देख तमाशा दुनिया का
फोन “मल्लिका” परवीन का था। तखल्लुस वह नाम से पहले लगाती हैं। इससे पहले भी वाट्सएप पर उनके कई मैसेज आ चुके थे। जिनमें से सुप्रभात, गुड मार्निंग जैसे तीन-चार मैसेज का मैं जवाब भी दे चुका था। हमने फोन उठाना ही मुनासिब समझा। क्योंकि मल्लिका जी अनुग्रह-विग्रह में बहुत यकीन रखती हैं। समय-असमय उनका अनुग्रह बड़ा संकटदायक लगता है। उनके दुलार की चाशनी में मैं स्वयं को गुलाब जामुन की तरह से पकता हुआ पाता हूं। उनके सामने विग्रह के तमाम भेद, उपभेद, विभेद धरे रह जाते थे। फोन की घंटी तीसरी बार बजी थी। किसी महिला के साथ ऐसी बेअदबी शोभा नहीं देती। जबकि वह आपके निकट के दायरे में “मान न मान मैं तेरा मेहमान” सा दखल रखती हों।
“जी… फरमाइए…” हमने अपने आप को संयत बनाए रखते हुए कहा
“कहां लापता हैं… आजकल लिफ्ट ही नहीं दे रहे हैं…”
“अरे कहां… यहीं हैं… अजगरी हो रही है… अजगर बने पड़े हैं… दास मलूका कह गए हैं ना -अजगर करे ना काम…। और आप सुनाइए… खूब लेखन हो रहा है धड़ाधड़…”
“अरे जाइए… आपको कहां फुर्सत है… एक दर्जन से अधिक लाइव शो हो चुके हैं… आपने तो देखने की जेहमत उठाई नहीं… झूठे से ही तारीफ कर देते… बड़े ‘वो’ हैं आप…”
बड़े ‘वो’ कहने में जो कशिश थी उसने हमारे उठ कर बैठने में कैटेलिस्ट का काम किया। जिस्मानी तौर पर भी और जे़हनी तौर पर भी। अजगरी से मुक्त होकर हम पलंग की पुश्त से लग कर बैठ गए। “बडे़ वो हैं…” का खिताब हमें जिंदगी में पहली बार मिला था। नैतिकता का तकाजा निभाना भी लाजमी हो गया। “बड़े वो हैं…” की कशिश ने विग्रह के हमारे तमाम अस्त्र धराशाई कर दिए।
“अरे मल्लिका जी… क्या बताएं हम तो आपके मुरीद हैं। लेकिन क्या करें… फेसबुक पर तो इन दिनों सुनामी आई हुई है। बड़े से लेकर छोटा तक, सुरे से लेकर बेसुरा तक, तुके से लेकर बेतुका तक, तुले से लेकर अनतुले तक कोरोना का मर्सिया गा रहा है… अब आप तो जानती ही हैं मल्लिका जी… कहां हम आप जैसी शायरा के शैदाई और कहां गली-मोहल्ले में हो रहा कविता का चीरहरण। हम से तो बर्दाश्त ही नहीं हो रहा जी…”
“सही कह रहे हैं खटरागी जी… आपको छोड़ कर अदब से जुड़ा हर शख्स खटराग में ही लीन है… बस्स आपका ही पता नहीं है। लेकिन हम छोड़ने वाले नहीं हैं आपको… इतवार को फेसबुक पर हमारा लाइव कविता पाठ है। देश के ग्यारह नामी शायरों में आपकी मल्लिका इकलौती शायरा है…।”
मल्लिका जी ने शायरों की जो लिस्ट गिनाई तो हमें रश्क होने लगा कि काश… हम भी मिसरे, जाविए, काफिए को ठोकने-पीटने का हुनर जानते तो शायरी की सुनामी में हम भी कहर बरपा रहे होते।
“जी… जी… जरूर हाज़िर होता हूं… कितने बजे है…” मल्लिका जी का शायरी का शोरूम खुलता उससे पहले ही शटर डाउन करते हुए हमने कहा।
“अच्छा जी… इतने भी भोले नहीं हैं आप…”
“क्या मतलब… क्या मतलब… हकलाते हुए हम इतना ही कह पाए। हमारी समझ में नहीं आया कि हमारे भोलेपन से मल्लिका जी का वास्ता कब और कैसे पड़ गया? क्योंकि हमारी और मल्लिका जी की टेलीफोन पर एक तरह से यह पहली ऑफिशियल बातचीत थी।
“बड़े छुपे रुस्तम हैं आप… साफ छुपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं…।” मल्लिका जी की बातें उनकी शायरी की तरह से गूढ़ होती जा रही थीं। अनर्थ के ढ़ेर में से हम अर्थ तलाशने की हिमाकत कर रहे थे। गुस्ताखी की कोई माकूल वजह समझ नहीं आ रही थी। ड्राइ डेज की क्रीज पर बैटिंग का स्कोर भी दिनों की हाफ सेंचुरी पार कर चुका था। बहकने की गुंजाइश कहीं से कहीं तक नहीं थी। कोई माकूल वजह न मिलने पर डरते-डरते पूछ ही बैठे “हुजूर खता क्या हुई…?”
