बलराज साहनी : कई चेहरों वाली शख़्सीयत

एक तरक्कीपसंद सोच की संजीदा और बेहद प्रतिभाशाली शख्सीयत। कभी बीबीसी रेडियो में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरता, तो कभी इप्टा के नाटकों में अपने अभिनय से इंकलाब का संदेश देता तो कभी फिल्मों में तमाम तरह के किरदार में जान डालता एक यादगार अभिनेता। बलराज साहनी की शख्सीयत के कई आयाम हैं। उनके कई रंगों को समेटने की कोशिश कर रहे हैं जाने माने लेखक, पत्रकार और सिनेमा के तमाम आयामों को गंभीरता से समझने वाले अजय कुमार शर्मा

1944 की गर्मियाँ…। रावलपिंडी स्टेशन पर एक बड़ी भीड़ फ्रंटियर मेल का इंतजार कर रही थी। शहर का एक होनहार युवा बी.बी.सी., लंदन की नौकरी से वापस लौट रहा था। वहाँ के लिए यह एक गर्व की बात थी। स्टेशन पर युवक के माता-पिता, भाई, रिश्तेदार उसके दोस्त और रावलपिंडी के कई महत्त्वपूर्ण लोग हाथों में फूलों की मालाएँ लिए उसका स्वागत करने के लिए बेचैन हो रहे थे…। तभी ट्रेन आकर रूकी…. सब फर्स्ट क्लास के डिब्बे की तरफ लपके… लेकिन यह क्या… वह युवा तो सेकंड क्लास के डिब्बे से नीचे उतरा… साधारण कपड़ों में और चप्पल पहनें… उसकी पत्नी भी सादी सलवार-कमीज़ पहनें थी… दोनों ने कुली बुलाने की बजाए… खुद ही अपना सामान उतारा… स्वागत के लिए उमड़ी भीड़ के दिल टूट गए…. चेहरे उतर गए…. उन्हें तो किसी सूटेड-बूटेड…सिर पर शानदार हैट लगाए और सिगार पीते हुए आदमी के उतरने का इंतजार था….युवा की बोलचाल में भी अंग्रेजों का कोई असर नहीं था…बल्कि कहें तो लग ही नहीं रहा था कि वह युवा-दंपत्ति लंदन से वापस आए हैं….
यह युवा-दंपत्ति थे बलराज साहनी-दमयंती साहनी। बलराज ने अपने व्यवहार से एक बार फिर सबको चौंका दिया था। बलराज बचपन से ही नहीं…. अपनी मृत्यु तक ऐसे ही सबको चौंकाते रहे थे….
बचपन में उन्हें और उनके छोटे भाई को गुरुकुल में पढ़ने भेजा गया, लेकिन कुछ समय बाद ही उन्होंने अपने कट्टर आर्य समाजी पिता से, वहाँ जाने से इंकार कर दिया….तब उनका और उनके भाई का दाखिला रावलपिंडी के ही डी.ए.वी. काॅलेज में कराया गया। काॅलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद बारी आगे की पढ़ाई की आई तो बलराज ने फिर उठा-पटक की। पिता चाहते थे कि वे कामर्स की पढ़ाई के लिए लाहौर के ‘हेली काॅलेज ऑफ़ कामर्स’ में दाखिला ले। ऐसा सोचते समय उनकी नज़र अपने व्यापार पर थी जिसे आगे चलकर बलराज को ही सँभालना था। लेकिन बलराज तो लाहौर के ही गवर्मेंट काॅलेज में पढ़ना चाहते थे। कामर्स या एग्रीकल्चर में उनकी कोई रूचि न थी। इस समस्या को सुलझाया डी.ए.वी. काॅलेज लाहौर के प्रिंसिपल और प्रसिद्ध आर्यसमाजी नेता लाला साईदास ने जो बलराज के पिता के मित्र थे। उनकी पहल पर अक्टूबर 1930 में बलराज ने इस काॅलेज में प्रवेश पाया।


