मच्छर आपको हर जगह मिल जाएंगे। इनके लिए कहीं कोई रोक-टोक नहीं। जहां अनुकूल माहौल मिला डाल दिया डेरा डंगर और फैला लिया अपना साम्राज्य। कोई भी मौसम या कोई भी जगह इनके लिए पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं है। फिर भी जहां इनके रहने, खाने और पीने की सुविधाएं मिलती हैं, वहां चप्पे-चप्पे पर इन्हीं का कब्जा रहता है। अपने यहां मच्छरों के लिए सारी सुविधाएं मौजूद हैं। प्रशासन इनका विशेष ध्यान रखता है। मलेरिया और डेंगू फैलने पर जब मरीजों से अस्पतालों में बरामदे तक भर जाते हैं तब स्वास्थ्य विभाग अंगड़ाई लेता है। लेकिन मच्छरों पर तब भी खास असर नहीं होता है।….अनिल त्रिवेदी का व्यंग्य
अभी जब मलेरिया और डेंगू के मरीजों की तादाद में तेजी से इजाफा हुआ तो मैंने सोचा एक मच्छर से बातचीत की जाए। यह जनरुचि का मामला है, खूब पढ़ा जाएगा। इससे पहले कि कोई टीवी चैनल मच्छर का इंटरव्यू कर ले, मैंने डेंगू के एक मच्छर को तलाशा और उससे लंबी बातचीत की। पेश हैं बातचीत के खास अंश-
-मच्छर जी, आपके लिए सबसे अच्छा माहौल कहां है?
. दरअसल हमारे लिए गांव हो या शहर, हर जगह सारी सुविधाएं हैं। कूड़े के ढेर से लेकर बजबजाती नालियां तक। हमें आखिर और क्या चाहिए। प्रशासन से हमें फलने-फूलने में पूरा सहयोग मिलता है। इसलिए हम आपको हर जगह मिल जाएंगे। हमारे परिवार तो अस्पतालों के मलेरिया और डेंगू वार्डों तक में रहते हैं।
-अच्छा, यह बताइए कि आप लोगों को काटते क्यों हैं?
.कैसा बेतुका सवाल है। आखिर हम काटें नहीं तो क्या प्रसाद बांटते फिरें। लोगों को न काटें तो क्या पेड़-पौधों को काटें। हम लोगों को कितना नुकसान पहुंचाते हैं? कुछ भी तो नहीं। मौका मिला तो दो-चार बूंद खून मिलता है नहीं तो वह भी नहीं। लोगों को हमसे ज्यादा नुकसान दूसरे प्राणी करते हैं। आदमी का सबसे अधिक नुकसान तो आदमी ही करता है। रोज कहीं न कहीं खून ही तो बहाया जा रहा है। तब कोई क्यों खून का महत्व नहीं समझता? और आदमी…कितना भूखा है आदमी? क्या नहीं खाता। जमीन, सड़क, पुल, इमारतें, फाइलें और न जाने क्या-क्या। हम तो सिर्फ चंद बूंद खून चूसते हैं। इस पर इतनी हाय तौबा क्यों?
-घरों में कौन सी जगह आपको सबसे ज्यादा पसंद हैं?
.वैसे इस सवाल का जवाब हमें देना नहीं चाहिए। फिर भी पूछा है तो बताए देता हूं। अपने तक ही सीमित रखिएगा, छापने के लिए नहीं। घर में हम हर जगह रहते हैं। पहले तो केवल अंधेरे में रहते थे और रात में ही सक्रिय होते थे पर अब उजाले में और दिन में भी हमें कोई रोक नहीं सकता। लेकिन हमारी पसंद की जगह टॉयलेट है। वहां घर के हर सदस्य से रोज कम से कम एक बार मुलाकात जरूर होती है। दरअसल बेडरूम या डायनिंग रूम में तो लोग जागते समय गुडनाइट लगाते हैं या सोते समय मच्छरदानी लगाते हैं इसलिए मौका कम मिलता है। लेकिन टॉयलेट में भरपूर मौके हैं। वहां बड़े से बड़ा व्यक्ति भी निसहाय होता है। हमें वहां पूरे दिन की खुराक मिल जाती है। अब वहां कोई मच्छरदानी तो लगा नहीं सकता, सो हमारी पसंदीदा जगह वही है।
-आप अपना शिकार किन-किन लोगों को बनाते हैं?