“हमने अपनी वॉल पर इतना बड़ा पोस्टर शेयर किया और आपने बस लाइक ही करके छोड़ दिया। देखिए खटरागी जी… मुझे आपकी मुकम्मल सहमति चाहिए और दो-चार अच्छे से जुमले भी… प्लीज…”
“ओ के… श्योर… श्योर…” कहते हुए हमने उनके पेज पर जाने की इजाजत मांगी। जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। माहे रमज़ान चल रहा है। कहते हैं पूरे माह परवरदिगार की रहमत बरसती है। लेकिन हमें तो चारों तरफ दुश्वारियां ही दिखाई दे रहीं थीं। टीवी खोलो तो लाशों के जखीरे से निकल कर कोरोना अपनी तरफ आता दिखाई दे। बंद करो तो श्रीमती जी का परपीड़ा संवाद शुरू। ले दे कर मोबाइल की शरण में चले जाओ तो फेस बुक और वाट्सएप ग्रुप कवियों के चंपुओं का टार्चर रूम बने मिलें। अब मल्लिका जी को कैसे समझाते कि जबसे फेसबुक की पतवार चंपुओं ने संभाली है हमें अपनी अजगरी ही रास आ रही है।
मरता क्या न करता की तर्ज पर हमने मल्लिका जी की शान में लंबा-चौड़ा कसीदा पढ़ा। रविवार को उनके आग्रह पर फेसबुक भी खोलकर बैठ गए। हमारे “चौपान” पर पहुंचने के बाद कार्यक्रम संयोजक “अझेल” जी अवतरित हुए। जिन्होंने सभी नामी गिरामी शायरों का इस्तकबाल करना शुरू किया। बिना किसी लाज-शर्म के उन्होंने सभी की चरण वंदना की। इसके बाद सभी के नख-शिख वृतांत का एकल गान हुआ। फ्रेम में “अझेल” जी समेत कुल जमा बारह चेहरे नजर आ रहे थे। जिन सबको अझेल जी अंतरराष्ट्रीय शायर बताते हुए उनके विदेशी दौरों की मियाद गिनवा रहे थे। भूल-चूक लेनी-देनी के फेर में महामहिम “अझेल” जी द्वारा छोड़ दिए गए देशों को फेहरिस्त को खुद ही दुरुस्त कर देते थे। अपने धैर्य पर काबू पाते हुए हम “अझेल” जी को कइयों के चरणों की धूल का खिताब पाते हुए देख रहे थे। मजाल है किसी भी शायर ने चरणों की इस धूल के उद्धार की तरफ भी ध्यान दिया हो।
आधे घंटे के स्तुति गान के बाद मल्लिका जी का चेहरा एक फ्रेम में अवतरित हुआ। मल्लिका जी की शान में दो-चार कसीदे पढ़ कर “अझेल” जी ने सबसे पहले उन्हें ही आमंत्रित कर लिया। मल्लिका जी का चेहरा बता रहा था कि उनके वैनिटी बैग में कोई लोशन, क्रीम और पाउडर बाकी नहीं बचा होगा। आवाज़ को भरसक सुरीली बनाते हुए उन्होंने नशिस्त का आगाज़ किया “मैं तमाम हाज़रीन का तहे दिल से खैरमकदम करती हूं… “क्या आप मुझे सुन पा रहे हैं…”जी… कुमार जी… नमस्कार… कैसे हैं आप…”… कोई मुझे बताएगा … आवाज़ आ रही है मेरी…”पाशा जी आदाब …आपकी तवज्जो और इनायत दोनों चाहिए…”… जी अझेल जी… शुरू करती हूं… आपने मुझे इतने नामावर शायरों के बीच मौका दिया… ”
“जी मोहतरमा… आवाज़ आपकी बिल्कुल दुरुस्त है… ख्वातीन आपके अशआर का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं… फरमाइए… फरमाइए…” अझेल जी ने बीच में आकर न सिर्फ कमान संभाली बल्कि लगे हाथ मल्लिका जी के तीन-चार शेर भी सुना दिए “जी मैं क्या कहूं… नेहा जी नमस्कार… मैं देख पा रही हूं… फना जी, गुलिस्तां जी, बागबां जी, जंग बहादुर जी भी जुड़ चुके हैं… मैं आप सभी की मोहब्बत की तहे दिल से शुक्रगुजार हूं… प्यासा जी, अकेला जी, थकेला जी… आप लोगों ने अपनी इस छोटी बहन को जो इज्ज़त बख्शी है उसकी मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूं। मेरे बड़े भाई अझेल जी ने मुझे इस काबिल समझा…
इससे पहले कि मल्लिका जी अपना कलाम भी ठीक से पढ़ पातीं कि अझेल जी ने उन्हें यह कहते हुए फ्रेम और कार्यक्रम से आऊट कर दिया “अभी आप से मुखातिब थीं देश की ख्याति प्राप्त शायरा परवीन सुल्ताना। आइए अब इसी क्रम में सुनते हैं…शोक गुलबहार जी को…” शोक गुलबहार उर्दू की डिक्शनरी संभाले बैठे थे। भारी-भरकम जुमलों के साथ वह हम जैसे दाद देने वालों का नाम उसी अदा में पढ़ रहे थे जैसे कुछ देर पहले, मल्लिका परवीन पढ़ रही थीं। हमारी समझ में नहीं आया कि कार्यक्रम का अवतरण अचानक कैसे हो गया? और अझेल जी ने “मल्लिका” परवीन को “बहन” परवीन सुल्ताना क्यों कहा…? हमारे ख्यालों से बेखबर शोक जी परवाना जी, दीवाना जी, मस्ताना जी, पस्त जी, सरपस्त जी के साथ “चौपान” के कसीदे पढ़ने में मशगूल थे।
Posted Date:May 15, 2020
11:38 am Tags: आलोक यात्री, देख तमाशा दुनिया का, आप तो बड़े वो हैं, कवि सम्मेलन, ऑन लाइन कवि सम्मेलन