पढ़ाई के बाद जब व्यापार सँभालने की बात आई तो कुछ दिन व्यापार करने के बाद एक दिन अचानक बलराज अपनी पत्नी को साथ ले लाहौर जा पहुँचे, एक साप्ताहिक अंग्रेज़ी अखबार निकालने। अखबार नहीं चला तो कलकत्ता जा पहुँचे साहित्यकार बनने वहाँ कुछ खास नहीं हुआ तो शांतिनिकेतन में हिंदी अध्यापक बन गए। अभी सब ठीक हुआ ही था कि वे सेवाग्राम (वर्धा) जा पहुँचे, ‘नई तालीम’ पत्र के सहायक संपादक बनकर। कुछ समय गुजरा ही था कि बी.बी.सी., लंदन में रेडियों उद्घोषक बनकर इंग्लैंड जा पहुँचे। 1944 में वहाँ से वापस आए तो बंबई जाकर नाटक और फिल्मों में व्यस्त हो गए। फिल्मों में शिखर पर पहुँचे तो निर्णय किया, फिल्मों में काम कम करूँगा….पंजाब में रहकर पंजाबी कला और साहित्य को आगे बढ़ाने का काम ज़्यादा करूँगा…

बलराज साहनी यानि बीसवीं शताब्दी के पचासवें-साठवें दशके के एक श्रेष्ठ और लोकप्रिय अभिनेता जिन्होंने अपने सभी फिल्मी किरदारों चाहे वह धरती के लाल का मजदूर हो, हम लोग का बेरोजगार नौजवान हो, दो बीघा जमीन का गरीब किसान हो, काबुलीवाला का अफगानी पठान हो या फिर गरम हवा का विभाजन की त्रासदी झेलता एक मुस्लिम व्यापारी या फिर सीमा, औलाद, भाभी, वक्त, एक फूल दो माली, दो रास्ते या संघर्ष जैसी लोकप्रिय फिल्मों में निभाए गए अलग-अलग चरित्र…उन्होंने इन सबको इतनी सहजता और विश्वसनीयता से निभाया कि कोई सहज ही यह विश्वास नहीं कर पाएगा कि वे एक संपन्न व्यवसायी के सबसे बड़े बेटे थे और फिल्मों की चकाचौंध से प्रभावित होकर नहीं बल्कि इसके जरिए सामाजिक बदलाव की इच्छा लेकर फिल्मों में आए थे। लेकिन बलराज साहनी एक अभिनेता ही नहीं बल्कि एक लेखक, अनुवादक, संपादक, अध्यापक, रेडियो उद्घोषक, नाट्य निर्देशक, पटकथा लेखक, ट्रेड यूनियन नेता और समाजसेवी भी थे। यानि कई चेहरों वाली शख़्सीयत…


लगभग साठ वर्ष की सामान्य अवधि की जिंदगी में इतनी विविधता और बदलाव… यह सब बलराज साहनी की उस बेचैनी का नतीज़ा है जो उन्हें हमेशा कुछ नया और बेहतर करने के लिए प्रेरित करती रही। इस तरह की बेचैनी उस दौर में संभवतः उन जैसे पढ़े-लिखे और संवेदनशील हजारों युवाओं की रही होगी जो एक गुलाम देश में रह रहे थे…।
आइए उनकी पुण्यतिथि पर रूबरू होते हैं, उनके इन अलग-अलग चेहरों के कुछ रंगों से…

दोस्ती के लिए

रावलपिंडी में बलराज की अपने दो दोस्तों जसवंत राय और बख़्शी कल्याण दास के साथ ख़ूब पटती थी। जसवंत तय उम्र में उनसे बड़े थे और इंटर की कक्षा में उनके अध्यापक थे। सामान्य अध्यापकों की बजाए वह विद्यार्थियों में बहुत लोकप्रिय थे और उनसे दोस्ताना व्यवहार रखते थे। आगे चलकर उनकी बहन दमयंती से उनका विवाह हुआ। बख़्शी कल्याण दास और बलराज की दिलचस्पियाँ आपस में बहुत मेल खाती थी। दोनों को घूमने, तैरने का बेहद शौक था। एक दिन बख़्शी ने बलराज को बताया कि उसकी सगाई उसकी मर्जी के खि़लाफ़ कर दी गई है। वे इसको तोड़ नहीं सकते थे क्योंकि इसे उनके चाचा ने ही तय किया था। बलराज ने अपने दोस्त की सहायता करने का फ़ैसला किया। उन्होंने बख़्शी के उसी चाचा को, जिन्होंने यह सगाई कराई थी को एक ‘गुप्त पत्र’ लिखा कि यह सगाई तोड़ दे….मासूम लड़की की ज़िंदगी ख़राब न करें….क्योंकि लड़का ‘नामर्द’ है।’’ खत बलराज ने अपने चपरासी से उन चाचा तक पहुँचवा दिया। खत तो पहुँच गया लेकिन बलराज पकड़ लिए गए। हुआ यह कि उनके चपरासी को चाचा के लोगों ने पहचान लिया और उनके घर पहुँच गए। खूब हँगामा हुआ, लेकिन लड़की वाले लाख समझाने के बाद भी शादी के लिए तैयार न हुए। बलराज का दोस्त को बचाने का यह फिल्मी-ड्रामा आधा फेल आधा पास रहा।

