संवाद करती हैं अशोक भौमिक की आकृतियां

दिल्ली में आम तौर पर हर रोज़ और हर आर्ट गैलरी में आपको तमाम कला प्रदर्शनियां देखने को मिल जाएंगी। देश भर के कलाकारों के लिए अपनी प्रतिभा और कलाकृति को अभिव्यक्त करने और कला समीक्षकों की नज़र में खास पहचान बनाने के लिए दिल्ली, मुंबई, कोलकाता या ऐसे महानगरों की खास अहमियत है। लेकिन आज हम जिस कलाकार की प्रदर्शनी का जिक्र करने जा रहे हैं, उनकी कला यात्रा अपने आप में खास है और उनके कैनवस पर जो रंग और भाव उतरते हैं उनके खास मायने होते हैं। हम बात कर रहे हैं अशोक भौमिक की।

एक बेहतरीन और अद्भुत उर्जा से भरपूर कलाकार हैं अशोक भौमिक। प्यार से उन्हें लोग भौमिक दा कहते हैं। संघर्षों से तपे और बढ़े हैं। करीब चार दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े रहे हैं। अस्सी के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दीवारों पर भौमिक दा के खूबसूरत पोस्टर सबका ध्यान खींचते थे। फिर लखनऊ में उनकी कला और निखर कर नज़र आई। जन संस्कृति मंच की स्थापना के बाद से ही वे इससे बेहद सक्रियता से जुड़े और तमाम सांस्कृतिक आंदोलनों को अपनी कला, अपने लेखन और संस्कृतिकर्म के ज़रिये समृद्ध किया। अब तो वो अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के बेहद संवेदनशील, सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले और कला की बारीकियों पर लगातार लिखने वाले अद्भुत शख्सियत हैं। भौमिक दा की ताजा एकल प्रदर्शनी ‘मेड इन द शेड’ दिल्ली के कनाट प्लेस में धूमिमल आर्ट गैलरी में पिछले करीब एक महीने से चल रही है और अभी कुछ दिन और इसे देखा जा सकता है। 

 

इस प्रदर्शनी में तमाम अखबारों और वेब पोर्टल में अलग अलग तरीके से खूब लिखा भी गया है। लेकिन हम आपके लिए इस कला प्रदर्शनी पर अपने दो मित्रों के आलेख पेश कर रहे हैं जिन्होंने इसे बेहद बारीकी से देखा और महसूस किया है। पहला आलेख है जाने माने नाटककार और संस्कृतिकर्मी राजेश कुमार का जो उन्होंने न्यूज़ क्लिक के लिए लिखा है तो दूसरी टिप्पणी हमने पंकज श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से ली है। पहले राजेश कुमार  को पढ़िए….  

राजेश कुमार के आलेख का शीर्षक है —

खुरची आकृतियों का द्वंद्व: अशोक भौमिक की एकल प्रदर्शनी

इन दिनों दिल्ली, कनॉट प्लेस के धूमिमल आर्ट गैलरी में चित्रकार अशोक भौमिक की एकल प्रदर्शनी ‘ मेड इन द शेड ‘ चल रहा है । इसका आगाज़ 10 जून, 22 को हुआ था।  जिस तरह चित्रकला की दुनिया में अशोक भौमिक की पेंटिंग्स का स्वागत हुआ है और देखने वाले आम लोगों के बीच इन तस्वीरों को लेकर उत्सुकता जगी है, प्रदर्शनी की अवधि और बढ़ने की संभावना है। गैलरी में नियमित रूप से आने वालों की संख्या में चित्रकला से जुड़े लोग तो हैं ही, एक बहुत बड़ी तादाद साहित्य – संस्कृति और सामाजिक संघटनों से संबंधित मिजाज वालों के भी हैं। बल्कि परंपरागत चित्रकला के अपेक्षा दूसरी विधाओं के लोगों की उपस्थिति कुछ ज्यादा नजर आ रही है । गैलरी में धीमे -धीमे घूमने वाला व्यक्ति कोई प्रकाशक है तो कोई थिएटर एक्टिविस्ट तो कोई कवि, कथाकार, पर्यावरणविद।

