वो सत्तर के दशक का शुरूआती दौर था… चुनावी राजनीति की बहुत समझ नहीं थी, लेकिन दो चुनाव चिन्ह की पहचान ज़रूर थी – जलता हुआ दीपक और गाय-बछड़ा – एक भारतीय जनसंघ का और दूसरा कांग्रेस का। और दो ही ऐसे नाम थे जिनके बारे में बार बार सुनते थे, अखबारों में देखते और पढ़ते थे… इंदिरा जी और अटल जी। लोहिया जी और नम्बूदरीपाद जैसे नाम भी कभी कभार सुनाई पड़ते थे। 1971 में पाकिस्तान से हुई जंग और अलग बांग्लादेश बनने के दौरान इंदिरा जी को पहली बार पटना के गांधी घाट से मोटर बोट पर गुज़रते और हाथ हिलाते देखा था। वक्त गुज़रा तो अटल जी के बारे में थोड़ा बहुत जाना। 1974 में बिहार के छात्र आंदोलन के दौरान इंदिरा गांधी के खिलाफ उठे जनाक्रोश को नज़दीक से देखा, 1975 की इमरजेंसी देखी और उस लहर का गवाह बना जब जनता पार्टी बनी। यही वो दौर था जब जेपी के साथ मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राज नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, मधुलिमय, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेताओं को करीब से देखने सुनने के कुछ मौके मिले। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो अटल जी विदेश मंत्री बने। जनता पार्टी की सरकार केवल दो साल चल पाई और वो भी बड़ी मशक्कत से। उसी दौरान अटल जी को एक बार गांधी मैदान में सुना। पहली बार किसी भाषण में इतना आनंद आया। साहित्य औऱ कविताई के साथ साथ बोलने का वो अंदाज़ कि लाखों की भीड़ बस उन्हें सुनती रही, गुनती रही और उनकी हर बात पर तालियां बजाती रही।
फिर कई मौके आए। पत्रकारिता में आने के बाद और खासकर रिपोर्टर के तौर पर तमाम नेताओं और पार्टियों को करीब से देखने, सुनने और समझने के जो मौके मिले, उस दौरान अटल जी को कई बार बेहद करीब से महसूस कर सका। एक राजनेता से ज्यादा उन्हें कई मौकों पर एक कवि के तौर पर सुना। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कई कई बार प्रधानमंत्री निवास पर अलग अलग समारोहों में, प्रेस वार्ताओं में उन्हें सुना और निजी तौर पर महसूस किया कि वो भीड़ में भी कितने अकेले हैं। सियासत का नशा तो छूटता नहीं, लेकिन उनके भीतर का कवि कितना बेचैन रहता, ये बार बार झलकता। आप सोचिए, 28 पार्टियों को साथ जोड़कर गठबंधन चलाना, बाद में 13 पार्टियों के साथ एनडीए की सरकार 5 साल तक चलाने और सबको खुश रखने की कला अगर किसी में थी तो सिर्फ और सिर्फ अटल जी में थी। उस दौरान सियासी खींचतान भले ही चलती रही हो लेकिन अटल जी का साहित्यिक औऱ कवि व्यक्तित्व ही था जिसके आगे सब बौने थे। भाजपा का हिन्दू राष्ट्रवाद तब भी था और आज भी है।
देश के विकास की कई गाथाएं तब भी लिखी जा रही थीं और आज भी लिखी जा रही हैं। लेकिन अटल जी उम्र के इस मुकाम पर आज सबसे अलग थलग हैं, कृष्णमेनन मार्ग के अपने निवास में गुमशुदा सा जीवन बिता रहे हैं। हर क्रिसमस के दिन देश उन्हें याद करता है। उनके 93वें जनमदिन पर भी कुछ औपचारिकताएं निभाई जाएंगी, कुछ फूलों के गुलदस्ते उनतक पहुंचेंगे और एक संवेदनशील कवि अपनी साहित्यिक और सियासी अतीत की दुनिया के कुछ पन्ने पलटने की कोशिश करेगा। अटल जी की अच्छी सेहत के लिए दुआओं के साथ उन्हें 7 रंग की तरफ से जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं। अपने पाठकों के लिए इस मौके पर अटल जी की पांच चुनी हुई कविताएं –
जीवन की ढलने लगी सांझ
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
राह कौन सी जाऊँ मैं ?
चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?
क़दम मिलाकर चलना होगा
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
मौत से ठन गई
ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
गीत नहीं गाता हूं..
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
December 24, 2016
11:14 pm