धाराओं में विचारों के गोते
दलबदल और वैचारिक भटकाव के इस ज़माने में आप किसी पर भरोसा नहीं कर सकते… वैसे भी सत्ता और फायदेमंद राजनीति का स्वाद जिसे लगा, उसके लिए विचारधारा का कोई मतलब नहीं रह जाता… घर घर में यही हालत हो गई है… न कोई नैतिकता, न कोई ईमान, लेकिन यह खेल दिलचस्प है अगर  आप इसे कुछ इस नज़रिये से देखें तब… वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार अनिल त्रिवेदी का ताज़ा व्यंग्य..
(यह कार्टून पंजाब केसरी से साभार)
चूंचूं अंकल आज गुस्से में हैं। मैंने इससे पहले उन्हें इतना क्रोधित कभी नहीं देखा। कह सकते हैं कि आज गुस्सा उनकी नाक पर बैठा था। मैंने सहमते हुए उनसे क्रोध की वजह पूछी तो तमतमा गए। बोले-मत पूछो, पता नहीं आज की पीढ़ी को क्या हो गया है। आज इसकी तारीफ तो कल उसको गाली, फिर इसको गाली तो उसकी प्रशंसा। कभी दोनों को गालियां और तीसरे की वाह-वाह। फिर मन उचटा तो तीसरे की ऐसी-तैसी, चौथे की जय-जय।
अंकल की बात मेरे पल्ले नहीं पड़ी। मैंने उनसे पहेलियां बुझाने के बजाय गुस्से की वजह स्पष्ट बताने को कहा। वे बोले- मैं अपने बेटे के विचारों से परेशान हूं। पहले बायें पड़ोसी से गलबहियां थीं और दायें पड़ोसी के लिए गालियां, अब अचानक स्थिति उलट गई है। अब दायें पड़ोसी की शान में कसीदे पढ़ता है और बायें वाले को हर समय गरियाता रहता है। इसके पहले पीछे की गली के पड़ोसी से उसकी खूब छनती थी फिर उसे छोड़कर सामने वाले से उसके विचार मिल गए। हद हो गई, एक बार सोच समझकर पक्का कर लो किससे याराना रखना है, किससे कामचलाऊ रिश्ता और किससे सौ कदम दूर रहना है। बेटा मेरी बात समझने को तैयार ही नहीं। अब तुम्हीं बताओ मेरा गुस्सा वाजिब है या नहीं?
अब मैं समझ गया कि आखिर अंकल गुस्से से क्यों टेढ़े हुए जा रहे हैं। मैंने उन्हें समझाया कि आपके बेटे का रवैया तो एकदम सही है। वह समयानुकूल सोचता है। जिस पड़ोसी से जब तक विचार मिलते हैं तब तक उसकी वाहवाही करता है, विचार थोड़े भी हिलेडुले तो उसे छोड़ दूसरे के साथ तान छेड़ने लगता है। दिल मिलें न मिलें, हाथ मिलाते रहिए, यह फैशन बहुत पुराना हो गया है। अब ऐसा नहीं होता। अब तो जब तक कायदे और फायदे  से दोस्ती निभे तब तक वाह-वाह और जब बात बिगड़े तो धत् तेरे की। तू नहीं कोई और सही।
मैंने चूंचूं अंकल को समझाने की कोशिश की- आप तो देख ही रहे हैं। आजकल हर क्षेत्र में यही ट्रेंड चल रहा है। राजनीति में ही देखिए, कब कौन किसके साथ चल पड़े क्या पता। अंकल ने मुझे बीच में ही टोका- अरे, ऐसा कैसे हो सकता है? राजनीति में भी तो कुछ सिद्धांत और विचारधाराएं हैं। एक विचारधारा के लोग दूसरी विचारधारा वाले को कैसे पसंद आएंगे? दिनरात एक का गुणगान करने वाले अचानक दूसरे के साथ किस मुंह से कव्वाली गाएंगे? वैचारिक ईमानदारी भी कोई चीज है कि नहीं?
