शौर्य, साहस, भक्ति और विश्वास के पर्याय हैं भील
♦ मनीष शेंडे
भारतीय जनजातियों में भील जनसंख्या के नज़रिए से दूसरे स्थान पर आते हैं। मध्य प्रदेश में भी गोंड जनजाति के बाद भील जनजाति जनसंख्या के आधार पर दूसरे स्थान पर है। श्याम रंग, छोटा-मध्यम कद, गठीला शरीर और लाल आंखें, यह सब इनकी शारीरिक रचना है। लेकिन इन्हें देखकर कोई भी इनके इतिहास के बारे अंदाज़ा नहीं लगा सकता। पर… ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर इनका वजूद कुछ अलग ही दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। भारत जैसे संघर्षशील देश में इनका स्थान क्या है? यह अब भी जन सामान्य के लिए ग़ैरज़रूरी जानकारी सी मालूम होती है। लेकिन इतिहास ने आज भी इनके योगदान की स्मृतियों को स्वर्णाक्षरों में संजोकर रखा है। वर्तमान समाज भले ही इन्हें अपनी संस्कृति से दूर और अलग समझता हो, लेकिन वास्तविकता यह है, कि भील संस्कृति प्राचीन संस्कृतियों में से एक है। इस जनजाति की संस्कृति की तुलना यदि किसी दूसरी संस्कृति से की जाए, तो शौर्य, साहस, भक्ति और विश्वास जैसे तत्व एक साथ भील संस्कृति के अलावा किसी में भी दिखाई नहीं देते। इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भीलों ने शौर्य की पराकाष्ठा तक प्रदर्शन किया है। प्राचीन भीलों से अब तक आखेट… इनकी जीविका का एक मात्र साधन रहा है, जिसके लिए ये अब भी जाने जाते हैं। जबकि शिकार में इस्तेमाल होने वाले शस्त्र धनुष-बाण भील संस्कृति की ही देन है। जहां तक इस हथियार के इस्तेमाल की बात है, तो धनुष-बाण के प्रयोग और निशानेबाज़ी में आज भी इनका कोई सानी नहीं है। धनुष-बाण का इस्तेमाल भील जनजाति के लोग सिर्फ शिकार के लिए ही इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि इतिहास में इसी हथियार से इन्होंने कई युद्ध लड़े और जीते भी हैं।
एक नज़र अगर इनके इतिहास पर डाली जाए तो कई ऐसे तथ्य भी सामने आते हैं, जिनसे आधुनिक समाज आज भी परिचित नहीं है। वर्तमान दौर में सुनी जाने वाली किवदंतियों के पात्र भी भील संस्कृति की पृष्ठभूमि से हैं। महर्षि वाल्मिकी भी भील जनजाति के थे, जो रत्नाकर डाकू से आदिकवि के सिंहासन पर आसीन हुए। हालांकि आधुनिक समाज सिर्फ इतना जानता है, कि रामायण की रचना कर रामकथा की विश्व व्यापकता वाल्मिकी की देन है। जबकि वाल्मिकी वो व्यक्तित्व है, जिन्हें विश्व का पहला राष्ट्रकवि कहा जाए तो भी अतिश्योंक्ति नहीं होगी। राम भक्त सबरी की सराहना में भी सभी उपमान उस समय फीके पड़ जाते हैं, जब भगवान राम की भक्ति-भावना से अभीभूत सबरी उन्हें अपने झूठे बेर खिलाने में बिना किसी संकोच के आनंद की अनुभूति की पराकाष्ठा प्राप्त करती है। सबरी की इस अनुभूति को रामायण में भी श्रद्धा और भक्ति की अंतिम सीमा के रूप में वर्णित किया गया है। वहीं महर्षि व्यास की रचना महाभारत के पात्र एकलव्य की गुरु भक्ति की गरिमा का जितना वर्णन किया जाए, उतना कम है। एकलव्य महाभारत में एक भील के रूप में चरितार्थ किया गया पात्र है। जिन्होंने अपने गुरु को दक्षिणा में अपने दाहिने हाथ के अंगूठे का दान कर विश्व में अपनी श्रेष्ठ गुरुभक्ति का नगाड़ा बजा दिया। वहीं एकलव्य ने साधना और मेहनत से सीखने की लालसा और लगन का भी अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत किया है।
शौर्य, साहस और पुरुषार्थ की पराकाष्ठा में भीलों ने हल्दीघाटी के मैदान में महाराणा प्रताप का साथ देकर मातृभूमि के प्रति अपना सब कुछ अर्पित किया, और दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर यह आहूति अद्भुत, अनूठी और अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत करती है। इस आदर्श में अरावली पर्वत श्रेणियों पर युद्ध करते हुए भीलों ने शत्रुओं के लहू से मातृभूमि का लहूभिषेक किया, खुद को मातृभूमि की ममता के लिए समर्पित कर दिया, लेकिन अपनी आन पर आंच नहीं आने दी। महाराणा प्रताप के साथ भीलों का पुरुषार्थ, संपूर्ण त्याग और बलिदान भारतीय इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से अंकित है। अतीत की इसी परंपरा और संस्कृति को पुष्ट करने और संवारने में भील आज भी तन-मन से जुटे हैं।
