देख तमाशा दुनिया का
आलोक यात्री की कलम से
बारिश ने पूरे देश में तबाही मचा रखी है। आज देश के ख्यातिलब्ध गीतकार नीरज जी की बरसी है। मुझे “अबके सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई…” शेर याद आ रहा है। टीवी पर मिनट मिनट की खबरें ब्रेक हो रही हैं। दिल्ली के अन्ना नगर में नाले में बरसाती पानी के सैलाब से किनारे बसे कई मकान बह गए। मिंटो ब्रिज के नीचे डीटीसी की एक बस पानी में डूब गई। बस की तो औकात ही क्या एक आटो और एक कार भी मिंटो ब्रिज के नीचे भरे पानी में लापता हो गई। आटो वाले का तो पता नहीं अलबत्ता बस के ड्राइवर और कंडक्टर ने बस की छत पर चढ़ कर जान बचाई। कार वाले के पास भी कार की छत पर चढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। करीब दो घंटे बाद पहुंचे फायर ब्रिगेड के राहत दल ने घंटों की मशक्कत के बाद तीनों को बचाया।
हमें तो देश भर में मच रही तबाही का पता भी न चलता। एक पखवाड़ा क्या उससे भी काफी पहले से हमारा टीवी सैट कोरेंटाइन में है। मरते क्या न करते? टीवी हर समय संक्रमण ही फैलाता रहता था। तंग आकर हमें उसे कोरेंटाइन करना पड़ा। शाम को हवाखोरी के लिए फेसबुक का रुख किया था कि भाई गोविंद गुलशन से मुठभेड़ हो गई। भाई जी
“दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ” …
फरमाते मिले। बेचारे दिल्ली में बह गए गरीबों के मकानों की वजह से दुखी थे। पड़ताल में दिल्ली सहित देश भर में बाढ़ से मची तबाही का पता चला। हमने आनन-फानन में टीवी को कोरेंटाइन से बाहर निकाल तबाही के मंजर का जायजा लिया।
आसाम, बिहार, महाराष्ट्र सहित कई प्रदेशों की स्थिति बड़ी विकट थी। कई जगह सड़क और पुल बह गए थे। आदमी का आदमी से संपर्क कट गया था। बीते चार महीने से कोरोना ने आदमी का आदमी से ताल्लुक पहले ही खत्म कर रखा था। रही सही कसर आसमानी
तबाही ने पूरी कर दी। बिहार के गोपालगंज में भी गंडक नदी पर बना पुल बहने की तस्वीरें टीवी पर चल रही हैं। पुल के दोनों छोर पर लोगों का हुजूम लगा है। क्षतिग्रस्त हिस्से से गुजरता पानी अपनी ताकत दिखा रहा है। ताकत दिखाने के मामले में फोटोग्राफर और रिपोर्टर भी पीछे नहीं हैं। उन्हें भी चार महीने बाद कुछ अलग सा काम मिला है। “कोरोना”, “पाक-नापाक” या “ड्रैगन” राग अलापने वाले तमाम चैनल अचानक राग “मल्हार” गाने लगे हैं।
मन तो हमारा भी कुछ गाने को मचल रहा है लेकिन अल्ल्लाह मियां ने सुर, लय, ताल देने में जरा कंजूसी बरत दी। स्टूडियो में एंकर की छटपटाहट और मौके पर मौजूद रिपोर्टर की उछल-कूद ने हमें पुल नंबर 27 की याद दिला दी। हमारे एक मित्र इरिगेशन डिपार्टमेंट में जूनियर इंजीनियर से तरक्की पा कर असिस्टेंट इंजीनियर हो गए। उनकी जगह आए जूनियर इंजीनियर को चार्ज देते समय उन्होंने समझाया कि कुछ भी काला-सफेद करना, भूल कर भी पुल नंबर 27 की ओर आंख उठा कर भी मत देखना। और उसकी मेंटीनेंस की फाइल तो हरगिज़ ही मत बनाना। समय की रफ़्तार के साथ विभाग में स्याह-सफेद भी अपनी रफ़्तार से चलता रहा। लेकिन एक दिन मित्र का माथा ठनका। मूवमेंट रजिस्टर में किसी फाइल की तलाश में उनकी नज़र अचानक पुल नंबर 27 की फाइल के मूवमेंट पर जा पड़ी। वह यह देख कर हैरान रह गए कि फाइल अग्रिम कार्रवाई के लिए उनके कार्यालय को ही प्रेषित की गई है। मित्र ने फाइल के साथ-साथ जूनियर इंजीनियर महाशय को भी तलब कर लिया।
जूनियर इंजीनियर से सबसे पहला सवाल यही पूछा कि चार्ज देते समय क्या नसीहत दी थीं। जूनियर इंजीनियर साहब मंजे हुए खिलाड़ी थे। नसीहत की पूरी किताब सुना डाली। लेकिन पुल नंबर 27 की नसीहत गोल कर गए। मित्र के याद दिलाने पर भी जूनियर इंजीनियर साहब यह मानने को तैयार नहीं थे कि किसी पुल की बाबत कोई नसीहत दी भी गई थी। मित्र ने पुल नंबर 27 की मेंटेनेंस की फाइल खोल कर रख-रखाव का हिसाब पूछा तो बताया गया पिछले एक साल में पुल के रख-रखाव पर छह लाख रुपए का खर्चा आ चुका है। ठेकेदार को इस राशि का भुगतान किया जाना है। जिसकी संस्तुति जूनियर इंजीनियर साहब ने कर दी है।
मित्र ने तसल्ली करनी चाही कि मेंटिनेंस पर इतनी भारी-भरकम रकम खर्च करने के एवज में जूनियर इंजीनियर साहब ने मौका-मुआयना कर लिया है? जूनियर इंजीनियर हर सवाल का ज़वाब ताल ठोक कर देते रहे। मित्र को आखिर जूनियर इंजीनियर से कहना पड़ा कि उसका यह झूठ उसे ले डूबेगा। जूनियर इंजीनियर किसी भी सूरत में फाइल पास करवाना चाहता था। उसने मित्र के सामने बतौर नजराना आधी रकम की पेशकश भी कर दी। मित्र जब इस पर भी राजी नहीं हुए तो जूनियर इंजीनियर को कहना पड़ा कि पिछले दस सालों से रख-रखाव का सबसे अधिक खर्च इसी पुल पर होता आ रहा है तो इस बार पेमेंट स्वीकृत करने में क्या आपत्ति है? जूनियर इंजीनियर के किसी सूरत बात न मानने पर मित्र को बताना पड़ा कि पुल नंबर 27 चीफ साहब ने ही बनवाया था और बीते साल उनके रिटायरमेंट से पहले ही पुल बारिश के पानी में बह गया। जिसकी इंक्वायरी की फाइनल रिपोर्ट भी मित्र ने ही लगाई थी। मित्र ने यह भेद भी खोल ही दिया कि पुल नंबर 27 कागजों में ही बना और कागजों में ही बह गया।
सोचने वाली बात तो यह है कि गंडक नदी पर बना हुआ पुल बह गया। वर्ना पता नहीं देश भर में हर साल कितने पुल कागजों में ही बनते और बहते रहे हैं।
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Posted Date:
July 19, 2020
10:21 pm
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