इब्न बतूता ने पहना कौन सा जूता

देख तमाशा दुनिया का

आलोक यात्री को पढ़ना और सुनना एक अनुभव है। वो तमाम पात्रों और चरित्रों को तलाशने में बहुत दूर दूर तक निकल जाते हैं। आलोक जी कोई गीत सुन रहे हों या फिर अचानक उनके दिमाग में कोई शब्द कौंध जाता हो, तो वह उसकी तह तक पहुंचने की कोशिश करते हैं और फिर जो कहानी बनती है तो पूछिए मत, कितनी दिलचस्प होती है। कुछ अखबार वाले साथी आलोक यात्री की इस प्रतिभा का इस्तेमाल अपने फीचर पन्नों पर करते हैं तो कुछ उनसे कहकर लिखवाते भी हैं। आलोक जी को यह जो ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होता है, उसी का एक नमूना इब्न बतूता की इस तलाश में देखिए…. 

मिर्जा ग़ालिब को सुनते हुए अचानक ज़ेहन में “इब्न बतूता, पहन के जूता…” पंक्ति पता नहीं कहां से कौंध गई? लगभग एक दशक पूर्व पहली बार जब यह पंक्ति सुनी थी तब भी ध्यान इस नाम (इब्न बतूता) पर गया था। यह तो पता था कि इब्न बतूता एक विदेशी यात्री था। लेकिन यह पता नहीं था कि लगभग आठ सदी बाद वह एक किरदार के तौर पर ज़ेहन में इस तरह दाखिल होगा कि निकलने का नाम लेने के बजाए आपको इसलिए परेशान करने लगेगा कि आप उसके बारे में और जानने को बेचैन होने लगें।
  जी हां! मेरी उत्सुकता मुझे इब्न बतूता की ओर खींच रही है। दुनिया जिसे इब्न बतूता के नाम से जानती है उसका असल नाम ‘इब्न बतूता मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अललवाती अलतंजी अबू अब्दुल्लाह’ था। उसका जन्म 24 फरवरी 1304 में मराकिश (मोरक्को) में हुआ था। महज 21 बरस की उम्र में इब्न बतूता ने उत्तरी अफ्रीका के उत्तरी-पश्चिमी सिरे (मोरक्को) से जब 14 जून 1325 को सफर की शुरूआत की तो उसे भी यह इल्म नहीं था कि उसकी मंजिल क्या है? दिल में सिर्फ मक्का-मदीना की जियारत (दर्शन) करने की ख्वाहिश भर थी। जियारत और सियाहत (यात्रा) के इस जुनूनी शौक ने इब्न बतूता के नाम के साथ वह कारनामा चस्पा कर दिया कि गाहे-बगाहे ज़ेहन में उसका नाम कौंध जाता है।
  जुनून और जिज्ञासा इंसान से कई बार वह कारनामा करवा देती है, जिसकी वजह से मरने के बाद भी इतिहास सैकड़ों वर्षों तक उस इंसान को भुला नहीं पाता। इब्न बतूता ऐसा ही एक नाम है। जिसने अपनी जिज्ञासा और जुनून के दम पर अपने क़दमों से आधी से अधिक दुनिया नाप दी थी। वह भी 13वीं शताब्दी में जब लोगों के पास न इतना धन था और न ही संसाधन। जाहिर तौर पर उस समय में दुनिया घूमना एक कोरी कल्पना से ज़्यादा और कुछ न रहा होगा, लेकिन इब्न बतूता ने इस कल्पना को साकार कर दिखाया। बतूता को भी इस असम्भव कार्य को सम्भव करने के लिए एक मौके की तलाश थी, जो उसे हज करने के लिए मक्का जाने के दौरान प्राप्त हुआ।
  इब्न बतूता मोरक्को से जब रवाना हुआ था तो उसका मकसद सिर्फ हज था। लेकिन सफ़र के रोमांच ने उसे आगे बढ़ने का हौसला दिया और वह सऊदी अरब से पहले अलजीरिया, ट्यूनिशिया, मिस्र, फिलिस्तीन और सीरिया होते हुए एक बड़े कारवां के साथ मक्का पहुंच गया।