मोटर-साइकिल का ड्राइवर

मोटर कार के लिए ड्राइवर रखना आम बात है, लेकिन मोटर-साइकिल के लिए ड्राइवर रखने वाले संभवतः बलराज साहनी अकेले आदमी होंगे। अपने फिल्मी कैरियर के शुरुआती दिनों में काम की तलाश में स्टूडियों के चक्कर काटते-काटते उन्होंने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि वहाँ पैदल जाना अपमान की बात है। एक दिन उनके दोस्त मामा फसलाकर ने उन्हें बताया कि व्ही. शांताराम के छोटे भाई अवधूत अपनी नई पाँच हार्स पाॅवर की ए.जे. ऐस मोटर-साइकिल बेचना चाहते हैं। गाड़ी बहुत अच्छी है और सस्ते दामों में मिल रही है….ऐसा सौदा छोड़ना नहीं चाहिए….। बलराज ने इधर-उधर से किसी तरह पैसा इकट्ठा कर मोटर-साइकिल खरीद ली। लेकिन अब समस्या थी कि इतनी भारी-भरकम मोटर-साइकिल को चलाया कैसे जाए। इसका हल निकला मामा फसलाकर के रूप में ही। उन्हें यह चलानी भी आती थी और उन्हें इसको चलाने का भी शौक था। ख्वाज़ा अहमद अब्बास के सहायक फसलाकर उन दिनों खाली भी थे। इस तरह फसलाकर बलराज की मोटर-साइकिल के ड्राइवर बन गए। बदले में वे बलराज के साथ ही रहते और वहीं खाते-पीते। यह सिलसिला उस समय तक चला जब तक बलराज ने खुद मोटर-साइकिल चलाना सीख नहीं लिया।

बाजी-बलराज-बदरूद्दीन

फिल्मों में अभिनय के अच्छे अवसर न मिलने पर बलराज ने कई तरह के काम किए। उनके दोस्त चेतन आनंद ने अपनी फिल्म कंपनी ‘नवकेतन’ के बैनर तले बन रही फिल्म ‘बाजी’ की पटकथा और संवाद लिखने का काम उन्हें सौंपा। पारिश्रमिक तय हुआ चार हजार रुपए। इस फिल्म का निर्देशन कर रहे थे युवा गुरुदत्त, जिनकी यह पहली फिल्म थी। बलराज को गुरुदत्त की लिखी कहानी कच्ची और धुँधली सी लगी। उन्होंने उसे सजाने-सँवारने के लिए छह महीने का समय माँगा। गुरुदत्त को जल्दी थी लेकिन चेतन की वजह से वह बलराज को कुछ कह नहीं पाए, लेकिन मन-ही-मन कुढ़ते रहे। दोनों के बीच विभिन्न दृश्यों को सुधारने के लिए घंटों बहस होती। आखिर दोनों लोग फिल्म के ‘क्लाइमैक्स’ (अंतिम दृश्य) को लेकर बुरी तरह उलझ गए। दोनों को कोई राह नहीं सूझ रही थी। इसकी राह निकाली लेखक/निर्देशक जिया सरहदी ने जो बलराज के घर के पास एक होटल में रह रहे थे। जिया ने एक अमेरिकी फिल्म के आधार पर ‘क्लाइमैक्स’ सुझाया जो गुरुदत्त और बलराज दोनों को बेहद पसंद आया। सोचा गया व्हिस्की मँगाकर खुशी मनाई जाए। तीनों ने अपनी जेबों में हाथ डाले….लेकिन कड़की के मारे…तीनों बेचारे…कहीं कुछ न मिला…


