भारत बसता तो गांवों में है, पर साहित्य, कला और उसकी संस्कृति शहरों में ही क्यों दिखती है। भले ही वह गांवों में प्रफुल्लित होती है। गांवों में भी संस्कृति, साहित्य व कला की खेती होती है। उसकी फसलें भी लहलहाती हैं, लेकिन पक कर यहीं पीढी दर पीढ़ी उगती व मरती रहती है। गांवों के लिए यह सब स्वाभाविक है। बस दिखती नहीं है या लोग देखते नहीं है। लोक कलाओं, परंपराओं, खानपान, वेशभूषा और न जाने क्या क्या गांवों से चुराकर शहरों के लोग अपना बनाकर पेश करने से बाज नहीं आ रहे हैं। गांवों में भोर से ही शुरु होकर रात में सो जाने तक गीत गवनई, किस्सागोई,चुहलबाजी, नृ्त्य, कारीगरी यहां हर क्षण निर्क्षर होकर बहती रहती है। इसके लिए जोर लगाने और आयोजन करने की जरूरत नहीं पड़ती है। जाति,वर्ग, धर्म व संप्रदायों के हिसाब से एक ही गांव में अलग-अलग बोली और न जाने कितने तरह की लोक कलाएं सहज रूप से रचती बसती हैं, जिसका कोई मोल नहीं होता है।
गोबर व मिट्टी के लेप से बनाई जाने वाले चित्रों को देखकर कला के पारखी भी दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। घरेलू पशुओं की बोली, रंभाने की आवाज, गले में बंधी घंटी के सुर, चक्की की घर्र घर्र, पंप सेट के पट्टे की तयताल और भी बहुत कुछ। हवाओं के झोंके से बज उठने वाली फसलों के संगीत। तीज त्यौहारों की तैयारियां, गाए जाने नाना प्रकार के गीत और उनके सुर ताल, उतार चढ़ाव, विशुद्ध परंपरागत वाद्ययंत्रों की झनकार व थाप। सब कुछ तो है गांवों में, लेकिन उसे न कोई जानने की कोशिश करता है और न ही उसे बचाने की कोशिश। धोबिययू नृत्य के साथ गीत को सुने न जाने कितने साल हो गये। अब न जाने वह होगा या नहीं पता नहीं। कहरवा गीत और उसके साथ बजाए जाने वाली अनूठी ढपली और भी कुछ जो टिभुक-टिभुक कर बजता था। भला उसे कैसे भुला पाएंगे। अहीर जाति का बिरहा, लोरकी और भी कई तरह के गाने व गीत है। उनके रचयिता व लेखक साहित्यकारों की श्रेणी में नहीं रखे जाते, भला वे इस श्रेणी में कैसे आ सकते हैं? उनके पांच चमाचम फर्श पर फिसल जाएंगे। साहित्यकारों की नफीस बोलचाल में वे फिट नहीं बैठेंगे। तभी तो वे गंवार हैं, हां भइयां वे गांवों में रहेंगे तो गंवार तो होंगे ही। बस….। लोक परंपराओं के नाम पर शहरों में फुहड़ पातर गाने व अनाप-शनाप चीजें धड़ल्ले से दिखाई जाने लगी हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र प्रसाद सिंह के ब्लॉग ‘बतकही’ से)
Posted Date:November 25, 2016
6:03 pm