। और वे हैं- पर्सी बिलिमोरिया जिन्होंने इसमें बंबू नाम के एक शख्स का किरदार निभाया है। बंबू का एक मैरेज ब्यूरो का धंधा है और उसकी आड़ में कार्लगर्ल सप्लाई करने का नाजायज धंधा भी करता है और जब ये दोनों काम आपस में गड् मड् हो जाते हैं जो मजाकिया स्थितियां पैदा होती हैं। पेशे से वकील बिलिमोरिया का आंगिक पक्ष भी मजबूत है और संवाद अदायगी के वक्त उनकी कॉमिक टाइमिंग भी गजब की है। वे चलते, बैठते उठते वक्त भी कुछ ऐसा करते हैं कि हंसी छूट जाती है और जब अपने संवाद बोलते हैं तब भी हास्य पैदा होता है। नाटक धर्मा ट्रैवल्स के लेखक-निर्देशक-मुख्य अभिनेता ओशो से प्रभावित रहे हैं। ये पहलू भी नाटक में साफ झलकता है।

Posted Date:

May 30, 2019

3:18 pm
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