इस फिल्म में बलराज ने ‘बदरू’ को ध्यान में रखकर शराबी का एक छोटा सा रोल ‘विशेष तौर’ पर लिखा था। बदरू यानी ‘बदरूद्दीन’ से उनकी मुलाकात हलचल फिल्म के सेट पर हुई थी जहाँ वह खाली समय में शराबी, जुआरी और मजमा लगाने वालों की नकलें उतारकर सबका मनोरंजन करता था। एक दिन बलराज ने उन्हें डाँटते हुए कहा कि चार रुपयों के लिए तुम यह क्या बंदरों जैसी हरकतें करते रहते हो। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। बदरूद्दीन ने सहमते हुए कहा कि शर्म तो आती है लेकिन… तब बलराज ने उनसे वादा किया कि वे उन्हें उनकी काबलियत के मुताबिक काम दिलाएँगे। बलराज जब भी माहिम से गुजरते बदरू उनकी मोटर-साइकिल रोक उन्हें अपने वादे की याद दिलाते। ‘बाजी’ में उन्होंने उनके लिए किरदार तो लिख लिया, लेकिन वह उन्हें ही मिलें इसके लिए उन्होंने बदरू के साथ मिलकर एक योजना बनाई।
एक दिन जब चेतन, देव आनंद, गुरुदत्त और बलराज नवकेतन के दफ़्तर में बैठकर कुछ सलाह-मशविरा कर रहे थे कि तभी वहाँ एक शराबी घुस आया। उसने देव आनंद को अंट-शंट बकना शुरू कर दिया। पहले तो सब चैंके, लेकिन शराबी ने अपनी हरकतों से ऐसा समा बाँधा कि उन सब के साथ पूरा आॅफिस हँस-हँसकर पागल हो गया। आधा-पौन घंटा बीत जाने पर चेतन को आॅफिस की मर्यादा का ख़्याल आया। जैसे ही शराबी को निकालने का आदेश हुआ तो वह बलराज के इशारे पर सबको सलाम ठोंक सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। कुछ समय पहले शराब के नशे में डूबा आदमी अब पूरी तरह होश में था। अपनी तरफ़ देख रहे चेतन को बलराज ने सारी सच्चाई बता दी। उन्हें फौरन यह रोल दे दिया गया। यह बदरू ही आगे चलकर जानी वाकर बन फिल्मी दुनिया पर छा गए। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आगे भी शराबी की कई यादगार भूमिकाएँ करने वाले और शराब के एक मशहूर ब्रांड पर अपना नाम रखने वाले बदरू ने अपनी पूरी ज़िंदगी शराब को चखा तक न था…
बलराज ने ‘बाजी’ में छह गानों की जगह रखी थी लेकिन गुरुदत्त ने इन्हें बढ़ाकर नौ कर दिया था। बलराज को यह बात बुरी लगी और गुरुदत्त के साथ उनके संबंध फिर कड़वे हो गए। ‘बाजी’ हिट रही। देखते-देखते देव आनंद गीता बाली, गुरुदत्त, साहिर लुधियानवी (फिल्म के गीतकार) और सचिन देव बर्मन प्रसिद्धि के शिखर पर जा पहुँचे। पर बलराज की कोई विशेष चर्चा नहीं हुई। इस वर्ष उनकी भी फिल्म ‘हम लोग’ हिट रही थी।
चेतन ने उन्हें अपनी एक अगली फिल्म ‘सोलह आने’ के भी संवाद और पटकथा लिखने के लिए दिए थे, कुछ समय उन्होंने उस पर काम भी किया लेकिन पटकथा लेखकों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार न होने के कारण उन्होंने इसे पूरा ही नहीं किया।

