अजहर आलम की याद

कोरोना के कारण भारतीय और हिंदी रंगमंच को जो क्षति हुई है उसकी गिनती की जाए तो उसमें एक बड़ा नाम एस एम अज़हर आलम (जन्म 17 अप्रेल 1968) का होगा। लगभग एक साल पहले यानी 20 अप्रेल 2021 को वे कोरोना के शिकार हुए थे। उसके कुछ ही दिन  पहले उनको मौलिक नाट्य लेखन के लिए नेमीचंद्र जैन नाट्यलेखन सम्मान मिला था। पर ये सम्मान अज़हर आलम का महत्त्वपूर्ण पर छोटा परिचय ही था।

असल में वे एक बहुप्रतिभाशाली रंगकर्मी थे।  एक बहुत ही अच्छे अभिनेता थे, नाटककार , अनुवादक और रूपांतरकार थे और बरसों से अपनी पत्नी उमा झुनझुनवाला के साथ कोलकोता में `लिटल थेस्पियन’ नाम से रंग संस्था चला रहे थे। `लिटल थेस्पियन’ एक ऐसी रंगसंस्था है जो लगभग पैंतीस बरसों से कोलकोता और पश्चिम बंगाल में कई स्तरों पर सक्रिय रही है। पिछले हफ्ते इसी की ओर से कोलकाता में अज़हर  की याद में एक समारोह हुआ जिसमें देश के कई रंगकर्मी शामिल हुए और उन्होंने रंगमंच के विभिन्न क्षेत्रों में अज़हर के योगदान को याद किया। `लिटल थेस्पियन’ इसी कड़ी में कई और पहल करने जा रही है। जैसे शोधवृत्ति देना औऱ सालाना किसी बड़े रंगकर्मी को समान देना।

ये ठीक है कि हिंदी भाषी इलाके में अज़हर के योगदान को ठीक से पहचाना नहीं गया। और इसका बड़ा कारण ये है कि पश्चिम बंगाल औऱ कोलकाता में सक्रिय हिंदी रंगकर्मियों की पहचान हिंदी के जगत में देर से  होती है। हालांकि अनुभव और योगदान के खयाल से देखा जाए तो अज़हर जैसी बहुमुखी प्रतिभा हिंदी भाषी इलाके में बहुत कम रहे हैं। और उनके रंग व्यक्तित्व की बड़ी खासियत ये है कि हिंदी और उर्दू – दोनों की विरासत उनके पास थी। इसलिए उनके लिखे नाटक हिंदी के भी थे और उर्दू के भी। वैसे भी रंगमच की दुनिया में इन दोनों भाषाओं में कोई बुनियादी फर्क नहीं है लेकिन कई बार राजनैतिक वजहों से दोनों में फर्क किया जाता है। बहरहाल राजनीति वाली बात फिलहाल यहां विषयांतर होगी इसीलिए इसे यहीं छोड़कर आगे बढ़े  तो ये कहना प्रांसंगिक होगा कि पश्चिम बंगाल में सक्रिय अज़हर आलम उस गंगा जमुनी तहज़ीब को आगे बढाने वाले  थे।

अज़हर आलम के चर्चित नाटक ‘चेहरे’ का एक दृश्य

उन्होंने उस विरासत को समृद्ध किया  जो हमारी कलात्मक चेतना का अहम  हिस्सा रही है। अज़हर के लिखे मौलिक नाटकों – `रूहें’ `चाक’, `नमक की गुड़िया’- को देखें तो ये कहना पड़ेगा उनमें वह विश्वबोध भी था जो किसी लेखन को युगीन के साथ साथ सार्वयुगीन चेतना से भी जोड़ती है। `रूहें’ नाटक की ये पंक्तियां अपने भी बहुत कुछ कहती हैं- `जालिम लोगों के दिलो पर कभी हुकूमत नहीं कर सकता। हवाओं, फिजाओं में तैरती हुई खुशियों पर किसी का कब्जा नहीं होता। इंसान की जरूरतों को बदला जा सकता है, उन पर कब्जा किया जा सकता है, लेकिन मुहब्बत पर कभी कब्जा नहीं होता, कुदरत के गीतों के सामने नक्कारे पर बर्बरियत की चोट गूंगी हो जाती है।‘

बेहतर होगा कि भारतीय और हिदी रंगमंच अजहर आलम के योगदान से अधिकाधिक परिचित हो। `लिटिल थेस्पियन’ तो ये काम कर रहा है बाकी लोगों की भी ये जिम्मेदारी बनती है अज़हर आलम के अवदान औऱ योगदान को याद रखें।

रवीन्द्र त्रिपाठी

Posted Date:

March 5, 2022

8:17 am Tags: , , , ,
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