मैं जान गया कि अंकल अभी समझने को तैयार नहीं है। उनके इस तर्क पर मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा- आप बहुत पुराने जमाने की बात कर रहे हैं। समय के साथ सब बदल गया है। पहले सिद्धांत और विचारधाराएं थीं। अब सिद्धांत का तो अंत ही सिद्ध हो गया है। विचारधाराएं भी केवल धाराएं रह गई हैं। विचार गिने-चुने बचे हैं जो कभी-कभार धाराओं में गोते लगाते दिख जाते हैं। देश में चारों ओर धाराएं ही धाराएं बह रही हैं। सिद्धांत और विचार इन धाराओं में विलीन हो गए हैं। विचारों की बात कोई नहीं करता। सभी धाराओं की बात करते हैं। हर कोई इस घात में है कि किस धारा के विचारों में स्नान करे जो उसे शिखर पर ले जाए। उसे न तो विचार से मतलब है न धारा से, उसे तो केवल दूर शिखर दिख रहा है। बस, उसे वहां पहुंचना है।
मेरी बातों में चूंचूं अंकल की दिलचस्पी बढ़ी तो मैंने अपनी बात जारी रखी- विचारधाराएं इनदिनों पिघल गई हैं। वे पात्र के मुताबिक ढल जाती हैं। जैसा पात्र मिला उसी में एडजस्ट हो गईं। इसीलिए अकसर विकास की बात करने वाले अचानक धर्म की बात करने लगते हैं। धर्म की डोर पकड़कर चलने वाले जाति पर आ जाते हैं। पिछड़ी जातियों की विचारधारा वाले सवर्णों और दलितों के हितैषी होने का दावा ठोकने लगते हैं। परिवार की राजनीति वाले सबको साथ लेकर चलने का दम भरते हैं। दलितों की भलाई के वादे से चमकने वाले बीच-बीच में ब्राह्मण और क्षत्रिय सम्मेलन आयोजित कर लेते हैं।
(यह कार्टून दैनिक भास्कर से साभार)
विचारधाराएं निरंतर परिवर्तनशील हैं। अब देखिए न, मंडल को कमंडल अच्छा लगता है। पहले जिन्हें नीच मानते थे वे तो काफी ऊंचे निकले। बायें वाला दायें के संग अकड़कर चल रहा है। कई हाथों ने कमल थाम लिया है। तीर को तीसरी बार कमल भा रहा है। हाथी वाले कभी साइकिल पर आ जाते हैं कभी साइकिल वाले हाथी पर बैठ जाते हैं। बंगाल में हंसिया वाले अपनी विचारधारा भूलकर घास के फूलों की रक्षा में लगे हैं। हर विचारधारा अब समावेशी हो गई है। जिस धारा में मलाई दिखती है उसमें तैरते विचार ही अच्छे होते हैं। इसीलिए चतुर लोग धाराओं पर बराबर नजर गड़ाए रखते हैं। कहते हैं कि गधा अपनी विचारधारा नहीं बदलता इसीलिए वह गधा होता है। लेकिन कुत्ता ऐसा नहीं करता। रोटी का टुकड़ा ही उसकी विचारधारा है। इसीलिए जानवरों में वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
मेरे इतने प्रवचन के बाद भी चूंचूं अंकल पूछ ही बैठे- लेकिन हर किसी के अपने विचार तो हो सकते हैं जिन्हें वह जब चाहे व्यक्त कर सकता है। मैं उनका आशय समझ गया। मुझे साफ-साफ कहना पड़ा- किसी के विचार तभी तक हैं जब तक वह किसी धारा में नहीं है। धारा में आने के बाद उसके विचारों पर क्या सोचने तक पर उसका हक नहीं रह जाता। आपने सुना नहीं कि एक सांसद ने धारा से बिना पूछे अपने विचार रख दिए तो छीछालेदर हो गई। धारा ने उसे डांट भी लगाई कि आइंदा बोलने से पहले शब्दों की जांच करा लेना।
चूंचूं अंकल पर मेरे समझाने का असर हुआ। बोले- इसका मतलब है अब विचार और विचारधारा के चक्कर में पड़ना ठीक नहीं है। बेटा जो कर रहा है उचित ही है। अभी मोहल्ले में जो कर रहा है, वह कभी प्रदेश स्तर पर भी कर सकता है। उम्मीद है कि वह भी एक दिन किसी धारा में नहा ले और उसके प्रवाह में आगे बढ़ चले। अंकल ने गुस्सा थूक दिया और खुश होकर चल दिए।
अनिल त्रिवेदी
वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार
Posted Date:

August 30, 2024

12:09 am

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