उन दिनों बतूता की जन्मभूमि से हज यात्रा के लिए सोलह महीनों का समय लगता था। इतने ही समय का अनुमान लगाकर बतूता घर से चला था। मगर सफ़र के रोमांच और दूसरे देशों की संस्कृति को जानने की ललक ने उसे लगभग 30 वर्षों के लिए ख़ानाबदोश बना दिया। माना जाता है कि बतूता तीन वर्षों तक मक्का और मदीना के बीच रहे। इस दौरान उन्होंने दो बार हज किया तथा नई जगहों का भ्रमण किया।
  बतूता ने अपनी यात्रा एक खच्चर की सवारी के साथ अकेले ही शुरू की थी। किन्तु साथ के लिए जल्द ही उन्हें उत्तरी अफ्रीका से पूर्व की ओर जाने वाले यात्रियों का कारवां मिल गया। रास्ता बीहड़ तथा डकैतों के आतंक से ग्रसित था। इसी बीच बतूता को बुखार भी हो गया। जिस वजह से गिरने से बचने के लिए उन्हें खुद को काठी से बांध कर यात्रा करनी पड़ी। तमाम मुश्किलों के बाद भी वह आगे बढ़ते रहे। इसी यात्रा के दौरान उन्होंने एक महिला से शादी की। जिसके पहले से दस बच्चे थे। अपनी यात्रा के दौरान रचाई गयी 10 शादियों में यह उनकी पहली शादी थी।
  सन 1326 की शुरूआती बसंत में इब्न बतूता लगभग 35 सौ किलोमीटर की यात्रा के बाद अलेक्ज़ेन्ड्रिया पहुंचे। जहां उनकी मुलाकात दो सूफी संतों से हुई। पहले थे शेख़ बुरहानुद्दीन। जिन्होंने बतूता को देखते ही भविष्यवाणी की कि ‘ऐसा जान पड़ता है कि तुम विश्व भ्रमण के लिए ही पैदा हुए हो’। इसी के साथ शेख ने उन्हें बताया कि जब वह भारत जाएं तो, उनके भाई फरिद्दुदीन, सिंध में रुकुनुद्दीन तथा चीन में बुरहानुद्दीन को उनकी तरफ से दुआ सलाम पेश करें।
  इसी दौरान इब्न बतूता ने यह सपना देखा कि एक बड़े से पक्षी ने उन्हें अपने पंखों पर बिठा कर पूरब की ओर एक लम्बी उड़ान भरी है। बाद में उन्हें मिलने वाले दूसरे सूफ़ी संत शेख मुर्शिद ने इस सपने का मतलब समझाते हुए कहा कि उन्हें विश्व की यात्रा करनी है। इन दो भविष्यवाणियों ने बतूता के मन में दुनिया घूमने की लालसा को और बढ़ा दिया। इस जगह पर कुछ हफ़्ते रुकने के बाद बतूता ने काहिरा का रुख किया। जहां से उसे मक्का पहुंचने के लिए तीन मार्गों में से एक का चुनाव करना था। बतूता ने नील नदी पार करते हुए लाल सागर के तट से होकर जाने वाले मार्ग को चुन कर आगे बढ़ा। किन्तु सफ़र के बीच एक शहर में पहुंचने के बाद, वहां चल रहे स्थानीय विद्रोह के कारण उन्हें वापिस लौटना पड़ा। वहां से उन्होंने एक कारवां के साथ सीरिया से होकर जाने वाले मार्ग को चुना और मक्का की यात्रा पुनः आरंभ की। तमाम मुश्किलों को पार करते हुए इब्न बतूता ने अपने पहले लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। मक्का में अपना हज करने के बाद बतूता ने इराक, उत्तरी ईरान तथा बगदाद जाने के लिए अरब के रेगिस्तान को पार किया। इसी दौरान बतूता ने मंगोलों के अंतिम खान अबू सईद से मुलाकात भी की।
