रवींद्र त्रिपाठी
कला में सार्वजनीयता होती है लेकिन साथ ही स्थानीयता भी होती है। पर स्थानीयता के भी कई रूप होते हैं। कुछ कलाकार स्थानीयता को लेकर ज्यादा सजग होते हैं। जैसे कि युवा और उदीयमान पेंटर रजनीश सिंह। रजनीश गोरखपुर के रहनेवाले हैं और इन दिनों दिल्ली में रह रहे हैं। वे वैसे तो अमूर्त कलाकार हैं लेकिन उनके अमूर्तन में भोजपुरी का स्पर्श है और इसे सजग होकर ही महसूस किया जा सकता है। उनकी सभी तो नहीं लेकिन कुछ कलाकृतियों में भोजपुरी शब्द या पंक्तियां उकेरी गई होती हैं। पर भोजपुरी संस्कृति सिर्फ इसी रूप में उनके यहां उपस्थिति नहीं है। वो और भी तरह से महसूस होती है।
वैसे तो अमूर्त कलाकार किसी रूप या दृश्य का सीधे सीधे अंकन नहीं करता। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि रोज़ाना में दिखनेवाले दृश्यों में भी अमूर्तन की बड़ी संभावनाएं मौजूद होती है। बशर्ते कि कलाकार उनको देख या महसूस कर पाए। जैसे रजनीश के कुछ हालिया अमूर्त पेंटिंगों को सावधानी से देखने के बाद महसूस होता है ये तो गावों के पोखरों या तालाबों के भीतर के पानी के ऊपर की सतहें जैसी है। अक्सर, पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार के गावों में जो पोखर या तालाब होते हैं उनमें किनारे लगे पेड़ों की पत्तियां गिरती रहती है, गांव के मवेशी उनमें नहाते रहे हैं- ऐसे कई बाहरी तत्व उसमें गिरते- मिलते रहते हैं। इस सबसे उनके भीतर मौजूद पानी की सतह का रंग खास तरह का हो जाता है। इस रंग को खास नाम देना कठिन है पर उसे रोजमर्रे के जीवन में अनुभव करना आसान है। रजनीश की कुछ पेंटिंगों में ऐसे ही रंग मौजूद हैं। वैसे तो रजनीश गोरखपुर के रहनेवाले हैं पर उनका पुश्तैनी गांव आजमगढ़ में हैं जहां कुछ गावों मे बनारसी साड़ियां बनती हैं। रजनीश का वहा भी आना जाना रहा है और उन साड़ियों के ऊपर बने डिजाइन, बटन, टेक्सचर आदि की मौजूदगी भी उनके यहां है। खासकर पिछले सालों की पेंटिंग्स में एक दौर आया था जिसके दौरान बनी पेंटिंग्स में उन बनारसी साड़ियों के बनने की प्रक्रिया का अक्स दिखता है।
रजनीश से कलाशिक्षा पश्चिम बंगाल के बर्दवान विश्वविद्यालय से हुई जहां से उन्होंने बीएफए किया और मध्य प्रदेश के खैरागढ़ के इंदिरा कला संगीत से एमएफए। बर्दमान में रहते हुए रजनीश ने गुड़ की मंडियों को नजदीक से देखा। किस तरह से वहां गुड़ के कंटेनर आते हैं, कैसे उनको ट्रक से उतारा जाता है, कैसे चढ़ाया जाता है, जो मजदूर कंटेनर चढ़ाने –उतारने के काम मे लगे रहते हैं उनकी जिंदगी कैसी होती है, जिस दिन कंटेनर से भरा ट्रक नहीं आता या जिस दिन कंटेनरों के ट्रक में नहीं चढाया जाता उस दिन कैसे मजदूरों के पास कोई काम नहीं होता- इससे जुड़े और भी कई तजुर्बे उनको हुए। ये वो दौर था जब रजनीश छात्रावस्था में थे और आकृतिमूलक काम किया करते थे। गुड़ उतारने, चढ़ाने और बेचनेवालों की जिंदगी को उन्होंने काफी करीब से देखा और कैनवास पर उतारा।
आजकल रजनीश रेखांकनों पर बहुत जोर दे रहे हैं। वैसे तो हर पेंटर, और कई मूर्तिशिल्पी भी, रेखांकनों में काफी समय लगाता है। उसी कारण उसके भीतर नए तरह के विचार पनपते हैं। लेकिन किसी कलाकार के रेखांकनों का अध्ययन सिर्फ उसके बाद की पेंटिंग्स या मूर्तिशिल्पों के परिप्रेक्ष्य में नही होना चाहिए। रजनीश के रेखांकन स्वायत्त कलाकृतियां भी हैं। हाल में उनके किए गए रेखांकनों मे एक उर्ध्वाधार रेखा और उसके उसके इर्द गिर्द कुछ छोटे छोटे गोलाकार वृत्त होते हैं। हालांकि कुछ में इसके कुछ औऱ प्रकार होते हैं हैं पर मूल में एक उर्ध्वाधार रेखा और कुछ वृत्त ही होते है। उर्धाध्वार रेखा किसी पेड़ को दिखानेवाली होती है। लेकिन वह पेड़ न्यूनतम अवयवों वाला होता है। यानी पत्तियों की हल्की सी झलक। कोई डंठल नहीं है। कह सकते हैं कि रजनीश न्यूनतम के नए व्याकरण ही खोज कर रहे हैं।
May 13, 2019
9:33 am