सत्ता का सांस्कृतिक हमला: रज़ा फाउंडेशन की चिंता

साहित्य के कॉरपोरेट आयोजनों से अलग रज़ा फाउंडेशन की सांस्कृतिक-साहित्यिक गोष्ठियों की चिंता कुछ अलग रहती है। खासकर मौजूदा परिदृश्य में सत्ता के जनविरोधी चेहरे को बेनकाब करने की कोशिश करती हुई इन गोष्ठियों और आयोजनों में ये बात उभर कर आती है कि एक प्रतिरोध की संस्कृति को बरकरार रखने और इसके विस्तार की जरूरत लगातार है। ‘कल्चरल कोलैप्स’ यानी सांस्कृतिक पतन पर केन्द्रित रज़ा फाउंडेशन की यह गोष्ठी पिछले दिनों दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई। इस बारे में कवि मिथिलेश श्रीवास्तव ने क्या महसूस किया इसपर उन्होंने अपने फेसबुक पर कुछ इस अंदाज़ में लिखा। आइए पढ़ते हैं…

 

दिल्ली  पहले जैसी नहीं रह गयी है | रज़ा फॉउंडेशन की गोष्ठी से लौटते समय इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से पैदल चलकर जोरबाग मेट्रो स्टेशन जा रहा था | मौसम बदलने से शाम के आठ बजे तक रात बहुत गहरी हो   चुकी थी | पूरे रास्ते स्ट्रीट  लाइट होने के बावजूद रोशनी जितनी होनी चाहिए थी, उतनी थी नहीं | मैक्सम्युलर मार्ग से  लोधी रोड और वहां से मेट्रो स्टेशन  | अकेले था और रोशनी कम थी तो तेज कदमों से मेट्रो स्टेशन की ओर भाग रहा था लेकिन दिमाग में गोष्ठी की बातें घूम रही थीं |

रज़ा फॉउंडेशन की इस गोष्ठी का थीम कल्चरल कोलैप्स रखा गया था जो कि इतना प्रासंगिक लगा कि वहां जाना मुझे जरुरी लगा और इसलिए मैं गया और लगभग एक घंटा वहां रुका | चार अलग अलग सांस्कृतिक क्षेत्रों से वक्ताओं का चुनाव किया गया | रंगमंच से एम  के रैना जो कि जानेमाने रंग-निर्देशक, हैं | रंगमंच की दुनिया में उनकी प्रतिष्ठा है और अपने वैचारिक मान्यताओं के लिए भी जाने जाते हैं | अपने वक्तव्य में उन्होंने  कल्चरल कोलैप्स  के कई  उदाहरण दिए| उन्होंने बतलाया कि इन दिनों रंगकर्मियों से एक फॉर्म भरवाया जाता है कि आपकी रंग-प्रस्तुति से किसी भावना तो नहीं भड़केगी | और भी कई आपत्तिजनक सवाल उस फॉर्म में पूछे जा रहे हैं | यह काम व्यवस्था भीतर ही भीतर कर रही है बिना जगजाहिर किए | रंगकर्मियों के अनुकूलन की यह प्रक्रिया है | उत्तर भारत में वैसे भी प्रतिरोध का रंगमंच अच्छे हालात में नहीं है तो इस तरह के अनुकूलन से प्रतिरोध का रंगमंच बीते समय की चीज़ हो जाएगा |   मेरे लिए यह एक खबर थी | कोरोना काल के दौरान और उसके बाद कल्चरल कोलैप्स की कई सरकारी कोशिशों की खबरें हम तक नहीं आयी हैं | रैना ने एक और चिंताजनक बात कही कि रंगकर्मी विकल्पविहीनता की स्थिति में इस फॉर्म को भर रहे हैं, उस अपना हस्ताक्षर कर रहे हैं और सरकार को सौंप रहे हैं | अर्थात काम करना है तो सरकार के कहे अनुसार चलना है | रंगमंच अनुकूलन का शिकार हो रहा  है |

के टी रवीन्द्रन वास्तुशिल्पी हैं और उन्होंने समसामयिक वास्तुशिल्प की सरकारी नीतियों की आलोचना की| वास्तुशिल्प का उपयोग हिंसा, सामाजिक विद्वेष, दुर्भावना, जैसी मानवीय विरोधी तत्वों का समावेश किया जा रहा है | दिल्ली, वाराणसी, उज्जैन इत्यादि शहरों में काल रहे निर्माण कार्यों की आलोचना करते हुए कहा कि ये सारे निर्माण धर्मांधता के समर्थन में हो रहा है जो समाज के लिए अच्छा नहीं है | बहाउद्दीन डागर का मत था कि कल्चरल कोलैप्स की शुरुआत बहुत पहले से ही  गयी थी जब अख़बारों के पन्नों से सांस्कृतिक खबरों की जगह को समाप्त कर दिया गया और वह जगह विज्ञापनों को दे दिया गया | डागर गायक हैं | अनन्या वाजपेयी ने कैलाश वाजपेयी की कई कविताओं  का पाठ किया| भारतीय संस्कृति रोगग्रस्त और  और पतनोन्मुख हो रही है और जितना  प्रतिरोध होना चाहिए उतना हो नहीं रहा है।

(एक तरह से मिथिलेश जी ने इसे एक रिपोर्ताज की तरह लिखा है, लेकिन इसमें उनकी चिंताएं भी सहज स्वाभाविक ढंग से सामने आई हैं।)

Posted Date:

November 21, 2022

4:42 pm Tags: , , , , ,
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