घोड़ा गाड़ी से रेस…बीयर और ब्रांडी

फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ के सबसे प्रभावशाली दृश्यों में से एक दृश्य वह है जब फिल्म का नायक शंभु महतो (बलराज साहनी) घोड़ा गाड़ी से रेस करता नज़र आता है। अपने अभिनय में वास्तविकता लाने के लिए बलराज कोलतार की तपती सड़कों पर स्वयं ही नंगे पाँव दौड़ थे। गर्म सड़कों पर नंगे पाँव दौड़ते-दौड़ते उनके पैरों में छाले पड़ गए थे। गर्मी और थकावट से बेहाल बलराज के चेहरे पर दुख और पीड़ा के भाव साफ नज़र आ रहे थे। विमल राय ऐसे वास्तविक दृश्यों को ज़्यादा-से-ज़्यादा फिल्माना चाह रहे थे। बलराज जब भी अपने थक जाने की बात करते विमल राय, ‘‘बस दो शाॅट और रह गए हैं’’ कहकर फिर उन्हें दौड़ाने लगते। आखि़र तंग आकर बलराज बोले, ‘‘अब तो बीयर की दो बोतलें मेरे सामने टांगिए….तभी मैं दौड़ सकूँगा वरना नहीं…।’’ तब विमल राय ने उन्हें यकीन दिलाया कि शाॅट ख़त्म होते ही उनके सहायक असित सेन उन्हें कलकत्ता के मशहूर रेस्टोरेंट ‘फर्षो’ में ले जाकर जितनी बीयर चाहें उतनी पिला देंगे। आखिरी शाॅट कहते-कहते भी विमलराय ने कई शाॅट ले ही डाले। शाॅट ख़त्म कर जब वे और असित सेन ‘फर्षो’ पहुँचे तो पता चला कि आज तो ‘ड्राई डे’ है। खीज़ से भरे बलराज ने बाहर निकलते ही असित सेन की ग़र्दन पकड़ ली और चिल्लाए, ‘‘जहाँ से भी हो मेरे लिए बीयर लाओ नहीं तो मैं तुम्हें जान से मार दूँगा।’’ असित सेन काफी भटकने के बाद कहीं से बीयर ले ही आए। लेकिन तब तक बलराज का जोश और जिस्म दोनों ठंड़े हो चुके थे। तब उन्होंने असित सेन से ब्रांडी पीने की पेशकश कर दी। असित सेन के सब्र की भी हद हो चुकी थी…सो दोनों के बीच में अच्छा-खासा झगड़ा हुआ। असित सेन इस बात पर अड़ गए कि उन्हें बीयर पिलाने का आदेश है तो वे बीयर ही पिलाएँगे….चाहें ब्रांडी सस्ती ही क्यों न हो। थक हार कर बलराज को बीयर ही पीनी पड़ी….

पाकिस्तान का सफ़र

बलराज साहनी का जन्म रावलपिंडी में हुआ था। इंटर तक की पढ़ाई भी वहीं हुई थी। उनका पुश्तैनी कस्बा भेरा भी पास ही था। आगे की उच्च शिक्षा उन्होंने लाहौर में की और कुछ दिन यह शहर उनकी कर्मस्थली भी रहा। विभाजन के समय उनके परिवार का सब कुछ वहीं छूट गया था। संवेदनशील बलराज को अपने जन्मस्थान और वास्तविक वतन की बहुत याद आती। 1962 में उन्हें वहाँ जाने का मौका मिला। वह बहुत खुश थे। सबसे पहले वे लाहौर पहुँचे जहाँ वे गवर्मेंट काॅलेज (जिसमें उन्होंने पढ़ाई की थी) के प्रिंसिपल डाॅ. नजीर अहमद के मेहमान थे। अपनी इस यात्रा में तमाम मुश्किलों के बावजूद वे उस हर जगह गए जहाँ उन्होंने थोड़ा भी समय बिताया या उनका कोई परिचित रहता था। उनके लिए यह एक बेहद जज़्बाती दौरा था।
वे अपने पुश्तैनी कस्बे भेरा गए। वहाँ सहानियों के मुहल्ले में उनका घर था। पहले तो वह अपना घर ढूँढ़ नहीं पाए…किसी के मकान की छत पर चढ़े तो उन्हें अपना घर दिख गया। वे वहीं रोने लगे…बड़ी मुश्किल से नीचे उतार कर उन्हें अपना घर दिखाया गया।
रावलपिंडी के छाछी मुहल्ले में जब वह अपना घर देखने गए तब वहाँ कोई बरात आई हुई थी। वे शीघ्र ही वहाँ रह रहे मुस्लिम परिवार और बरात के साथ घुल-मिल गए। बरात को उन्होंने अपने हाथों से खाना परोसा। घर में इस्तेमाल हो रहे अपने बर्तनों और फर्नीचर को देख वे बहुत भावुक हो उठे। कुछ बर्तनों में तो उनके पिताजी का नाम तब तक भी खुदा हुआ था।
रावलपिंडी में वह अपने लड़कपन के दोस्तों और पड़ोसियों से भी मिले। उनका कोई दोस्त ताँगा चला रहा था तो कोई ड्राइवर था। एक दोस्त तहसीलदार भी था। एक दोस्त को उन्होंने पहचाना तो किंतु उसका नाम याद नहीं कर पाए। उसका उनके घर खूब आना-जान था। उन्होंने उससे जब नाम पूछना चाहा तो वह बुरा मान गया। उसने उनसे गुस्से में कहा, ‘‘मेरा नाम तू अपनी माँ से पूछना।’’ वापस आकर उन्होंने माँ से उसका हुलिया बताते हुए उसका नाम पूछा तो माँ ने फौरन बता दिया…अरे…वह तो मेरा मुख़्तार था। उसे कैसे भूल सकती हूँ?’’
लाहौर में वे सैयद इम्तियाज अली ताज और शौकत साहब से मिले जिन्होंने गवर्मेंट काॅलेज में नाटकों के दौरान अभिनय के पहले पाठ पढ़ाए थे। विभाजन से पहले बंबई के फिल्म गगन में चमकते कई सितारों से वे ताज साहब के घर पर ही मिलें जिनमें नूरजहाँ, नीना, रफ़ी पीर, डब्लू.जेड.अहमद प्रमुख थे। डब्लू.जेड.अहमद वही शख़्स थे जो उनको मिली पहली फिल्म ‘नीचा नगर’ को प्रोड्यूस करने वाले थे। नीना उनकी पत्नी थी।
जब यह सफ़रनामा किताब के रूप में छपकर सामने आया तो इसके आवरण पर बलराज के दोस्त और पड़ोसी बोस्तान खान के साथ उनका गले मिलते हुए फोटो छपा था।

