लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़े और साहित्य की दुनिया में गंभीरता से काम करने वाले आलोक यात्री की लेखनी तमाम अहम सवालों पर एक खास शैली में खुद को अभिव्यक्त करती है। तमाम अखबारों के लिए कॉलम लिखने वाले और खासकर गाज़ियाबाद में अपनी संस्था ‘मीडिया 360’ के ज़रिये लगातार साहित्यिक गतिविधियों को अंजाम देने वाले आलोक यात्री एक बेहद संवेदनशील कवि और कहानीकार भी हैं। 7 रंग के पाठकों के साथ आलोक यात्री अपने कॉलम देख तमाशा दुनिया के ज़रिये अब लागातार रू-ब-रू होंगे। पहली कड़ी पढ़िए…
देख तमाशा दुनिया का
— आलोक यात्री
पूरी दुनिया कोरोना वायरस से खौफजदा है। लोगों के घर से निकलने पर पाबंदी है। डॉक्टर की बिन मांगी सलाह पर अमल करते हुए मैंने भी पार्क में घुमक्कड़ी बंद कर छत की राह पकड़ ली है। टहलने को इससे मुफीद जगह और क्या होगी? बरसों से रूठे, मुंह चढ़ाए बैठे अड़ोसियों-पड़ोसियों से भारत-पाक का सा बैर भी खत्म हो गया है। हर पड़ोसी (पड़ोसन भी) सुबह-सुबह चेहरे पर पालिस किए छत पर ही मिलता है। कोरोना को लेकर सबसे ज्यादा आग मीडिया ने अपनी दुम में लगा रखी है। दिन निकलते ही कई देशों का लंका दहन शुरू हो जाता है। हर चैनल, हर अखबार में होड़ लगी है दिल दहला देने वाले मंजर परोसने की। मीडिया के पास कोरोना को लेकर इतनी सारी जानकारियां हैं जिन्हें सुनकर लगता है कि अपना नंबर आने ही वाला है। किसी तरह छोटे पर्दे के सामने रुक भी जाइए तो यह भय सताने लगता है कि कोई ब्रेकिंग न्यूज इंजेक्शन की तरह न ठोक दी जाए। इस चिल्लपों से तो छत ही भली। कितना सुकून है छत पर। अरे मीडिया वालों! अपना चश्मा उतार कर मेरे चश्मे से मेरी छत की नन्ही सी दुनिया को भी तो देखो। जो फिलहाल ढ़िंढ़ोरापीट खतरे से मुक्त है। कोरोना से अधिक मीडिया के फैलाए आतंक ने मुझे घरघुस्सु के बजाय छतटहलू जरूर बना दिया है।
घुमक्कड़ी का शौक बीते दस दिनों से घर की छत पर ही पूरा हो रहा है। घर के सामने के पार्क में कचनार, पीपल, शीशम, नीम, शहतूत, बेल पत्थर के पेड़ इन दिनों सीना ताने खड़े नजर आ रहे हैं। इनके हरे-हरे पत्ते बोलते, गुनगुनाते, पास बुलाते से लगते हैं। लुप्त हो गई कईं चिड़िया भी छत पर आकर आमद दर्ज करवाने लगी हैं। आज सुग्गा भी आया है। तीन-चार और तोतों को संग लेकर। कबूतरों का साम्राज्य बिखर रहा है। कोयल भी कहीं कूक रही है। पेड़ों के झुरमुट में नजर नहीं आती। लेकिन दिशा से अंदाजा हो जाता है कि आम के पेड़ पर धुनी रमाए बैठी है। धुनी रमाए इसलिए कि इस पार्क में कोयल की आमद मई के अंत या जून के प्रारंभ में ही होती है।
बीते तीन दिनों से कोयल महारानी अपनी ओर ध्यान खींचने की भरपूर कोशिश कर रही हैं। ध्यान कोरोना से हटे तो कहीं और लगे। आज मैं उसकी कूक सुनकर ही छत पर आया हूं। कोयल बहुधा दक्षिण दिशा के पीपल के पेड़ के बराबर के जामुन के वृक्ष पर बैठकर ही कूकती है। उसकी कूक से अंदाजा हो जाता है कि वह घर के पश्चिम की तरफ की अमराई पर छिपी बैठी है। कोयल की कूक, पत्तों की सरसराहट और मंद-मंद पुरवाई न जाने मुझे कहां उड़ाए ले जा रही है।
दादी की सरगोशियां कानों में गूंजने लगी हैं -“आम इस बार खास होंगे, पता लगा है कि आम के पेड़ पर बौर आने लगा है, यह जानकर दिल खुद को बहलाने लगा है, आम पर अगर आ जाए बौर, तो समझना धरती पर जीवन है भरपूर, मतलब प्रलय है सदियों दूर, यानी कायम है सृष्टि का नूर, यह सोचकर मन फिर से मुस्कुराने लगा है, पता लगा है कि आम के पेड़ पर बौर आने लगा है, हम घर में बंद हैं, पर हवा में गंध है, ये सोचकर मन मोर की तरह इतराने लगा है, पता लगा है कि आम पर बौर आने लगा है, लगता है प्रकृति जरूर देगी एक मौका, हमें अपनी गलती सुधारने का, इस धरती को फिर से संवारने का, एक सरल जीवन गुजारने का, दोहन और शोषण में अंतर जानने का, हर आम को खास मानने का, पानी की हर बूंद को स्वांस मानने का, और जरूरत और जुर्रत में अंतर जानने का, ये सोचकर मन भविष्य के सपने सजाने लगा है, पता लगा है आम के पेड़ पर बौर आने लगा है, ये आस भी है ख्वाब भी है, अरदास भी है, तू मौका देगी जरूर, धरती मां मुझे यह विश्वास भी है, हक तो हम खो चुके हैं, बालहट समझ लेना, तू मां है तू अपने बच्चों को सजा तो देना, लेकिन सजा ए मौत से बचा लेना…”
मैं पलट कर देखता हूं। शर्मा जी के अंगने में खड़ा आम का पेड़ अपनी मस्ती में बौराया सा नजर आता है। मैं मुस्कुराता हुआ नीचे उतर आता हूं। कान में गूंजती दादी की सरगोशी के साथ “आम पर अगर आ जाए बौर/ समझना धरती पर जीवन है भरपूर…”
Posted Date:
April 6, 2020
3:05 pm Tags: आलोक यात्री, देख तमाशा दुनिया का, व्यंग्य