बदहाल कलाकार, राष्ट्रीय नीति की दरकार

♦ रवीन्द्र त्रिपाठी
इस कोरोना समय में समाज के जिन वर्गों को और भी अधिक सीमांत की तरफ धकेला है उसमें कलाकार भी हैं। हर विधा के कलाकार- चाहे वे रंगकर्मी हों, पेंटर हों, मूर्तिशिल्पी हों, गायक हों, वादक हों, नर्तक या नृत्यांगना हों। या लोक कलाकार हों। फिल्मों में काम करनेवाले हों। देश के बड़े बड़े शहरों से जो खबरें (गावो से भी) आ रही हैं वे तो यही बता रही हैं कि युवा और संघर्षशील कलाकारों की जान पर बन आई है। सरकारों की तरफ से भी, चाहे वो राज्य सरकारें हों या केंद्र सरकार, ऐसे कलाकारों के लिए ठोस योजना या नीति नहीं है। और न ही इस तरह की योजना या नीति निर्माण की जरूरत महसूस की जा रही हैं। मुंबई से जो खबरें मिल रही हैं उनके मुताबिक तो कई कलाकार- जिनमें फिल्मों में काम करनेवालें संघर्षशील कलाकारों से लेकर रंगकर्मी भी शामिल हैं, के खाने के लाल पड़े हुए हैं। अगर वे मुंबई के बाहर के रहनेवाले हैं तो। ऐसे ज्यादातर कलाकार गुरुद्वारों में भोजन कर रहे हैं।

सवाल उठना चाहिए, लेकिन सामूहिक रूप से उठ नहीं रहा है कि, जब कलाकार ही नहीं रहेंगे तो कला कैसे बचेगी?  हां, कुछ कलाकार या रंगकर्मी या फिल्म से जुड़े निर्माता-निर्देशक-अभिनेता आदि हैं जिनके पास पर्याप्त धन औऱ संपदा है, वे तो अपने अपने घरों में चैन से हैं। लेकिन देश में हर विधा से जुड़े कलाकारों मे उनकी ही बहुतायत है जो दैनंदिन के संघर्ष से ही रोजी रोटी कमाते हैं।  लाखों , शायद करोड़ो, की संख्या में ऐसे लोक कलाकार हैं जिनका जीवन ही सरकारी –गैरसरकारी कार्यक्रमो मे शरीक होने के बाद मिलने वाले मेहनताने से चलता रहा है। वे सब अपने अपने घरों में है। वैसे तो देश के किसान और मजदूर भी संकट में हैं और उनका संकट भी गहरा है। लेकिन उनके साथ कम से कम इतना तो होता  है कि देश के नीति निर्मताओं का ध्यान उनकी तरफ जाता है औऱ राष्ट्रीय संपदा का एक बेहद छोटा हिस्सा ही सही, उनको मिलता है। और ये अलग से कहने की जरूरत नहीं कि ये अत्यंत अपर्याप्त होता है। लेकिन कलाकारों के साथ तो ये भी नहीं होता है। वे न तो  सरकारों के नीति निर्माताओं के संज्ञान में होते हैं और न रही  टीवी मीडिया के। ये कलाकार समाज में है पर अदृश्य से हैं। जो कलाकार- पेंटर या रंगकर्मी निजी स्कूलों में अध्यापन का काम करते हैं. वे इन दिनों या तो हटा दिए गए हैं या उनके वेतन इतने कम कर दिए गए हैं कि जीवन में बदहाली आ गई है।  सिर्फ सरकारी नौकरियों में लगे कलाकार- जिनकी संख्या बहुत कम है, वही बिना किसी तनाव के हैं। पर उनकी संख्या भी कम है।

क्या कलाकारों की इस गहरी समस्या के प्रति समाज और सरकार का ध्यान नहीं खींचा जाना चाहिए?    ये मांग तो बरसों से है कि देश में कोई संस्कृति नहीं है। पर आज जो हालात हैं उसमें ये मांग ज्यादा जरुरी और अहमियतवाली  है कि कलाकारों के लेकर कोई नीति होनी चाहिए । क्या ऐसे कलाकारों का कोई संघ या संगठन नहीं होना चाहिए जिनके पास कोई नौकरी जैसी सामाजिक सुरक्षा नहीं है और उनके लिए कुछ किया जाए? हां, कुछ नाट्य दल जैसे हैं जिनको सरकारी अनुदान मिलते हैं। हालांकि उनमें भी कई तरह की समस्याएं हैं, पर उनकी संख्या भी बहुत कम है। इसलिए जिन कलाकारों को कहीं से अनुदान नहीं मिलते उनके लिए सोचने का वक्त यही है। क्या प्रधानमंत्री के `केयर फंड’ से ऐसे कलाकारो   को मदद नहीं मिलनी चाहिए?  अगर कलाकार ही जीवित नहां रहेगा तो कला कैसे बचेगी?  फिलहाल तो देश में संस्कृति नीति से अधिक कलाकार-नीति की जरूरत है।

Posted Date:

July 8, 2020

5:40 pm Tags: , , ,
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