गैलरी में टंगी तस्वीरों में से लोगों को जो सबसे अधिक ध्यान खींच रही हैं तो वो है , पेंटिंग में की गयी क्रॉस हैचिंग। यह तकनीक इतनी सरल, सीधी , पतली और बारीक है कि देखने वालों को अमूर्त्तता के जाल में उलझाती नहीं है। जो कहना चाहती हैं स्पष्ट कह देती हैं। इन तस्वीरों में क्रॉस हैचिंग केवल एक तकनीक भर नहीं है, बल्कि अशोक भौमिक के लिए अपनी बात कहने का एक कारगर माध्यम है। अभिव्यक्ति के इस माध्यम पर उन्हें पूरा भरोसा है , इसलिए समाज और समय को कैनवास पर उतरना होता है तो बार-बार इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। इस तकनीक को केवल प्रयोग या कुछ अलग करने या अपनी नई पहचान बनाने के लिए नहीं करते हैं। कहीं न कहीं अपने विचार और कथ्य को सम्प्रेषित करने में सहज महसूस करते होंगे, देखनेवालों से एक गहन रिश्ता बना पाने में जुड़ाव का एहसास करते होंगे, शायद प्रमुख कारण हो।

अपनी पेंटिंग में क्रॉस हैचिंग को बार-बार इसलिए नहीं लाते हैं कि यह कोई आसान पद्धति है। पूछने पर अशोक भौमिक बताते हैं कि यह पद्धति जितना देखने में आसान लगती है, उतनी है नहीं। यह पेंटिंग की एक कठिन तकनीक है। यह चित्रकार से बहुत अधिक परिश्रम, धैर्य और समय की माँग करती है। क्रॉस हैचिंग में इस्तेमाल की गई स्याही वाली नुकीली कलम के संचालन में हाथों का कंट्रोल सधा हुआ होना चाहिए । जहां हल्की ज़रूरत हो , सावधानी बरतनी होती है कि कोई स्ट्रोक डार्क न हो जाए । मतलब कि इसमें सावधानी और संतुलन अपेक्षित है अन्यथा असर कम होने की सम्भावना बढ़ जाती है ।

कोई भी कला हो, उसका उद्देश्य होता है आस- पास का जो समाज है , उसे उतारना । चाहे वह कविता हो या कहानी , नाटक या चित्रकला । कला में आने की पहले कलाकर को उसे अपने अंदर उतारना होता है , दिनों – महीनों – सालों तो उसे जीना होता है , अपने-आप को समायोजित करना पड़ता है, तब जाकर कहीं कोई कलाकर अभिव्यक्त करने की स्थिति में आ पता है।

अशोक भौमिक अब तक ढाई हज़ार से ज़्यादा पेंटिंग बना चुके हैं। चित्रकला की दुनिया में आज उनकी पेंटिंग की पहचान केवल प्रयोग के स्तर पर नहीं जानी जाती है। उनकी कोई भी तस्वीर महज़ नुमाइशी नहीं है । सारी पेंटिंग के बनाने के पीछे उनका तर्क है। बिना विचार और कथ्य का कोई नहीं है । बिना शीर्षक वाली पेंटिंग भी कोई देख ले तो उसे कहने में कोई हिचक नहीं होगी कि वो कहना क्या चाहती है? चाहे तो ‘ स्ट्रीट चिल्ड्रन ‘ देख ले या फिर ‘ अमीना एंड हर बर्ड्ज़ ‘ , ‘ कोल माइनर्ज़ ‘ , ‘ द लोस्ट सिटी ‘द किंग अर्चन ‘, ‘द जेस्टर ‘, बुल एंड द बर्ड ‘ या बिना शीर्षक वाली पेंटिंग , सब कुछ न कुछ कहती हैं , देखनेवालों के साथ संवाद करती हैं। दर्शकों को असमंजस की दशा में नहीं ले जाती हैं , न इन्हें तटस्थ भाव में लाकर छोड़ती हैं । कुछ न कुछ प्रतिक्रिया करने के लिए विवश करती हैं ।

