बदलते दौर में कठपुतली कला को बचाने की कोशिश

एक अद्भुत कला है कठपुतली

अतुल सिन्हा

क्या आज कठपुतली कला कहीं गुम हो रही है या फिर इसमें नए प्रयोग किए जा रहे हैं… तमाम लोक कलाओं की तरह कठपुतली को लेकर जो चिंता इससे जुड़े कलाकार जताते रहे हैं, उनमें आज के दौर के हिसाब से क्या सचमुच बदलाव आ रहा है.. ये तमाम सवाल जब हमने कठपुतली को बचाने और इसके विकास के लिए काम कर रहे दादी पदुमजी से पूछे तो उनके चेहरे पर कोई खास उत्साह के भाव नहीं दिखे। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उन्हें भी पिछले साल कठपुतली कला पर बोलने के लिए बुलाया गया था और उन्होंने इससे जुड़ी अपनी चिंता जताई भी थी लेकिन शायद उसका खास मतलब नहीं निकलता दिखा। लेकिन उनकी संस्था इशारा पपेट थियेटर ट्रस्ट हालांकि पूरी मेहनत और शिद्दत के साथ अपने काम में जुटी है… साल में तीन चार आयोजन भी कर लेती है, कठपुतली कलाकारों को प्रशिक्षण भी देती है और नई तकनीक से रू ब रू भी करवाती है..। विदेशों में भी दादी के शो होते रहे हैं और उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से भी नवाज़ा जा चुका है।
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सरकारें चाहे कोई भी रही हों, कला को लेकर उनमें कोई खास चिंता दिखती नहीं। हालांकि देशभर में कला और संस्कृति की बातें बहुत होती हैं। मंत्रालय भी बड़े बड़े दावे करता रहा है लेकिन कलाकारों का आज भी रोना है कि उन्हें न तो पर्याप्त फंड मिलता है, न पहचान मिलती है और न ही समाज में सम्मान। कला और संस्कृति हमेशा से हाशिये पर रही है सियासत की भेंट चढ़ती रही है। लेकिन दादी पदुमजी के भीतर उम्मीदें बाकी हैं, उन्हें लगता है कि एक न एक दिन लोगों को ये समझ में ज़रूर आएगा कि अपनी लोक कलाओं की क्या अहमियत है।
कठपुतली कला की चर्चा करते हुए एक बार हमें इसकी जड़ों को देखने की भी ज़रूरत है। मसलन ये कहां से आया है, तकनीकी तौर पर इसकी क्या अहमियत है, किन किन राज्यों में इसका अस्तित्व बाकी है आदि। कठपुलती का सीधा मतलब तो होता है काठ की पुतली यानी काठ की गुड़िया। इस काठ की गुड़िया को कठपुतली कलाकार तार या धागे से हिला हिला कर अलग अलग कहानियों के पात्र की तरह पेश करता है। पहले ये कला देश के गांव गांव में देखी जा सकती थी। कठपुतली कलाकार गांव गांव में घूम घूम कर कठपुतली के ज़रिये तमाम ऐतिहासिक और पौराणिक कहानियां सुनाया करते थे। करीब दो हज़ार साल पुरानी ये कला अब महज चंद राज्यों में जीवित है और शहरों में इसे पपेट शो के नाम से कभी कभार दिखाया जाता है। कहानी के पात्र पदल गए हैं, तकनीक बदल गई है और इस डिजिटल ज़माने में इसके तौर तरीके भी बदल गए हैं। फिर भी अगर पारंपरिक कठपुतली कला की बात करें तो भारत में चार तरह से कठपुतली नचाई जाती है – धागा, दस्ताना, छड़ और छाया।
धागे से नचाई जाने वाली कठपुतलियां यानी धागा पुतुल का इस्तेमाल राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, असम, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, और पश्चिम बंगाल में होता है। उसी तरह छड़ पुतलों का इस्तेमाल झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में किया जाता है. दस्ताने पहन कर हाथ से कठपुतली का खेल दिखाने की कला केरल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में आज भी अपनाई जाती हैं. वहीं छाया पुतुल यानी हाथ और उंगलियों की छाया से तरह तरह की आकृतियां बनाकर उनके हाव भाव को दिखाने की अद्भुत कला आम तौर पर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा और तमिलनाडु में प्रचलित है। उसी तरह उड़ीसा में गोपा लीला, असम में पुतला नाच, कर्नाटक में गोम्बयेत्ता और महाराष्ट्र में मलसूत्री बहुली धागे से नचाई जाने वाली कठपुतलियों के रूप हैं।
उत्तर प्रदेश को कठपुतली कला की जन्मस्थली माना जाता है। कहा जाता है कि सबसे पहले इस कला का कठपुतलियों के ज़रिये प्रदर्शन यहीं से शुरू हुआ था। बाद में धीरे धीरे ये देश के अन्य हिस्सों में भी फैलता गया।
लेकिन तकनीक के बदलाव के साथ साथ कठपुतली कला में ज़बरदस्त बदलाव आए हैं। अब लकड़ी की जगह की कागज की गुदली से आकृतियां बनाई जाने लगीं और टेलीविज़न क्रांति के बाद से तो कठपुतलियां अब कंप्यूटर में भी बनने लगीं हैं। जाहिर है स्क्रीन पर दिखने वाली कठपुतलियों को आप इसके पारंपरिक रूप से नहीं जोड़ सकते और जो बारीकियां कठपुतली कलाकार की उंगलियों में होती हैं, उसका मज़ा आप स्क्रीन पर नहीं ले सकते। जाहिर है ऐसे में इस परंपरा को इसके मूल रूप में बचाए रखना एक चुनौती भी है और इससे जुड़े कलाकारों को मुख्य धारा में लाना और इस कला को बचाए रखना एक सांस्कृतिक मिशन भी होना चाहिए।

Posted Date:

November 11, 2015

10:04 am
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