भील भारतीय समाज के संगठनात्मक ढांचे में समन्वय और चौतरफ़ा विकास की वह दूसरी कड़ी हैं, जो संपूर्ण समाज की एक जुटता को सुदृढ़ता के साथ सांस्कृतिक एकता और अखंडता का कीर्तिमान स्थापित करते हैं। अतीत से अब तक वे राष्ट्र को गौरवान्वित कर रहे हैं। भीलों की भूमिका अतीत से आंकें, तो पता चलता है, कि महर्षि वाल्मिकी, सबरी और एकलव्य के उदाहरण अद्वितीय हैं। साहस, शौर्य, भक्ति और समर्पण की भावना से लबरेज़ यह जनजाति संवेदनशील होने की वजह से आज भी राष्ट्र के लिए आह्वान पर अपना सबकुछ अर्पित करने को तैयार हैं। इतिहास में एक उदाहरण मुगलकाल के दौरान भी मिलता है, जिसमें औरंगजेब के काल में यह जनजाति किसी भी प्रकार के दमनकारी दबाव से तिलमिला उठती थी।
अंग्रेज़ी हुकूमत के समय भी भीलों के कई साहासिक कारनामें सामने आते हैं। 1817 का भील आंदोलन हालांकि अंग्रेज़ों की चाल का परिणाम था, लेकिन अंग्रेज़ तब भी उन्हें काबू में नहीं कर सके थे। वैसे भील समय-समय पर राजपूतों से भी टकराते रहे, और वह भी इसलिए क्योंकि उस समय अंग्रेज़ी हुकूमत राजपूतों को काबू कर चुकी थी। लेकिन इसी अवधी में भील बनाम अंग्रेज़ आंदोलन बहुत उग्र रहा। भील अंग्रेज़ों के शोषण के खिलाफ़ थे और अंग्रेज़ अलग-अलग माध्यमों से उन पर अत्याचार करते थे। इन्हीं कारणों से संभवतः भील वनों में और भी ज़्यादा सिमटते गए। भील बार-बार अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने लगे। जिसे ख़ान देश विद्रोह के नाम से जाना जाता है। राजस्थान से उभरा ये आंदोलन 1825 ईस्वी में सातारा और 1931 ईस्वी में मालवा में फैल गया। अंग्रेज़ी सत्ता भीलों पर दमनचक्र चलाती रही, लेकिन अपनी साहसी प्रवृत्ति के कारण वो पीछे नहीं हटे, संघर्ष करते रहे। आखिरकार राजपूतों की मदद से अंग्रेज़ 1946 ईस्वी तक इन पर काबू पा सके। हालांकि भीलों पर काबू पाने का कारण पूर्व रूप से राजपूतों का अंग्रेज़ों की सत्ता कबूल करना भी नहीं था। बल्कि अंग्रेज़ों की तुलना में आधुनिक औज़ारों की होड़ में भील पीछे रह गए थे। कुछ और मामलों में भील अपनी इस कमज़ोरी को भांप गए थे। इसके बाद भीलों ने अपनी सामाजिक संरचना की मज़बूती के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन का सहारा लिया। यह आंदोलन तात्कालिक समय में राजस्थान और पश्चिमी मध्य प्रदेश में बहुत ज़्यादा प्रभावशाली रहा, और इतिहास में दर्ज हो गया।
वनवासी भील अपने सामाजिक जीवन में किसी भी प्रकार की बाहरी घुसपैठ पसंद नहीं करते। जब कभी कोई बाहरी इनका विश्वास जीतने की कोशिश करता है, तभी भील सतर्क हो जाते हैं, और उसका विरोध करते हैं। भील समाज में अतीत के आंदोलनों की स्मृति हमेशा ताज़ा होती रहती है।
राष्ट्रीय चेतना में भी भील हमेशा आगे रहे हैं, और आज भी हैं। भीलों की देशभक्ति हल्दीघाटी के मैदान में ही उजागर होकर, मुगल सेना को धूल चटाकर साबित हो चुकी है। यह महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी रहे हैं। मुगल सल्तनत और राजपूत राजाओं के संघर्ष में भीलों ने जिस शौर्य, साहस, विश्वास और पौरुष का परिचय दिया, वह भारतीय इतिहास में अनोखा और अद्वितीय है। भीलों की ताकत, युद्ध कौशल, साहस और रणनीति को परखकर राजपूत राजा इतने प्रभावित थे, कि वे भीलों को अपने परिवार की तरह ही सम्मान देते थे। भले ही प्राचीन काल से वर्तमान समय तक भील परंपरा और संस्कृति के अनुसार घांस-पूस की झोपड़ियों में रहते रहे हैं, लेकिन शौर्य, साहस, विश्वास जैसे विषयों में कोई महल का राजा आज भी इनका सानी नहीं है। वास्तविकता में भील जनजाति आज भी श्रम और साधना की प्रतिमूर्ति है। मध्य प्रदेश के भील बहुल क्षेत्र झाबुआ और अलिराजपुर में वर्तमान संस्कृतियों में इन उदाहरणों की झलक खुले तौर पर देखी जा सकती है। हालांकि भीलों ने अब आखेट छोड़ दिया है, लेकिन शिकार के औजारों से यह आज भी किसी ख़ास मौके पर प्रदर्शन ज़रूर करते हैं। भील संस्कृति की भक्तिधारा का रस वर्तमान समय में भी इनके समाज में निर्झर की तरह बहता है। ये आज भी अपने समाज के देवी-देवताओं में पूरी आस्था और श्रद्धा रखते हैं। उन्हें जीवन-मरण के चक्र में सदैव अपने परमपूज्य की छवि दिखाई देती है। शोषण और अभाव में पलते हुए भी ये भील आदिवासी असीम श्रमशील हैं, देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत हैं।
Posted Date:
November 12, 2017
1:55 pm
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