• अनुज श्रीवास्तव, रंगकर्मी
कला, संस्कृति और रंगमंच के विकास और बढ़ावे के नाम पर न जाने कितने रूपए स्वाहा होते हैं | किन्तु विकास के सारे दावे ध्वस्त हो जाते हैं जब यह पता चलता है कि देश के अधिकांश शहरों में सुचारू रूप से नाटकों के मंचन के योग्य सभागार तक नहीं हैं | महानगरों में जो हैं भी वे या तो बहुत मंहगे हैं या फिर जैसी-तैसी हालत में हैं। इसलिए इन पैसों से चंद गिने-चुने जुगाडू रंगकर्मियों और संगीत नाटक अकादमियों में बैठे बाबुओं के व्यक्तिगत विकास के अलावा शायद ही कुछ ख़ास हो पाता है। ऐसा कहा जाता है कि कला और संस्कृति किसी भी समाज का आईना होता है। यदि यह सच है तो वर्तमान में समाज और कला संस्कृति की स्थिति क्या है आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं। भारतीय समाज की ज़रूरतों में रंगमंच का स्थान न्यूनतम से भी न्यूनतम है। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो पूरे देश का रंगमंच मूलभूत सुविधाओं तक से अब तक महरूम है।
देश में बहुत ही कम ऐसे सभागार हैं जो रंगमंच की दृष्टि से एकदम सही माने जा सकते हैं। जो भी हैं उनमें से ज़्यादातर सभागार जुगाड़ कर नाटक के लायक किसी तरह बना भर लिए गए हैं। यहाँ जितने भी सभागार बनाये गए हैं वे मूलतः बहुआयामी उपयोग के लिए हैं। भारत के चंद गिने चुने शहरों में जहाँ रंगमंच में एक निरंतरता है वहाँ की स्थिति आंशिक रूप से कुछ बेहतर कही जा सकती है, पर वहाँ भी केवल एक या दो सभागार ही काम लायक हालत में हैं। कई सभागार तो रख-रखाव के आभाव में धूल के भंडार में तब्दील हो गए हैं। प्रकाश के उपकरण इतनी बेदर्दी से टंगे होतें हैं कि कब अभिनेताओं के ऊपर गिर पड़ें पता नहीं। जहाँ तक सवाल पूर्वाभ्यास या रिहर्सल की जगहों का है तो कभी कोई पार्क, कोई मैदान, कोई सरकारी या ग़ैर-सरकारी स्कूल का खाली कमरा, खँडहर पड़ा कोई मकान या किसी आस्थावान रंगकर्मी का घर ही अमूमन इसके लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं।
जबलपुर, रांची, झाँसी,पटना,कोटा, रायगढ़,डोंगरगढ़, रायपुर और कुछ अन्य रंग शहरों का बदरंग हाल देखकर पूरे देश में रंगमंच की दशा पर चिंता होना स्वाभाविक है। आइये कुछ शहरों का जायजा लिया जाय, हिन्दुस्तानी रंगमंच का नंगा यथार्थ भी इसी के आसपास है। मध्यप्रदेश के शहर जबलपुर में तीन सक्रिय रंग-मंडलियां हैं। साल में तीन राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव का आयोजन होता है। समागम रंगमंडल का रंग-समागम, विवेचना की ओर से आयोजित रंग-परसाई व राष्ट्रीय नाट्य समारोह। इन नाट्योंत्सवों में देश के अलग-अलग शहरों के नाट्यदल अपने नाटकों का प्रदर्शन करतें हैं। यहाँ कुल तीन सभागार हैं। पहला, शहीद स्मारक ट्रस्ट का सभागार है, उसका किराया लगभग पन्द्रह हज़ार रूपए प्रतिदिन है। दूसरा, तरंग जो मध्यप्रदेश पावर मैनेजमेंट कंपनी का सभागार है, इसका किराया तीस हज़ार रुपये प्रतिदिन और तीसरा नगर निगम का सभागार मानस भवन है, जिसका किराया पच्चीस हज़ार रूपया प्रतिदिन है। किसी भी सभागार में प्रकाश और ध्वनि यंत्रों की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। जहाँ तक सवाल पूर्वाभ्यास के स्थानों का है तो उसका कोई निश्चित स्थान नहीं है। कभी किसी स्कूल का मैदान, कभी कोई हॉल यहाँ पूर्वाभ्यास स्थल बनता है।
डोंगरगढ़, मध्य प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा है। कोई सभागार नहीं है । मंच अस्थायी बनता है व पंडाल लगाना होता है । साउंड सिस्टम नजदीकी जिले से आता है तथा लाइट भिलाई से मंगाना पड़ता है। वास्तविक खर्च पचास हजार से ज्यादा बैठता है जो जनसहयोग से जैसे-तैसे जुटाया जाता है। पूर्वाभ्यास के लिए कोई जगह नहीं है।