ऐसा शायद इसलिए है कि अशोक भौमिक चित्रकला के साथ – साथ सामाजिक सरोकारों से लम्बे समय से जुड़े रहे हैं।

आज का ट्रेंड ये है कि जो जहां हैं , वहीं तक अपने आप को सीमित किए रहता है । कोई अगर कहानीकार है तो दूसरी विधाओं में क्या लिखा-रचा जा रहा है , उससे ताल्लुक नहीं रखता है। अपवाद को छोड़कर किसी की उत्सुकता दूसरी विधाओं की तरफ़ झांकने की नहीं होती हैं। परिणाम ये होता है की एक चित्रकार को पता नहीं होता है कि साहित्य में क्या लिखा जा रहा है और एक रंगकर्मी को इस बात की भनक नहीं रहती है कि मंडी हाउस से किसानों के समर्थन में अगर जुलूस निकल रहा है तो उसका मुद्दा क्या है? ऐसे में जो कोई रचता है, वह एकांगी होता है। उसमें समाज नहीं होता है । समय की कोई धड़कन उस रचना से सुनाई नहीं पड़ती है। अशोक भौमिक के साथ संयोग रहा कि जीवन, संघर्ष , राजनीति , संस्कृति में हो रहे बदलाव , परिवर्तन की धारा इतने आस – पास बहती रही कि अशोक भौमिक उनसे दूर नहीं रह पाए। कानपुर जैसे इंडस्ट्रीयल महानगर में सन 1953 में जन्में अशोक भौमिक की स्नातक तक की पढ़ाई – लिखाई मज़दूरों के धरना – हड़ताल – जुलूस – मोर्चा को देखते , नारों को सुनते हुए हुई है । विज्ञान के छात्र होने के बावजूद कला की तरफ़ कब रुझान हो गया , शायद इसके मूल में आस – पास का वो वातावरण हो जो सामाजिक – राजनीतिक – आर्थिक कारणों से बदलने की प्रक्रिया में हो ।

इन्होंने चित्रकला की कोई औपचारिक पढ़ाई कहीं से नहीं ली है , जो कुछ भी सीखा है अपने आस-पास के वातावरण, हलचलों से । आंदोलन के दिनों में जिस तरह कविता पोस्टर बनते थे , दीवारों पर वॉल राइटिंग होती थी, वो भी प्रेरणादायक होते थे। संघर्ष को पैम्प्लेट पर उतारने के लिए जिस तरह खुरदरे रेखांकन की ज़रूरत पड़ती थी, क्रॉस हैचिंग की कला की जड़ में कहीं न कहीं वो अवधारणा भी हो। टैगोर , सूजा जैसे कुछ ही चित्रकार हैं जिन्होंने पेंटिंग की इस धारा पर कार्य किया है। अशोक भौमिक ने इस शैली पर एक लम्बे समय से केंद्रित होकर कार्य कर रहे हैं। बल्कि क्रॉस हैचिंग तो अब इनकी विशिष्ट पहचान बन गयी है। क्रॉस हैचिंग की कोई भी तस्वीर को देख कर कह सकता है कि अमुक तस्वीर अशोक भौमिक की है। इस तरह की ख़ास शैली में बनाने के पीछे इनका कोई ट्रेड मार्क बनाना नहीं है। दरअसल इस शैली में बनाने की पीछे अभिप्राय सम्भवतः ये होगा कि आम आदमी की तीक्ष्ण अभिव्यक्ति इस अन्दाज़ में हो सकती है , उतनी अन्य शैली में नहीं।

