दिल्ली के मयूर विहार फेज 1 के आनंद लोक में उनका घर है पूर्वाशा। अब वहां उनके न होने का सन्नाटा पसरा है। बीमार वो लंबे समय से थीं लेकिन आज यानी 25 जनवरी की सुबह उन्होंने हमेशा के लिए विदा ले लिया। अगले महीने 18 तारीख को कृष्णा सोबती 94 की होने वाली थीं, लेकिन उन्हें इस बात से नफ़रत थी कि कोई उन्हें बूढ़ा या बुज़ुर्ग कहे। आखिरी समय तक वो लिखती रहीं, देश के बारे में सोचती रहीं, सियासत के खेल से परेशान होती रहीं और ताउम्र देश के बंटवारे का दर्द लिए उन्होंने जाते जाते वह उपन्यास भी लिख ही दिया – गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान।
कृष्णा सोबती कभी सत्ता के करीब नहीं रहीं। उनका मानना था कि अगर आप ईमानदारी से और बेखौफ़ लिखना चाहते हैं या अपनी बात कहना चाहते हैं तो आपको सत्ता से दूर रहना होगा। इसी सोच के तहत उन्होंने 2010 में पद्मविभूषण मिलने के बाद भी उसे लेने से इनकार कर दिया। देश में असहिष्णुता के खिलाफ साहित्यकारों और लेखकों ने जिस तरह साहित्य अकादमी के सम्मान लौटाए, सोबती ने भी उस आंदोलन से खुद को जोड़ा और सम्मान वापस कर दिया।
2017 में कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। शलाका सम्मान, मैथलीशरण गुप्त सम्मान समेत साहित्य अकादमी का सर्वोच्च सम्मान भी उन्हें मिला लेकिन उनका कद इन सम्मानों से कहीं ऊपर था और उनका लेखन बेशक साहित्य जगत के लिए एक धरोहर है। उनके बाकी उपन्यासों में डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार तिन पहाड़, सूरजमुखी अंधेरे के, सोबती एक सोहबत, जिंदगीनामा, ऐ लड़की, समय सरगम, जैनी मेहरबान सिंह काफी चर्चित हुए और कहानी संग्रह बादलों के घेरे को भी काफी पसंद किया गया। शुरूआती दौर में उन्होंने कुछ कविताएं ज़रूर लिखीं, लेकिन उनका मानना था कि कवि या शायर बहुत बड़ा होता है और वह उतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच सकतीं।
Posted Date:January 25, 2019
5:38 pm