जे.एन.यू. में दीक्षांत भाषण

नवंबर 1972 में उन्हें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के दीक्षांत समारोह में भाषण देने के लिए बुलाया गया। कुछ लोगों को इस पर ऐतराज़ था और कुछ लोगों का सोचना था कि एक अभिनेता इतने बड़े, प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने क्या बोलेगा…? बलराज ने यह निमंत्रण नेहरू के प्रति अपनी श्रद्धा और आदर भाव के चलते ही स्वीकार किया था।
उनका अच्छा खासा लंबा यह दीक्षांत भाषण इतना प्रेरणाप्रद और प्रभावशाली रहा कि छात्र बिना शोर किए चुपचाप बैठे रहे। उनकी योग्यता पर शक कर रहे लोग भी इस भाषण की प्रशंसा किए बिना न रह सके।
इस भाषण को इतना पसंद किए जाने का कारण यह था कि यह कोई किताबी भाषण नहीं था। बलराज जी ने वहीं कुछ कहा जो उन्होंने अपने जीवन में महसूस किया। अपने खास अंदाज, सीधी-सादी भाषा और सहज स्वाभाविक ढंग से उन्होंने छात्रों से अपने अनुभव साझा किए। छात्रों को ऐसा लगा जैसे कोई उनके पास बैठकर उनसे बात कर रहा है। उपस्थित छात्रों पर उनके मुँह से निकले एक-एक शब्द का गहरा असर पड़ा।
उन्होंने भारतीय फिल्मों, यहाँ के अभिनेताओं, भारत की जनता की गुलाम मानसिकता, हमारे साहित्य, साहित्यकारों, शिक्षा के स्वर, भाषा का मसला, अंग्रेजी भाषा के प्रति अतिरिक्त लगाव, पुलिस-मंत्रियों की लापरवाही की बात सच्चे और अपने उदाहरणों से छात्रों के सामने रखी। अंत में उन्होंने छात्रों से स्वतंत्र चिंतन अपनाने और अपनी उस सोच को छोड़ने की प्रार्थना की जिसके चलते हम पश्चिम से आई या अनुमोदित चीज़ को सर्वश्रेष्ठ समझ उसका अंधा अनुकरण करने लगते हैं। उनका कहना था कि एक आजाद और स्वाबलंबी देश के नागरिकों को यह शोभा नहीं देता है…।