कानपुर में पढ़ाई करने के बाद नौकरी के सिलसिले में जब आज़मगढ़ आए, वहाँ साहित्य से अंतरंगता से जुड़े । थर्ड थिएटर के वर्कशॉप के बहाने बादल सरकार के क़रीब आए। आपातकाल लगने के कारण स्टेट जिस तरह विरोध की आवाज़ को कुचलने में संवैधानिक अधिकारों का हनन कर रही थी , इसका इनकी चित्रकला पर प्रभाव पड़ रहा था । उनकी तस्वीरों को देख कर जब कवि राम कुमार वर्मा ने प्रतिक्रिया दी कि इन तस्वीरों में कोई भी मुक्तिबोध की कविता ‘ अंधेरे में’ पढ़ सकता है। अशोक भौमिक का मानना है कि उनकी प्रतिक्रिया ने चित्रकला के प्रति एक अलग नज़रिया दिया । चित्रकला का अन्य साहित्यिक विधाओं से कैसा सम्बंध हो सकता है, सोचने को विवश कर दिया । कलाओं के परस्पर सम्बंधों से रचना में दृष्टि का किस तरह विकास होता है, अशोक भौमिक गजानन माधव मुक्तिबोध कि कविताओं के सम्पर्क में आने पर अपनी चित्रकला में स्पष्ट एहसास करते हैं । बल्कि उनसे जुड़ने को अपनी चित्रकला का एक टर्निंग पॉइंट मानते हैं । जिस तरह मुक्तिबोध पुराने गढ़ को तोड़ने की बात करते हैं , अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने के लिए ज़ोर देते हैं , अशोक भौमिक परम्परागत चित्रकला से अलग जनता के क़रीब ले जाने की बात करते हैं। वे सत्ता के दमन को अपने चित्रों में उतारते हैं। आपातकाल के विरोध में किसानों – मज़दूरों के संघर्ष को अपने कैन्वस के केंद्र में लाकर मुखर रूप से उतारा। जहां चित्रकारों की एक बड़ी जमात सत्ता की छवि को सुधारने में लगी थी, अपनी प्रगतिशीलता बचाने के लिए अमूर्त्तता की शरण में चली गयी थी, अशोक भौमिक अपनी ब्लैक एंड वाइट पेंटिंग के माध्यम से पुलिस दमन, जन प्रतिरोध , राजनीति की नई धारा को बेबाक़ ढंग से चित्रित कर रहे थे। और अशोक भौमिक ने अपने को केवल पेंटिंग बनाने तक ही अपने को सीमित नहीं रखा , जनता के बीच प्रदर्शनी लगा कर उनसे सीधा संवाद बनाने का प्रयास किया। ज़रूरत पड़ने पर आंदोलनों के लिए कविता पोस्टर बनाए , बैनर को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया । सामान्य पाठकों तक जाने के लिए किताबों के आवरण को अपना कैन्वस के रूप में इस्तेमाल किया ।

सन 1980 से 1996 तक अशोक भौमिक के बनाए गए सारे पेंटिंग ब्लैक एंड वाइट में है । ‘फ़ुट्स्टेप्स 2’ में जो सीढ़ियां , आदमी की आकृति , उठे हुए जो हाथ हैं , स्पष्ट इशारा करते हैं उस दिशा की ओर जो मुक्ति की तरफ़ जाता हुआ दिखता है ।’ प्रोसेशन ऑफ़ मास्क्स ‘, ‘ इंटेरगेशन 1, 2 ‘, ‘ ब्लैक सन ‘ जैसे दर्जनों पैंटिंग्स उस दौर की राजनीतिक परिदृश्य पर सीधी टिप्पणी करती हुई दिखती है । कलावादी विचारधारा वालों को इन चित्रों से थोड़ी असहमति हो सकती है , लेकिन अशोक भौमिक अपनी चित्रकला में राजनीति से परहेज़ नहीं करते हैं। राजनीति को वे अपनी ज़िंदगी और कला-साहित्य का अभिन्न हिस्सा मान कर चलते हैं । इसलिए प्रारम्भिक दौर में ही नहीं, आज भी जो नई कृति रचते हैं , उसमें वो ग़ायब नहीं है। अपने लिए वाजिब स्पेस बरकरार बनाए रखता है।