रायगढ़, छतीसगढ़। चार-पांच लाख की आबादी वाले इस शहर में कोई रंगशाला नहीं है। पॉलिटेक्निक कॉलेज का ऑडिटोरियम है जिसे पक्के तौर पर एक सामान्य हॉल कहा जा सकता है। ऑडिटोरियम के निर्माण में किसी भी तरह की तकनीकी जरुरत का ध्यान नहीं रखा गया। वहाँ किसी भी कार्यक्रम का आयोजन आयोजक की मजबूरी है। आज उसे बने लगभग 30-32 वर्ष हुए। कभी कोई बड़ा मेंटेनेंस नहीं किया गया। सीट, ग्रीन रूम की हालत खराब है। लाइट, साउंड किसी तरह लगाया जाता है। सभागार में वेंटीलेशोंन भी नहीं है सो गर्मी के दिनों में अभिनेता-दर्शक सब पसीने में सराबोर होतें हैं। किराया है तीन हज़ार है लेकिन नाटक लायक बनाने में 12-15,000 पड़ता है। इन जुगाड़ को करने में जो मानसिक त्रास से आयोजकों को गुजरना पड़ता है उसकी कोई कीमत नहीं। इप्टा साल में दो एक आयोजन करती है , राष्ट्रीय नाट्योत्सव खुले मैदान में एक चालू हाल बना कर किया जाता है जिसमें 600-700 लोगों के बैठने की व्यवस्था होती है। 5 दिनों का खर्च आता है 1,20,000 रु., याने एक दिन का खर्च 24,000 रु.। यह पूरा खर्च जन-सहयोग से जुटाया जाता है। यह आयोजन पिछले 17 साल से लगातार किया जा रहा है। जिस शहर में ऑडिटोरियम नहीं है तो पूर्वाभ्यास के लिए जगह की उम्मीद नही की जा सकती। वो तो भला हो नगर-निगम वालों का जिन्होंने अपना सभाकक्ष रिहर्सल के मुफ्त में उपलब्ध कराया है। जिस दिन इस सभागार में कोई कार्यक्रम होता है उस दिन रिहर्सल बंद। हाँ, अभी 6-7 माह पहले एक सरकारी सभागार के निर्माण का काम शुरू हुआ है।
रायपुर, छत्तीसगढ़ की राजधानी। पूरी दुनिया में भारतीय रंगमंच का परचम लहरानेवाले हबीब तनवीर की कर्मभूमि। सभागार के नाम पर महाराष्ट्र मंडल का प्रेक्षागृह, कालीबाड़ी का रवीन्द्र मंच, शहीद स्मारक का प्रेक्षागृह, मेडिकल कालेज का प्रेक्षागृह और रंगमंदिर है, किन्तु इनमें से एक भी तकनीकी दृष्टि से नाट्य मंचन के लिए उपयुक्त नहीं । उसका किराया और प्रबंधकों का व्यावसायिक नजरिया रंगकर्मियों को निराश करता है।
राँची, झारखण्ड। खनिज पदार्थों से भरे इस राज्य की राजधानी में कोई लगातार सक्रिय रंगमंच की गतिविधि नहीं है ना ही रंगमंच के लिए कोई सभागार ही है। साल में दो-चार नाटक जैसे-तैसे, जिस तीस सभागार में किसी तरह हो जातें हैं। नाटकों के पूर्वाभ्यास अमूमन किसी के घर या किसी उपलब्ध जगह पर संपन्न किया जाता है। ऐसा सुनाने में आता है कि किसी ज़माने में राँची रगमंच काफी सक्रिय था। राँची का रंगमंच हर तरह से जर्जर हालत में है। किन्तु आज भी कुछ जुनूनी लोग जैसे-तैसे साल में एकाध नाटक कर लेतें हैं। कोटा, राजस्थान में एक रिवोल्विंग स्टेज है जो पिछले कई सालों से बंद पड़ा है। कहा तो ये भी जाता है कि यह हिंदुस्तान का पहला रिवोल्विंग स्टेज था, किन्तु इस बात में कितनी सच्चाई है इसकी परख होनी अभी बाकी है। कोटा के पास ही जबलपुर सिटी है। यहाँ भवानी नाट्यशाला है। जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी। आज ये भी बंद है। किसी ज़माने में यहाँ बड़े-बड़े नाटक और ऑपेरा का मंचन हुआ करता था। कोटा में कुल पांच सभागार हैं। सब के सब प्राइवेट। जिनका किराया 15 से 30 हज़ार रूपए रोज़ाना है। वर्तमान में, केवल एक नाट्य दल एक्टिव है – पेरफिन। दर्शकों की कोई कमी नहीं है। रिहर्सल के लिए स्कूलों से मदद ली जाती है।
November 18, 2016
10:28 am