सामाजिक एवं सार्वजनिक जीवन

ब्लराज साहनी द्वारा लेखन कार्य, ‘इप्टा’ के साथ घूम-घूमकर पूरे देश में नाटकों का मंचन, फिल्मों में अभिनय करने के बारे में अधिकतर लोग जानते हैं…लेकिन देश के एक सजग नागरिक होने के नाते वे सार्वजनिक जीवन में भी सक्रिय रूप से भाग लेते रहे, इस बारे में लोगों को कम ही जानकारी है।
आम लोगों, मज़दूरों, फिल्मी कलाकारों, संस्कृति कमियों, युवाओं, फौजियों की सहायता के लिए कोई भी मुहिम होती तो उसके लिए सभा, जुलूस, चंदा, प्रदर्शन आदि करने के लिए वे हमेशा प्रस्तुत रहते। इसके लिए वे देश के किसी भी कोने में जाने के लिए तैयार रहते। इतना ही नहीं कई विदेशी प्रतिनिधि मंडलों के साथ विदेश यात्राएँ भी कीं। जुलाई 1955 में बलराज जी वारसा (पाॅलैंड) में होेने वाले विश्व युवा समारोह में प्रतिनिधि मंडल के अध्यक्ष बनकर गए थे। इसके कुछ ही समय बाद वह एक सिने-शिष्टमंडल के साथ चीन की यात्रा पर भी गए थे जिसका नेतृत्व विख्यात सिने और नाट्य कलाकार पृथ्वीराज कपूर ने किया था। इस शिष्ट मंडल में उनके साथ ख़्वाजा अहमद अब्बास और चेतन आनंद भी थे।
1969 में वे भारतीय प्रतिनिधि मंडल के अध्यक्ष बनकर रूस की यात्रा पर गए थे। इस यात्रा में उनके साथ ज्ञानी जैल सिंह (भारत के पूर्व राष्ट्रपति), भी गए थे। रूस में इस टोली में बलराज के बेटे परीक्षित साहनी भी जुड़ गए थे जो मास्को में अभिनय की पढ़ाई कर रहे थे।
उन्होंने अपने मित्रों कृष्ण मेनन, (जो लंदन प्रवास के दौरान उनके मित्र बने थे) श्रीमती सुभद्रा जोशी और अमरनाथ विद्यालंकार की चुनाव-मुहिमों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
सार्वजनिक कार्यों के प्रति उनका लगाव और सक्रियता जीवन के अंतिम दिनों तक बनी रही। मृत्यु से एक दिन पहले ही उन्होंने हैदराबाद के बालिगा मैमोरियल अस्पताल के उद्घाटन करने की स्वीकृति दी थी। अपनी बेटी शबनम की दुखद मृत्यु के समय भी वह बंबई में नहीं थे। वे उस समय चुनाव-प्रचार के लिए मध्यप्रदेश गए हुए थे। बेटी की मृत्यु का समाचार उन्हें इंदौर में मिला था।
जब भी किसी दंगा-फसाद, प्राकृतिक-प्रकोप की जानकारी उन्हें मिलती वे सब कुछ भूल जल्दी-से-जल्दी वहाँ पहुँच लोगों की सहायता करना शुरू कर देते। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले ही वह महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों का दौरा करके लौटे थे। भिवंडी में हुए सांप्रदायिक दंगों के समय, पहले तो वे भीष्म साहनी, ख्वाज अहमद अब्बास और आई.एस.जौहर आदि के साथ गए थे और बाद में वहाँ अकेले ही दो हफ़्ते मुस्लिमों की बस्ती में रहे थे।
बांग्लादेश युद्ध के दिनों में उन्होंने पश्चिम बंगाल के अनेक हिस्सों का दौरा किया था।
देश-दुनिया के संकटपूर्ण मसलों पर ही नहीं छोटी-छोटी विसंगतियों पर भी उनकी नजर पड़ती थी। अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले ही उन्होंने जुहू के समुद्रतट (जहाँ उनका घर ‘इकराम’ था) के निकट अंधाधुंध गिराए जा रहे नारियल के पेड़ों के बारे में ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ को एक शिकायती पत्र लिखा था।
इन सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों में भाग लेने के लिए वे जहाँ विभिन्न संस्थाओं के सदस्य बनते थे वहीं उन्होंने खुद भी संस्थाओं का निर्माण किया।
‘इप्टा’ की बंबई शाखा के संचालक वे थे ही। उन्होंने स्वयं और कम्यूनिस्ट पार्टी के साथी पी.के. वासुदेवन नायर के साथ ‘आल इंडिया यूथ फैडरेशन’ संस्था का निर्माण किया था। दिल्ली में इसका पहला सम्मेलन किया गया। कामरेड गुरूराधा कृष्ण के सहयोग से इसमें 250 से ज्यादा युवा प्रतिनिधियों ने भाग लिया जो कि देश के कोने-कोने से आए हुए थे। बलराज साहनी को इसका पहला अध्यक्ष चुना गया था।
1950 में जब विभिन्न मतभेदों के चलते ‘इप्टा’ की गतिविधियाँ कम हुई तो बलराज ने ‘जुहू आर्ट थियेटर’ नामक एक शौकिया रंगमंडली स्थापित की। इसमें उनकी पत्नी संतोष, नितिन सेठी, मोहन शर्मा, इनकी पत्नियाँ और अनेक स्थानीय नौजवान शामिल थे। इसने कई यादगार प्रस्तुतियाँ दी। दिल्ली-आगरा में गरम हवा की शूटिंग खत्म करने के बाद उनकी तबियत खराब हो गई थी लेकिन इस पर भी वे ‘आलइंडिया रेडिया’ और ‘साँग एंड ड्रामा डिवीजन’ की कलाकार-यूनियनों के सम्मेलन का उद्घाटन करने (2 जनवरी 1973) दिल्ली जा पहुँचे थे और पूरे समारोह के दौरान रहकर उनकी समस्याओं को बड़े गौर से सुना था।
इसी दौरान उन्होंने पंजाबी भाषा-साहित्य और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए ‘पंजाबी कला केंद्र’ की स्थापना की थी। इसके बैनर तले ही उन्होंने जनवरी-फरवरी 1973 में बंबई में पंजाबी नाटक समारोह का सफलतापूर्वक आयोजन किया था।
इस सब के दौरान छोटे-बड़े और कई महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से उनकी मुलाकात होती…लेकिन उनकी बजाए कई आम चरित्रों से उनकी मित्रता बहुत अच्छी रही और उस पर उन्होंने अपनी पुस्तक ‘यादें’ में लिखा भी ख्ूाब है। इन दोस्तों में रावलपिंडी के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता योगीनाथ का बेरोजगार भतीजा है, तो कन्हेरी गुफाओं में शौकिया गाइड का काम करने वाला म्हात्रे भी है। अँधेरी की चाल में रहने वाली सीता है जिसे उन्होंने अपनी बहन बनाया और उससे राखी बँधवाने उसकी चाल तक जाते रहे। ओम प्रकाश नाम का पैर कटा फौजी है जिसके साथ वे उसके घर उसकी माँ से मिलने चंडीगढ़ गए तो गोरेगाँव के पास की बस्ती नेताजी नगर के बुर्जुग ‘भैय्याजी’ भी हैं जिनके पोते से वादा कर भी वह उससे नहीं मिल पाते हैं।
समाज के प्रति उनकी इसी प्रतिबद्धता के चलते उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किए जाने का प्रस्ताव रखा गया था, जिससे उन्होंने इंकार कर दिया था।