चित्रकार के साथ – साथ अशोक भौमिक साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं ।साहित्य और रंगमंच पर दर्जन भर से अधिक किताबें प्रकाशित हैं जिनमें ‘ ज़ीरो लाइन पर गुलज़ार ‘ , ‘ मोनालिसा हंस रही है’ , ‘चित्रों की दुनिया’ , ‘ समकालीन भारतीय चित्रकला – हुसैन के बहाने’ और ‘ भारतीय चित्रकला का सच’ साहित्य और चित्रकला जगत में अपनी वैचारिकता और सहित्यकता को लेकर चर्चा में बनी रहती है।

पेंटिंग बनाने, प्रदर्शनी के माध्यम से लोगों को सचेत करने के अलावा आजकल अशोक भौमिक एक महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं । केवल चित्रकला से जुड़े लोगों के बीच में ही नहीं, जन सामान्य के बीच जा कर संवाद करते हुए पेंटिंग की धारा से लोगों का परिचय करा रहे हैं , उन्हें शिक्षित कर रहे हैं। चित्त प्रसाद, जैनुअल आबदिन, टैगोर जैसे जनता के चित्रकार के बारे में बताते हुए उनके चित्रों के बनाने के उद्देश्य से रूबरू करा रहे हैं । कह सकते हैं कि चित्रों का फिर से नया पाठ कर रहे हैं । वर्तमान में धूमिमल गैलरी में चल रही अशोक भौमिक की यह प्रदर्शनी भी इसी दिशा में एक क्रांतिकारी प्रयास है जिससे जुड़ कर किसी को भी एक सुखद अनुभव देगा ।

(न्यूज़ क्लिक से साभार)

 

पंकज श्रीवास्तव की टिप्पणी उनके फेसबुक वॉल से –

1984 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र जीवन की शुरुआत के कुछ दिन बाद ही अशोक दा से मोहब्बत और दोस्ती का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज भी पूरी शिद्दत से जारी है। दादा उन दिनों एक दवा कंपनी में काम करते थे, पर उनके पास जो भी अतिरिक्त समय रहता था, उस पर उनके परिवार से ज़्यादा हम लोगों का हक़ था। उन दिनों यूपी के तमाम विश्वविद्यालयों में प्रगतिशील छात्र संगठन यानी पीएसओ तेज़ी से उभर रहा था (जो बाद में आइसा) बना और अशोक दा के बनाये पोस्टर इसकी ख़ास पहचान थे। दादा को रात-रात भर जागकर पोस्टर बनाते देखा है। ऐसे प्रतिबद्ध चित्रकार हिंदी पट्टी में गिनती के ही हुए होंगे।
दादा का शुमार आज देश के चोटी के चित्रकारों में होता है। वे जिस ‘क्रास हैचिंग’ तकनीक से चित्र बनाते हैं, वह बहुत श्रमसाध्य है। इसमें कूची की जगह पेन और स्याही का इस्तेमाल होता है और बेहद बारीकी रेखाओं के जाल से कैनवस को विशिष्ट अर्थ दिया जाता है। पहले दादा ब्लैक एंड व्हाइट चित्र ही बनाते थे, लेकिन अब रंगों का भी प्रयोग कर रहे हैं। इससे हमारे बदरंग समय का विद्रूप पूरी सघनता के साथ उभरता है।
10 जून से दादा के चित्रों की प्रदर्शनी दिल्ली में कनॉट प्लेस के धूमीमल आर्ट गैलरी में चल रही है। यह प्रदर्शनी 20 जुलाई तक चलेगी। यहाँ 1980 के दशक के चित्रों से लेकर हालिया लॉकडाउन और विस्थापन के संकट पर समाज और शासक वर्ग पर तीखी टिप्पणी करते दादा के कमाल से चमकते चित्र देखे जा सकते हैं।
बहरहाल, एनसीआर में हों तो 20 के पहले धूमीमल आर्ट गैलरी घूम आइए, ऐसा मौक़ा बार-बार नहीं मिलता।

 

Posted Date:

July 18, 2022

3:35 pm Tags: , , , , ,
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