भारत बसता तो गांवों में है, पर साहित्य, कला और उसकी संस्कृति शहरों में ही क्यों दिखती है। भले ही वह गांवों में प्रफुल्लित होती है। गांवों में भी संस्कृति, साहित्य व कला की खेती होती है। उसकी फसलें भी लहलहाती हैं, लेकिन पक कर यहीं पीढी दर पीढ़ी उगती व मरती रहती है। गांवों के लिए यह सब स्वाभाविक है। बस दिखती नहीं है या लोग देखते नहीं है। लोक कलाओं, परंपराओं, खानपान, वेशभूषा और न जाने क्या
Read Moreलगभग अस्सी साल पहले प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल होता है. हमारे समय में अगर किसी एक साहित्यकार पर यह कथन लागू होता है तो वे महाश्वेता देवी थीं. उनके जीवन और लेखन के बीच कोई फांक नहीं थी और अपने काम से उन्होंने यह बताया कि तीसरी दुनिया और खासकर भारत जैसे विकासशील देश में एक सच्चे लेखक की भूमिका कैसी होनी चाहिए और उसे किस तरह उस समाज से जुड़ना चाहिए जिसक
Read Moreकला, संस्कृति और रंगमंच के विकास और बढ़ावे के नाम पर न जाने कितने रूपए स्वाहा होते हैं | किन्तु विकास के सारे दावे ध्वस्त हो जाते हैं जब यह पता चलता है कि देश के अधिकांश शहरों में सुचारू रूप से नाटकों के मंचन के योग्य सभागार तक नहीं हैं | महानगरों में जो हैं भी वे या तो बहुत मंहगे हैं या फिर जैसी-तैसी हालत में हैं। इसलिए इन पैसों से चंद गिने-चुने जुगाडू रंगकर्मियों और संगीत नाटक अकादमियों
Read More‘मृगया’, ‘भुवन शोम’, ‘खंडहर’, ‘अंतऋण’, ‘पदातिक’ समेत हिंदी और बांग्ला फिल्म जगत को 18 कालजयी फिल्में देने वाले मृणाल दा सौमित्र चटर्जी और नसीरुद्दीन शाह को लेकर एक साइंस फिक्शन फिल्म की योजना बना रहे हैं। इस फिल्म में ढेर सारी कॉमेडी होगी। जाहिर है, मृणाल सेन अपनी इस फिल्म में लीक से हटकर दिखेंगे।
Read Moreअगर आप रामायण को महज एक आध्यात्मिक ग्रंथ और हिन्दू धार्मिक मान्यताओं से जोड़कर न देखें तो ये एक ऐसा महाग्रंथ है जिसमें जीवन और समाज के हर पहलू का बेहद तार्किक और सटीक चित्रण है। इसके हर दृश्य, हर अध्याय और हर कांड का अपना महत्व है। हज़ारों साल बीत गए लेकिन रामायण आखिर आज भी क्यों प्रासंगिक है, क्यों राम से जुड़ी लीलाएं हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की एक नायाब मिसाल हैं, इसे समझना ज
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