कोरोना काल के बहाने शानी की याद…

किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए इन दिनों का माहौल एक टीस पैदा करने वाला है… बीमारियां, महामारियां और कई तरह की त्रासदियां आती जाती रही हैं… लेकिन इस बार यहां नफ़रत का वायरस एक बेहद खतरनाक अंदाज़ में फैला है… इसकी कोशिश तो पिछले कई दशकों से चलती आ रही है, लेकिन कोरोना काल ने इसके लिए एक उर्वर ज़मीन पैदा कर दी है… मुख्य धारा का मीडिया बेशक अपने चाल, चरित्र और चेहरे के लिए लंबे वक्त से जाना जाता रहा है, लेकिन सोशल मीडिया के मंचों पर अब भी आम आदमी अपने ‘मन की बात’ ज़रूर कर लेता है… बेशक इसके लिए उसे भक्तों की गालियां सुननी पड़ें, ट्रोल होना पड़े, लेकिन लिखने वाले लिख ही जाते हैं। हमारे साहित्य में, हमारी संस्कृति में और परंपरा में भले ही नफ़रत के लिए कोई जगह न हो, लेकिन सियासत तो इसी से चलती है, आज के इस गंभीर संकट के दौर में भी अपने अपने तरीके से चल ही रही है….

हमारे पत्रकार मित्र संजीव सिंह इंडिया टीवी में काम करते हैं। अपने मन की बात वो समय समय पर फेसबुक पर साझा करते हैं। कोरोना काल में भी उन्होंने कई पोस्ट डाले हैं। लेकिन आज उनकी जो पोस्ट हम उनकी इजाजत के बाद ले रहे हैं, उसमें नफ़रत के इस माहौल के साथ मुसलमानों के अंतर्मन को समझने और महसूस करने की बात कही गई है, और वह भी एक बेहद साहित्यिक अंदाज़ में…. संजीव ने इसी बहाने गुलशेर खां ‘शानी’ को याद किया है, उनके चर्चित उपन्यास ‘काला जल’ की चर्चा की है और उन्हें पढ़ते हुए उन्होंने अपने मुस्लिम दोस्तों और उनके बारे में अपनी समझ को सामने लाने की कोशिश की है। उनके पोस्ट पर अच्छी और सुलझी हुई प्रतिक्रियाएं भी आई हैं। ये पोस्ट आप भी पढ़िए और शानी को याद कीजिए….

गुलशेर खां ‘शानी’

कोरोना संकट में भी चारों तरफ हिंदू मुस्लिम चल रहा है। इस मुश्किल समय में भी नफरत की खेती करने के बजाय क्यों न मुस्लिम अंतर्मन को समझा जाए, इसीलिए शानी को पढ़ने बैठा हूं। जिस गांव में पैदा हुआ और पला बढ़ा, वहां केवल एक मुस्लिम परिवार था, जो बाद में कहीं दूसरी जगह चला गया। वकील मियां जब तक गांव में रहे, मुहर्रम पर तजिया भी गांव के लोगों के परिवार के सहयोग से ही निकलता था। लिहाजा मुसलमानों को लेकर मन में कोई कट्टरता नहीं रही।
बाद में पढ़ाई के दौरान भी साथ में बहुत कम मुस्लिम मित्र रहे। इसलिए ये नहीं कह सकता कि मुस्लिम समाज को ठीक से जानता हूं। लेकिन ये दावा कितने लोग कर सकते हैं कि वे मुसलमानों के अंतर्मन को ठीक से जानते हैं।
कॉलेज में दिनों में एम एस सथ्यू की फिल्म ‘गरम हवा’ देखी थी, जिसे भारत-पाकिस्तान विभाजन पर बनी मास्टरपीस माना जाता है। इस फिल्म में आगरा के एक परिवार के बहाने आजादी के तुरंत बाद मुसलमानों के कश्मकश को दिखाया गया है कि हिंदुस्तान या पाकिस्तान? फिल्म पाकिस्तान जा रहे फारुक शेख और बलराज साहनी के बीच रास्ते से अपना फैसला बदलकर प्रदर्शन में शामिल होते और कैफी आजमी की बुलंद आवाज़ से खत्म होती है कि आंसुओं का ये कारवां इधर भी है, उधर भी।
लेकिन मुस्लिम समाज को कुछ हद तक समझने का मौका मिला, शानी का उपन्यास ‘काला जल’ पढ़ने के बाद। काला जल की भूमिका में नामवर सिंह ने लिखा था कि मुसलमानों के अंतर्मन में क्या चल रहा है, ये समझना है तो काला जल को पढ़िए।

उपन्यास की शुरुआत शालो आपा को फतीहा पढ़े जाने से शुरू होती है। इसी के साथ एक बंद समाज का दरवाजा धीरे धीरे खुलता चला जाता है। तब तक न तो फातिहा के बारे में सुना था और न शब ए बारात के बारे में जानते थे, जो बाद के बरसों में शबे बारात की रात को सड़कों पर उधम मचाने के लिए भी याद किया जाता है। लेकिन शानी ने केवल मुसलमानों के बारे में लिखा है, ये कहना उनके साथ नाइंसाफी होगी। उन्होंने हिंदू समाज पर भी खूब लिखा। बल्कि ये कहिए शानी की कहानियों में भारतीय मिडिल क्लास की समस्या उभर आती है। ‘एक नाव के यात्री’ में विदेश से लौटे रजन के बहाने पूरे परिवार की हलचल मन में अब भी हलचल पैदा करती है और बार बार इस कहानी को पढ़ने के लिए मजबूर भी।
एक बात और। गुलशेर अहमद खान उर्फ शानी की यारबाशी की कहानियां भी खूब मशहूर रही हैं। राजेंद्र यादव ने दिल्ली के मयूर विहार में कई जगह शानी के घर की पार्टियों का जिक्र पूरी शिद्दत से किया है तो दुष्यंत कुमार और शानी के बीच बच्चों की तरह लड़ने और फिर सुलह करने वाली दोस्ती भी मशहूर रही है। तो क्यों न समाज में लड़ने भिड़ने की जगह ऐसी कथा कहानियों से लड़ा भिड़ा जाए।

(संजीव सिंह के फेसबुक वॉल से)

Posted Date:

April 22, 2020

2:30 pm Tags: , , , ,
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