कोई तो करे फ़िक्र हम खानाख़राबियों की…
आलोक यात्री की कलम से….

देख तमाशा दुनिया का…

दो हफ्ते हो गै, दस दिनां से निगाहं अटकी है रस्ते पे…, मुआ कोई तो सूरत दिखाए

टंगे खिड़की पे चिड़ियाघर में बंदर की माफिक

यूई जरिया बचा अब तो…

खुदी बांच लो… जो बांच लो सो बांट लो…

पोथे बांचते आंख भी ढेल्ला हो गीं

क़ासिद पौहंचा ना अबी तक…

कहं थे ख़त का ज़वाब ले के भेज्जा

कोरोना…

कोरोना…..

कोरोना…….

से आगे बात ही नी बढ़ री…

यह क्या रीत हुई, आसन्न-पाट्टी सी लिए पड़े रहो… जैसे और पडे़…

फेसबुक, वाट्सएप, मैसेंजर, इनबॉक्स, इंस्टाग्राम, अखबार से लेकर खबरिया चैनल्स तक… एक ही नसीहत देन लाग रे…

बोले तो… सब कुछ कोरोनालाइज्ड हो रा…

वरना इतनी बेकद्री तो किसी पैरेलाइज्ड इंसान की भी ना होवै थी हमारे रसूख में…

इहां तो दोस्तों को मैसेज पे मैसेज की कुतुब मीनार खड़ी कर दी

मजाल किसी खुदा के बंदे के कान पे जूं भी रेंगी हो…

भित्तर झांक के को नी देख रा…

लगे पड़े सब… मेरी तरह

बाहर की तांक-झांक में…

दो एक को उलाहना भी दिया

अमां… म्हारी पाती भी बांच लेते…

तुमसे अच्छे तो जंगली जिनावर ठैरे

जा इंसानों के दरवाजे खटखटा आए…

मेरी मुंडेर का बी बुरा हाल हो रा

दिन निकलते ई पंछियों की पंचात लग जा

“कबूतर आ… आ… आ…

कबूतर आ… ” की तर्ज़ पर हम भी बैठे उनके क़ासिद का इंतजार करैं…

लेकिन मुंडेर पर जमा पुराने क़ासिदों की चटर चूं ई ना खत्म होवै

ऊपर से यह नेटवर्क… “परदेश बसे सजनवा…” सा

कभी आए… कभी जाए… 

” ना कोई इस पार हमारा… ना कोई उस पार…

सजनवा बैरी हो गए हमार…”

आज पंद्रहवां दिन है

“ख़त का जवाब मुख़्तसर और वो भी ज़ुबानी

कम्बख़्त क़ासिद वो भी भूल गया आते-आते”…

आदमी चांद पे जा पौंच्चा, हम यां क़ासिद के इंतजार में दुबले हुए जा रए, लो कल लो बात… क़ासिद संदेसा ही भूल गा…

खैर… जो हुआ सो हुआ…

उम्मीद बरकरार है, जवाब तो लागा क़ासिद, भले ही ज़ुबानी…

“क़ासिद के आते-आते ख़त एक और लिख रखूं

मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में”

लेकिन लिखूंगा क्या…कहने को क्या है…                      

इतने भौंक रे रात दिन… टीवी पै

सुन-सुन दुनिया पक गी

म्हारे क़ासिद की बी सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी

भूलगा… कमबख्त

“कब से हूं क्या बताऊं जहान-ए-ख़राब में

शब हाय हिज्र को भी रखूं गर हिसाब में”

लो… कल लो बात… वो तो ऐसे ना थे… किस कदर ‌ख़्याल रखते थे

जिनकी महफिलों की रौनक हुआ करैं थे हम

और अब ये आलम…

“मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम

साक़ी ने कुछ मिला ना दिया हो शराब में”

हाल पूछूं तो क्यूं कर पूछूं…हर कोई मेरी तरह ही खानाखराब है

“ता फिर ना इंतज़ार में नींद आये उम्र भर

आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में”

मलाल बस… इसी बात का…

” ‘ग़ालिब’ छूटी शराब पर अब भी कभी कभी

पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में”

दो हफ्ते से धूल जम-जम के क्या हाल हो गा खाल्ली बोतल का…

कोई तो फिक्र करे हम खानाखराबियों की…

“ख़त का जवाब मुख़्तसर वो भी ज़ुबानी

कमबख़्त क़ासिद वो भी भूल गया आते-आते”

(चच्चा मिर्ज़ा ग़ालिब से क्षमायाचना सहित)

Posted Date:

April 9, 2020

10:55 am Tags: , , , ,
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