देख तमाशा दुनिया का…
आलोक यात्री की कलम से
मैं छोटा सा रहा होउंगा। यही कोई पांच सात बरस का। गर्मी की एक दोपहर पिताश्री और मोटा ताऊ जी (पिताश्री के कॉलेज के सहयोगी श्री एम.डी.शर्मा जी) के साथ पहली बार किसी गांव के रोमांचक सफर पर निकलने का अवसर मिला था। इससे पहले तक मैं अपने सगे ताऊ जी के पास मुजफ्फरनगर में रहता था। ट्रेन से गाजियाबाद आते-जाते पटरी के साथ दौड़ते कईं गांव नजर आते थे। जिनमें झांकने की कोशिश से पहले ही वह उड़न छू हो जाते थे। कुछ देर बाद टेलीफोन के खंभों के साथ-साथ भागते खेत किसी तिलिस्म से अचानक गांव में तब्दील हो जाते थे। लिहाजा बचपन में गांव मेरी उत्सुकता की पहली वजह भी थे। इसके अलावा एक वजह और भी थी जो गांव की ओर खींचती थी। लगभग हर दिन हमारे पैतृक गांव बरवाला से छोटे ताऊजी मट्ठा, दूध लेकर घर आते थे। शाम को साइकिल की घंटी बजाते हुए लौटने का संकेत देते हुए पूछते जरूर थे “घर कौन-कौन चल रहा है?” बाल मन पर उनके कहे की बड़ी विचित्र प्रतिक्रिया होती थी। शहर के इतने बड़े घर के अलावा गांव में कोई इससे भी बड़ा घर होगा? यह मेरे लिए कौतूहल की बात थी। लिहाजा पिताश्री और मोटा ताऊजी के गांव जाने की बात पता चलते ही मैंने भी गांव जाने की जिद पकड़ ली थी। मां ने खूब समझाया कि पिछली बार गांव जाने पर जब पाॅटी आ गई थी तो वहां घर जैसी लैट्रिन न होने की वजह से कितनी फजीहत हुई थी।
मां की बात किसे माननी थी? हम भी ठहरे जिद्दी अव्वल। भरी दुपहरी में हमारा कारवां बस से मुरादनगर की ओर बढ़ चला। किसी जगह बस रुकी और हम लोग उतर गए। सड़क किनारे एक बड़ा सा पेड़ था। शायद बरगद का रहा होगा, उसके नीचे एक उम्रदराज आदमी छोटा सा खटोला बिछाए मूंगफली, लैया, चने, मुरमुरे आदि लिए बैठा था। प्यास के मारे हम तीनों का ही बुरा हाल था। बीच सफर से ही मैं पानी पीना है की रट लगाए था। बस से उतरते ही पिताश्री ने बुजुर्गवार से पूछा “बच्चे के लिए पानी मिल जाएगा क्या?”
“बच्चे की क्यूं कै… थारै लिए बी मिल जागा… वो धरा मटका काढ़ के पी लै…”। मेरे ओर पिताश्री के पहुंचने से पहले ही पानी पी कर तृप्त हो चुके ताऊजी ने मुझे ओक बना कर पानी पीने का इशारा किया। पानी पीने से पहले मैंने मटके में झांक कर देखा तो मुझे ऐसा लगा कि पानी पर गंदगी तैर रही है। मुंह और नाक को कोहनी से दबा कर मैं बोला “छि गंदा है…”
बुजुर्गवार ने शायद मेरी प्रतिक्रिया ताड़ ली थी। मूंछें ऐंठते हुए बोले “लल्ला यो ई पी लै… थारे लिए यां कौण सी कोक्का कोल्ला धरीं…?”
मैंने पानी पिया या नहीं यह तो याद नहीं, हां कुछ और बातें जरूर याद हैं। बुजुर्गवार के पास ही किसी पेड़ का मोटा सा तना कटा पड़ा था। हम उसी पर बैठ गए। हाथ मुंह धो कर रुमाल से पानी को सुखाते हुए पिताश्री बुजुर्गवार से बतियाने लगे् पिताजी ने पूछा “सामान बिक जाता है यहां…”
“कौण सा…?”
“आप जो लिए बैठे हैं…?”
“मैं कौण सा बेचने की खातिर बैट्ठा…”
“फिर…?”
“अरे टाइम पास करण को बैट्ठा… चार भले आदमी सवारी पकड़न आवैं… जहां तुम बैट्ठे यहां आ के धरे जां… चार बाब मैं उण से करूं चार बात वे मुझ से करैं… उनका भी टैम पास… मेरा भी टैम पास… कोई कोई भला माणुस लै भी ले है सौदा… दो चार आन्ने का…”
“फिर तो बड़ी दिक्कत है…”
“का दिक्कत है भाई…?”
“बिक्री नहीं होती होगी…?”