.देखिए वैसे तो हमें सिर्फ खून चाहिए, किसी का भी मिल जाए। फिर भी नेताओं और अफसरों का हम खून नहीं पीते। इसकी वजह है, एक तो ये दोनों ही हमारी तरह ही दूसरों का खून चूसते हैं इसलिए इनका खून शुद्ध नहीं रह जाता है। दूसरे इनकी चमड़ी इतनी मोटी होती है कि हमारे लिए इसे छेद पानी असंभव है। नेता और अफसर हमसे निश्चिंत रहते हैं। आपने कभी सुना नहीं होगा कि किसी नेता या अफसर को या फिर उसके परिवार में भी कभी किसी को मलेरिया या डेंगू हुआ हो। इसके अलावा हमारे लिए सब बराबर हैं। न कोई बड़ा न कोई छोटा, न सवर्ण और न दलित, न हिंदू न मुस्लिम। सब हमें पसंद हैं। सबके खून का रंग और स्वाद एक सा ही है।
-मच्छरदानी या नए-नए मच्छररोधी तरीकों पर आपकी राय?
.देखिए हम इन तरीकों के घोर विरोधी हैं। मच्छरदानी हमारे लिए तकलीफदेह है लेकिन जब मच्छरदानी नहीं होती है तब हम कसर पूरी कर लेते हैं। मच्छर भगाने वाले तरीके अब हमारे लिए बेकार हो गए हैं। समझ में नहीं आता, लोगों को हमसे इतना भयभीत होने की जरूरत ही क्यों? आखिर हमारा भी तो पेट है, हम कहां जाएं?
-आपके काम करने की तरकीब में इसबीच क्या कुछ बदलाव आया है?
.हां, आप सही कह रहे हैं। हमने अपनी रणनीति बदल दी है। पहले हम काटने से पहले आसपास मंडराते थे। कान के पास जाकर गाना गाते थे, तब काटते थे। अब तो सीधे-सीधे धावा बोलकर डंक घुसा देते हैं। जब तक व्यक्ति कुछ समझ पाता है तब तक एक खुराक पूरी हो जाती है। यह रणनीति मजबूरी में अपनानी पड़ी।
-आपकी आबादी इतनी तेजी से क्यों बढ़ रही है?
.(हंसते हुए) यह भी कोई बताने की चीज है। मच्छरों के खिलफा जहां इतने लोग पीछे पड़े हों वहां हम परिवार नियोजन करेंगे तो हमारा अस्तित्व ही मिट जाएगा। हमारे हजारों साथी रोज मार दिया जाते हैं। हम भी करोड़ों पैदा होते हैं। और फिर हमारी जान ही कितनी है, पट से किया मर गए। ऐसे में सीमित आबादी रखेंगे तो कैसे काम चलेगा।
-पाठकों को कोई संदेश देना चाहेंगे आप?
.भाई, हमारी खेतबाड़ी तो है नहीं। आपके खून की दो-चार बूंदों से ही मेरा पेट भरता है। जिस समाज में सभी एकदूसरे का खून चूसने में लगे हों, वहां अगर हम अपनी मेहनत से थोड़ा बहुत खून पी लेते हैं तो क्या गलत करते हैं। इतना रक्त आप दान नहीं कर सकते।
इसबीच मेरी गर्दन पर एक मच्छर ने अपनी हरकत शुरू कर दी। मैं उसे भगाने लगा तब तक बातचीत कर रहा मच्छर रफूचक्कर हो गया। इंटरव्यू यहीं खत्म हो गया।
अनिल त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार
Posted Date:
October 18, 2024
5:34 pm
Tags:
अनिल त्रिवेदी,
डेंगू,
डेंगू मच्छर,
मलेरिया मच्छर,
डेंगू मच्छर से बातचीत,
डेंगू मलेरिया मच्छरों पर व्यंग्य