  सूफी संतों से पूरब के मुल्कों की ख्याति सुनने की वजह से उसे अंदाजा हो गया था कि यह मजहब और ईमान के कद्रदानों की धरती है। उसने भारत के उत्तर-पश्चिम दरवाज़े यानी अफगानिस्तान के रास्ते भारत में प्रवेश किया। उस वक्त दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की हुकूमत थी। तुगलक ने पहले से ही इब्न बतूता के बारे में सुन रखा था। दिल्ली पहुंचने पर बतूता की खूब खातिरदारी की गई और उसे कई तोहफों से नवाजा गया। बतूता को राजधानी के काजी-ए-आला का ओहदा सौंप दिया गया। तुगलक को बतूता के काम करने का अंदाज बहुत पसंद आया। 1342 में उसने बतूता को अपना सफीर (दूत) बनाकर चीन के लिए रवाना किया। लेकिन चीन के रास्ते में बतूता को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसी सफर के दौरान वह मध्य भारत के मालवा होते हुए गोआ पहुंचा था और वहां से कालीकट तक पहुंचने में भारी मशक्कत करनी पड़ी। तमाम मुश्किलों के बावजूद आखिरकार इब्न बतूता श्रीलंका और बंगाल की खाड़ी के मार्ग से चीन पहुंचने में कामयाब हो गया।
  दुनिया का तकरीबन 120000 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद 1354 की शुरूआत में इब्न बतूता अपने देश मोरक्को पहुंचा। राजधानी फेज में उसका गर्मजोशी से स्वागत किया गया। क्योंकि इससे पहले किसी ने इतनी लंबी यात्रा नहीं की थी। फेज में सुल्तान अबू हन्नान के दरबार पहुंचकर अपना यात्रा वृतांत सुनाया तो सुल्तान ने अपने सचिव मुहम्मद इब्न जुजैय को इसे लिखने का आदेश दिया। इसके बाद पूरा समय बतूता का मोरक्को में ही बीता। 1377 में बतूता का निधन हो गया। उसके पूरे सफरनामे को किताबी शक्ल दी गई। इस किताब को ‘अजाइब अलअसफारनी गराइबुद्दयार’ और ‘तुहफतुल नज्जार फी गरायतब अल अमसार’ के नाम से प्रकशित किया गया। इस किताब में मध्यकालीन भारत और विश्व के कई देशों के इतिहास और भौगोलिक परिस्थितियों का जिक्र है। इसकी पांडुलिपि पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। इस हस्तलिपि को दे फ्रेमरी और सांगिनेती ने संपादित किया है। हस्तलिपि के रूप में यह पांडुलिपि 1836 में तांजियार में मिली थी। इसका फ्रेंच में चार खंडों अनुवाद किया गया है।
  नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी और विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘इश्किया’ के गाने ‘इब्न बतूता/ बग्ल में जूता/ पहने तो करता है चुर्र…/ उड़ उड़ आवे/ दाना चुगे/ उड़ जावे चिड़िया फुर्र…’ ने इब्न बतूता का नाम हर खासो-आम की जबान पर ला दिया था। इस गीत को गुलज़ार साहब ने बड़ी खूबसूरती से लिखा है। हालांकि बरसों पहले हिन्दी के ख्यातनाम कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ‘बतूता का जूता’ कविता भी काफी मशहूर हुई थी। ज़रा आप भी पढ़िए सर्वेश्वर जी की यह कविता…
इब्न बतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्न बतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुंचा जापान में
इब्न बतूता खड़े रह गए
मोची की दुकान में।
  तो यह थे इतिहास में दर्ज महाशय इब्न बतूता…
♦ आलोक यात्री
Posted Date:

August 18, 2022

11:16 pm
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