“मैं कौण सा इसे बेचने को बैट्ठा… और इसे बेच के मैं कौण सो साउकार बण जाउंगो…?”
“कितने का है ये सौदा…?
“कौण सा…?”
“सारा…”
“दो रुपए का सारा… इसमें कौण सी नौली लग रीं…”
“दे दो…”
“कतैक का दे दूं…?”
“दो रुपए का दे दो…”
“मतबल सारा दे दूं…?”
“हां… सारा ही दे दो…”
“मतबल दो रुपल्ली में तू सारा खरिद्देगा…?”
“अच्छा तो… ढ़ाई रुपए ले लीजिए…”
“भले आदमी च्हावै क्या… सारा सौदा तुझे दे दूं… अरे दो चार आणे का जितना चाहता हो उतना ले ले… सारा लेके के करेगा… दुकान खोलणीं कै…?
“नहीं… आप यहां इतनी गर्मी में बैठे हैं… कोई खरीददार भी नहीं है… सौदा बेचिए… घर जाइए… आराम कीजिए…”
“मैं घर जाकर क्या करूंगा…? और तू दुकाण खोल कर बैठियो इहां… तैने समझ णा आई… अरे घर जाके के करूं… बच्चण कूं पिट्टू के लुगाई ने छेतूं…? अरे मैं तो सुबह की सांझ करण बैट्ठा हूं हियां… और तू आयो साहूकारी का पाठ पढ़ान…”
पिताश्री का तर्क अपनी जगह सही था। लू भरी दोपहरी में बुजुर्ग घर में आराम करने के बजाए ऐसी जगह सौदा-सुलफ लिए बैठा था जिसके बिकने के कोई इम्कानात नहीं थे। बात न बनती देख पिताश्री की पेशकश पांच रुपए तक जा पहुंची। लेकिन बुजुर्गवार टस से मस नहीं हुए।
“मुझे नसीहत दे रा घर जाण की… खुद बालक नू परेशान करण खातिर संग लिए डोद रिया…” कहते हुए बुजुर्गवार ने कुछ चने मुरमुरे मेरी हथेली पर रख दिए।
पिताश्री के अट्ठन्नी यानी पचास पैसे के बदले लिए गए चने मुरमुरों से हम सबकी तमाम जेब बेतरह भर गईं थीं। पचास साल पहले का यह सिक्के का एक पहलू था। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि आज गांव उठ कर शहर आ गया है। सुबह-सुबह बाल कटवा कर लौट रहा था। एक टमाटर वाला सामने पड़ गया। इतने अदब से नमस्कार किया कि मुझे भाव पूछने पड़ गए।
“क्या हिसाब दिए भाई…?”
“बाऊ जी आपसे क्या मोल भाव करना…? बताइए कितना तौल दूं…?”
“क्या भाव है…?”
“आपको कभी गलत रेट लगाया है…?”
“अरे भाई फिर भी… क्या रेट है?”
“बाऊजी आप रेट की बात क्यों करते हैं? माल देखिए… बिल्कुल ताजा है… यूं समझ लीजिए खेत से सीधे आपके लिए ही ला रहा हूं…”
“भाई देना हो तो रेट बताओ…”
“कितने कर दूं… दो किलो…?”
“यार दुनिया भर की बात किए जा रहे हो, रेट नहीं बता रहे…”
“बाऊ जी मोलभाव मैं करता नहीं… फिक्स रेट हैं… लेकिन आपके लिए घाटे का सौदा भी मंजूर है…”
“फ्री में दे रहे हो क्या…?”
“लो बाऊ जी… आप भी रोज के ग्राहक होकर ऐसी बात कर रहे हैं… आपको गलत रेट थोड़े ही लगेगा…”
“इस मोहल्ले में पहले तो कभी तुम्हें देखा नहीं…”
“हें… हें… हें… बाऊ जी… मुझे भी आप इस मोहल्ले में नए लगते हो… बाऊ जी आप भी कमाल करते हो… रेट पूछ रहे हो… यहां रेट कौन पूछता है…?” रेहड़ी वाला हमारे कान के निकट आ कर फुसफुसाया ” साहब टमाटर लो या मत लो आपकी मर्जी… मुझ से तो रेट पूछ भी लिए, किसी और से मत पूछ लेना… देहाती समझेगा आपको…”
वो तो गनीमत यह रही कि हम बाल कटवा आए थे, वर्ना पता नहीं अपने इस देहातीपन पर हम अपने कितने बाल शहीद कर बैठते।
Posted Date:July 6, 2020
4:24 pm Tags: आलोक यात्री, देख तमाशा दुनिया का, सिक्के का दूसरा पहलू, वो भी क्या दिन थे, गांव की यादेंComments are closed.
मेरा अधिकतर जीवन गांव में ही बीता है। अच्छा लगता है गांव की स्मृतियो को जब कोई जीवंत प्रस्तुत करता है।