 

 

अजय कुमार शर्मा (जन्म : 1966, बरारी, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश) भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पी.जी. डिप्लोमा (1991)। हिंदी की पहली वीडियो समाचार पत्रिका ‘कालचक्र’ में कार्य के बाद दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल के लिए कृषि मंत्रालय के चर्चित धारावाहिक ‘कृषि-कथा’ का शोध संयोजन एवं सह-निर्देशन। देश के सबसे बड़े स्वयंसेवी स्वास्थ्य नेटवर्क ‘वालेंट्री हेल्थ एसोसिएशन’ की दिल्ली शाखा के कार्यकारी निदेशक भी रहे। प्रसिद्ध साहित्यकारों भारतेंदु हरिश्चंद्र, रामविलास शर्मा, महादेवी वर्मा और धर्मवीर भारती पर निर्मित वृतचित्रों के अतिरिक्त लंबे समय तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कई प्रोजेक्ट्स में शोध संयोजन, पटकथा एवं निर्देशन सहयोग। कुछ समय ‘समकाल’ पाक्षिक पत्रिका का संपादन। चार दशकों से देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य, संस्कृति, नाटक, इतिहास, सिनेमा और सामाजिक विषयों पर निरन्तर लेखन । पिछले तीन वर्षों से सिनेमा पर लोकप्रिय साप्ताहिक कॉलम ‘बॉलीवुड के अनकहे किस्से’ का नियमित प्रकाशन । संप्रति दिल्ली स्थित राष्ट्रीय साहित्य संस्थान साहित्य अकादेमी में संपादन कार्य।

Posted Date:

April 13, 2025

2:41 pm Tags: , , , , , ,

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