लखनऊ केवल पुस्तक मेलों का शहर नहीं हैं। यहाँ अनेक स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता है। रचनाकारों की गोष्ठियां और बैठकें भी होती रहतीं है जहाँ नए और पुराने साहित्यकर्मियों को साझा मंच भी उपलब्ध होता है।
13 जनवरी को ऐसी ही एक गोष्ठी लखनऊ से प्रकाशित छमाही पत्रिका “ शब्दिता “ पर केन्द्रित थी। इसमें पत्रिका के जुलाई-दिसम्बर 2018 के अंक की विविधतापूर्ण रचनाओं पर विस्तार से चर्चा हुई। इस अंक में जो रचनाएँ प्रकाशित हुईं उसमें लखनऊ के सात रचनाकार शामिल हैं। इनमें से छः रचनाकारों और पत्रिका के प्रधान संपादक डा0 राम कठिन सिंह ने गोष्ठी में भाग लिया।
बेहद अनौपचारिक और आत्मीय माहौल में संपन्न हुई यह गोष्ठी किसी पत्रिका के एक निश्चित अंक की विभिन्न रचनाओं के रचनाकर्म के पीछे की मनःस्थिति को रचनाकारों द्वारा ही उद्घाटित करने का माध्यम बनी।
अब तक ‘शब्दिता’ के चौदह अंक आ चुके हैं। गोष्ठी की शुरुआत में डा0 सिंह ने शब्दिता पत्रिका के बारे में बताया। साथ ही इस अंक में छपी विपिन तिवारी के मुलाकाती लेख ‘अलकनंदा की उदासी‘ में डा0 नामवर सिंह के व्यक्तित्व पर लेखक की शिल्पगत उपलब्धि का बड़ी ही सूक्ष्मता और गहराई से विश्लेषण किया। उन्होंने सुन्दर ढंग से बताया कि नामवर जी के आवास, अलकनंदा अपार्टमेंट्स की सीढि़याँ साधारण नहीं है। इनसे होकर कितने ही कदमों ने नामवर जी तक, उनके विचारों तक, उनके परामर्शों और स्वीकृतियों तक अपनी राह बनायी है। नामवर जी ने साहित्य की सीढि़याँ बहुत संभल कर चढ़ी हैं। इसके बाद इसी अंक में छपी डा0 राम कठिन सिंह की एक सुन्दर बाल कविता “छुट्टियाँ बीतीं हैं“ का पाठ देवनाथ द्विवेदी ने किया। यह कविता बहुत सराही गयी। पत्रिका में तीन संस्मरणात्मक लेख हैं जिनमें ‘लू शुन के देश में’ तथा ‘जिंदगीनामा उर्फ गाँव की पड़ताल’ के रचनाकारों, क्रमशः वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति और कवि व गजलकार देवनाथ द्विवेदी, ने नयी और रोचक जानकारियाँ दीं। शिवमूर्ति ने चीटिंग और नकली नोटों की बाबत अपनी टुअर गाइड सिंडी की हिदायतों को जिस तरह से साझा किया वो तो अनूठा ही था। कवि भगवान स्वरुप कटियार ने बड़े ही आधिकारिक ढंग से इन दोनों संस्मरणों के सभी पहलुओं की सूक्ष्मतम विवेचना करते हुए इन रचनाओं की मौलिकता और रोचकता का भी विशेष जिक्र किया।
वरिष्ठ पत्रकार व लगभग दो दर्जन कहानी व उपन्यास के रचयिता दयानन्द पाण्डेय की कहानी ‘सपनों का सिनेमा‘ के कुछ अंशों का वाचन किया गया और कहानी के पात्रों के गूढ़ मनोसंसार की पड़ताल भी की गयी। कवि और एक्टिविस्ट कौशल किशोर ने चर्चित अंक में छपी अपनी कविता ‘नदी बहती थी‘ की पृष्ठभूमि में उस बाढ़ त्रासदी को एक बार पुनः जिया जिसने गंगा और घाघरा के बीच बसे उनके गांव सुरेमनपुर और बारह अन्य गाँवों को समूचा लील लिया था। इस कविता का भावपूर्ण पाठ करते हुए कौशल किशोर ने सभी को एक बार फिर से उस बाढ़ के कोप की तस्वीर के सामने खड़ा कर दिया।
‘शब्दिता’ के इस अंक में एक श्रेष्ठ व्यंग रचना है ‘जन्नत में तशद्दुद’। इसके लेखक महेश चन्द्र द्विवेदी ने रचना के कुछ चुनिन्दा अंशों का रोचक पुनर्पाठ किया। उनकी इस रचना में उर्दू जबान में समाहित तमाम अरबी फारसी के शब्दों की उपस्थिति ने व्यंग रचना के विषयवस्तु को परिपक्वता दी है। पत्रकार व ‘इनसाइड इंडिया के संपादक अरुण सिंह ने किसी पत्रिका के प्रकाशन के पीछे के सारे जद्दोजेहद और स्पीड ब्रेकर्स को सामने लाते हुए डा0 राम कठिन सिंह और उनकी मानस संतान ‘शब्दिता‘ की प्रशंसा की और कई उपयोगी सुझाव भी दिए। प्रखर कवि, पत्रकार व संपादक सुभाष राय और कवि व एक्टिविस्ट भगवान स्वरूप कटियार ने पत्रिका के लिए अनेक उपयोगी सुझाव दिए। दोनों का कहना था कि किसी भी साहित्यिक पत्रिका को तयशुदा खेमेबाजी से बाहर निकल कर जनमानस की नब्ज के रफ्तार को महसूस करते रहना जरूरी होता है और ‘शब्दिता’ ने इस अपेक्षा को काफी कुछ पूरा किया है।
गोष्ठी में कवयित्री विमल किशोर ने ‘कूड़ा बीनते बच्चे‘ कविता में समाज के वंचित वर्ग के दारुण सच का खाका खींचा तो स्त्री विडम्बना को रेखांकित करती अपनी कविता ‘घड़ी की सुइयों पर टिकी जिन्दगी’ का पाठ किया। सुभाष राय ने अपनी छोटी किन्तु महत्वपूर्ण कविता में भूत और भविष्य के बीच बारीक, लगभग नगण्य लकीर से वर्तमान के महत्व को रेखांकित किया। रचना-कर्म में चुपचाप किन्तु गंभीरता से लगे कवि अशोक श्रीवास्तव की दो कविताओं ने आज के समाज और राजनीति के दिखाई देते सच के पीछे के सच को उजागर किया, वहीं देवनाथ द्विवेदी की गजलों ने कलमकार की कलम से उपजते पैगाम को जरूरी ठहराया। व्यंगकार महेश चन्द्र द्विवेदी ने भी अपनी व्यंग्य कविता से गोष्ठी में उन्मुक्त ठहाकों के लिए भरपूर जगह बनायी। गोष्ठी के अन्त में शोभा द्विवेदी ने भी ‘अच्युतम केशवम‘ का सुमधुर गायन प्रस्तुत किया।
Posted Date:January 16, 2019
3:50 pm