♦ रवीन्द्र त्रिपाठी
अक्सर ये देखा गया है कि जो सत्ताएं मंगलकारी राज्य के नारे और घोषणाओं के साथ आती है वो एक ऐसे दु:स्वप्न या आतंककारी सत्ता में बदल जाती हैं जिसमें नागरिक सामान्य अधिकारों का हनन होता है। ये एक विश्वव्यापी परिघटना है और दुनिया भर के साहित्य और कलाओं में इसे लक्षित और इंगित किया गया है। योरोपीय समाज में इसे मोटे तौर फासिज्म नाम से जाना जाता है। भारतीय समाज में भी इस परिघटना की अनुगूंजे सुनाई देती हैं। खासकर आज की राजनीति में। मूलत: त्रिपुरा वासी पर इन दिनो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली मे रह रहे कलाकार राजेश देव की कलाकृतियों की आर्ट हेरिटेज कला दीर्घा में चल रही प्रदर्शनी कुछ ऐसे दु:स्वप्नों से जुड़ी हैं। राजेश पर दो रचनाओं का भी प्रभाव रहा है। विशेषकर इस प्रदर्शनी में शामिल कलाकृतियों ये सिलसिले में। एक तो जेम्स मैथ्यू बैरी की रचना `पीटर पैन, ऑर द ब्वाय हू वूड नॉट ग्रो अप’ और दूसरे भारतीय (कश्मीरी) मूल के अंग्रेजी- अमेरिकी कवि आगा शाहिद अली की काव्य पुस्तक `द कंट्री विदाऊट ए पोस्ट ऑफिस’ का। इस प्रदर्शनी का नाम है `नेवरलैड पोस्टऑफिस’। हिंदी में सरलीकृत अनुवाद होगा `गायब हो चुका डाकघर’। अंग्रेजी में जिस डिस्टोपियन दुनिया कहा जाता है इस प्रदर्शनी में शामिल कलाकृतियां उसी का बोध कराती हैं।
राजेश देब ने वुडकट,एक्रेलिक, कैनवस, गोल्ड- सिल्वर -कॉपर लीफ, खादी सिल्क आदि के माध्यम से मौजूदा समय के उस पहलू को अभिव्यक्त किया है जब नागरिक जीवन पर कई तरह के आघात हो रहे हैं और देश को भी सर्वसत्तावादी तरीके से निर्मित करने का अभियान चल रहा है। सत्ताएं खुद को भी विकृत कर रही हैं और नागरिकों को भी। सिर्फ भौतिक स्तर पर ही नहीं बल्कि वैचारिक धरातल पर भी। इन कलाकृतियों मे मानवाकृतियां जिस परिवेश में चित्रित या उभारी गई हैं उनमें एक खास तरह का विरुपण है। इस विरुपण का तात्पर्य़ क्या है? बहुत अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है। अगर आप राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घट रहे राजनैतिक वाकयों से परिचित हैं तो सहज की समझ सकते हैं कि सामने कैनवस पर क्या दीख रहा है। जब आगा शाहिद अली ने उस देश की तरफ संकेत किया जिसमें कोई कोई पोस्ट ऑफिस या डाकघर नहीं है तो इसका मोटे तौर पर आशय ये है कि जब कोई जगह, देश या समाज, ऐसा हो जाता है जहां एक की बात दूसरे तक नहीं पहुंच पाती क्योंकि डाकघर काम नहीं कर रहे हैं। कविता प्रतीकात्मक है और कई स्तरों पर अर्थगर्भी है। राजेश देव ने इस कविता में डाकघर के रूपक का विस्तार कर दिया है। और ये तो जगजाहिर है कि पीटर पैन वो किशोर बालक है जो कभी बड़ा नहीं होता। इसके भी कई तरह के राजनैतिक मतलब हैं और जब आप इस प्रदर्शिनी को देंखेंगे तो इन राजनैतिक आशयों से साक्षात्कार करेंगे।
प्रदर्शनी में राजेश की एक पुस्तक भी है। सिर्फ पढऩेवाली नहीं बल्कि देखनेवाली। ये कला- पुस्तक कई कोलाजों एक समुच्चय है और इसके पर पृष्ठ पर अलग अलग कलाकृतियां हैं। हर कलाकृति पर कुछ शब्द या वाक्य भी हैं। समकालीन दौर के विरूपण को दिखानेवाली। इस कला पुस्तक का ठीक से आस्वाद करने के लिए लंबा वक्त चाहिए और बाकी प्रदर्शनी को ठीक से देखने के लिए भी। और जब आप इस प्रदर्शनी का पूरा अवलोकन कर लेते हैं तो आप महसूस करते हैं कि आपने अपने समय औऱ समाज – दोनों के भीतर निहित विकरालता को देखा है। दरअसल वो विकरालता तो हमारे समाज में है, राजेश देव ने उसकी प्रतीति भर कराई है। यानी उन्होंने उसे सिरजा नहीं है बल्कि जो है उसे देखने का एक नजरिया हमें दिया है। ये कलाकृतियां एकदम ठोस अर्थ में राजनैतिक हैं।
Posted Date:
April 4, 2022
5:30 pm